बरसाती

28-03-2016

बरसाती

मिर्ज़ा हफ़ीज़ (अंक: 220, जनवरी प्रथम, 2023 में प्रकाशित)

मारू ने अपनी जेब टटोली। वह तसल्ली कर लेना चाहता था, पैसे जेब में हैं। कहीं गिर तो नहीं गये? या शहर में किसी ने जेब तो नहीं काट ली? हाँ! ठीक है। लेकिन वह एक बार अपनी आँखों से भी देख कर तसल्ली कर लेना ठीक समझा और दुकानदार की तरफ़ पीठ करके उसने जेब से पैसे निकाले और उन्हें देख कर जल्दी से वापस जेब के हवाले कर दिया। कनखियों से दुकानदार की तरफ़ देखा, कहीं दुकानदार ने उसके पैसों को देख तो नहीं लिया? इसके बाद वह दुकानदार की तरफ़ मुड़ा और फिर से मोल-भाव करने लगा। 

अब तक दुकानदार का धैर्य जवाब देने लगा था। हालाँकि, फ़ुटपाथ पर धन्धा करने वाले किसी भी दुकानदार के लिये मोल-भाव का सामना करना आम बात होती है; लेकिन ऐसे किसी ग्राहक से उसका पहली बार सामना हुआ था। शुरू में तो उसे इस देहाती से मोल-भाव करने में मज़ा आ रहा था। इस देहाती की हर एक हरकत, हर एक बात का वह मज़ा ले रहा था। इस देहाती को वह आसान शिकार समझ रहा था; लेकिन जल्द ही उसे लगने लगा कि यह टेढ़ी खीर है। अब वह झुँझलाने लगा था, और उससे जल्दी पीछा छुड़ाना चाह रहा था। 

समारू देहाती था, और यही उसकी ख़ासियत थी। हर बात पर सन्देह करना उसका स्वभाव था। और वह दुकानदार बेचारा जिसने कभी गाँव-देहात के बाज़ार में दुकान नहीं लगाई, वहाँ धन्धा-पानी नहीं किया; सो उसे गाँव देहात के ग्राहकों का कोई अनुभव ही नहीं था। वह तो ठेठ शहरी लड़का था, जो यहीं रहा और पढ़ा-लिखा था। बेकारी के दौर में थोड़ी सी पूँजी जुटा कर फ़ुट्पाथ पर सामान रखकर धन्धा करने लगा। अक़्सर शहरियों की तरह गाँव वालों को रसगुल्ला ही समझता था। लेकिन, समारू कोई रसगुल्ला नहीं था। दुकानदार को उससे पीछा छुड़ाने के लिये औने-पौने में ही सौदा तय करना पड़ा। 

दुकानदार ने चैन की साँस ली, चलो पीछा छुटा! समारू ख़ुश था, आख़िरकार उसने बरसाती ख़रीद ही ली। 

अब उसकी चाल तेज़ हो गयी थी। उसके पैर ज़मीन पर पड़ ही नहीं रहे थे। 

बरसाती, समारू का बचपन का सपना था। उसने ज़िन्दगी में कभी बरसाती नहीं पहनी थी। वह बरसात का सामना हमेशा बोरा ओढ़ कर या प्लास्टिक की पन्नी ओढ़ कर ही किया करता था। बचपन में बरसात के समय स्कूल जाते हुए भी वह बोरा ओढ़ लिया करता, या कोई कपड़ा सिर पर रख लेता या स्कूल ही नहीं जाता। लेकिन रास्ते में वह सरकारी कर्मचारियों को बरसाती पहने साइकिल पर सवार हो अपने काम पर जाते-आते देखा करता। बस यहीं से वह बरसाती एक सपने की तरह उसके मन-मस्तिष्क पर सवार हो गयी थी। वह हमेशा यह सोचा करता कि, कैसा लगता होगा यूँ बरसात में ठाठ से बरसाती पहनकर जाना। जवानी के दिन ज़िम्मेदारियों का बोझ ढोते बीत गये। न हसरत पूरी हुई न दूर हुई। 

और आज जब वह शहर आ रहा था; उसने सोच लिया था–काम पूरा होने के बाद वह आज शहर के बाज़ार से बरसाती लेकर ही आयेगा। तो, भले अब उसकी कमर झुक गयी थी, बाल सफ़ेद हो चले थे; लेकिन आज बरसाती उसके पास थी। और अपनी हसरत पूरी करने के लिये उसे इन्तेज़ार था सिर्फ़ बरसात का। 

XXX

तो, बरसात का मौसम था। इस साल बरसात भी धोखा देती लग रही थी। अभी तक मौसम बस छींटे मार कर ही गुज़र रहा था। लेकिन आज बात कुछ और थी। आसमान पर काले बादल छाने लगे थे। समारू अपने खेत पर था। उसे बरसात के आसार नज़र आ रहे थे। लेकिन उसे चिन्ता नहीं थी। उसकी बरसाती उसके पास थी। बल्कि वह उतावला था कि, बरसात गिरे और वह अपनी बरसाती पहन कर ठाठ से घर के लिये निकले। हालाँकि, वह भूख से व्याकुल होने लगा था। फिर भी खाना खाने के लिये घर जाने के लिये वह बरसात का इन्तेज़ार कर रहा था। उसे अभी तक बरसात में अपनी बरसाती पहनने का मौक़ा जो नहीं मिला था। 

अखिर बूँदा-बाँदी शुरू हो गयी और वह घर की तरफ़ चल पड़ा। हल्की बूँदा-बाँदी हो रही थी, लेकिन उसके बदन पर अब बरसाती थी; जिससे उसकी चाल में एक बेफ़िक्री नज़र आ रही थी। उसका झुका हुआ शरीर अब सीधा लगने लगा जिसके कारण उसकी चाल में आत्मविश्वास झलक रहा था। वह अपनी कल्पनाओं में अपने आप को बरसाती पहने बरसात में जाते हुए महसूस करने लगा। इन पलों में उसने अपने आप को बचपन और जवानी के गुज़रे हुए दिनो में इसी बरसाती को पहने देखा। उसकी सारी ज़िन्दगी और सारे सपने जैसे इसी पल में सिमट आए थे। वह इसी बेख़याली में चलता हुआ जाने कब नहर की मेड़ पर पहुँच गया था कि तभी किसी ने आवाज़ दी, “वाह, समारू . . . नवा नवा बरसाती . . .?” 

“हाव! भिलाई ले नाने हंव,” उसने जवाब दिया। 

कुछ आगे जाने पर उसे मंगल दिखाई दे गया। यह अवांछित था। समारू को वह व्यक्ति पसन्द नहीं था। उसे शक था कि वह नीयत का ठीक नहीं है; इसलिये उसके टोक देने से टोका लग जाता है। इसलिये वह उससे कतराकर निकलना चाह रहा था कि, मंगल ने टोक ही दिया, “काय समारू! नवा बरसाती? . . .”

“नई . . . पुरनी आय।”

इसी तरह उसने बिसेसर को जवाब दिया, “दुरुग ले नाने हंव।”

और बिसाहु को बताया, “रायपुर ले नाने हंव ग!”

आख़िर वह नहर से उतर कर सड़क की ओर बढ़ गया। अब बरसात तेज़ होने लगी थी। उसे अपनी बरसाती की चिंता होने लगी। आज पहला इस बरसाती का पहला ही दिन है। आज ही पहना हूँ, और आज ही इतना पानी झेलना क्या बरसाती के लिये ठीक रहेगा? अत: वह एक पेड़ के नीचे जा खड़ा हुआ। यहाँ खड़ा होकर वह बरसते पानी से बच रहा था लेकिन थोड़ी देर बाद पेड़ से पानी चूने लगा। थोड़ी ही देर में हवा चलने लगी और पानी के थपेड़े चेहरे पर पड़ने लगे। तेज़ हवा से बरसाती फड़फ़ड़ाने लगी। इसी के साथ उसकी चिन्ता बढ़ने लगी। बरसाती उसकी सुरक्षा के लिये थी लेकिन, उसकी चिन्ता बरसाती के लिये बढ़ने लगी ऐसी तेज़ बरसात और हवा के झोंके से बरसाती का क्या होगा? उसने अपनी बरसाती को प्यार से सहलाया और उतार कर बड़ी एहतियात से झोले में रख लिया। अब वह बेफ़िक्र हो गया। उसकी बरसाती सुरक्षित थी। तो अब वह बेफ़िक्र होकर घर जा सकता था। अब उसकी भूख तेज़ होने लगी थी सो वह तेज़ बरसात में घर की तरफ़ चल पड़ा। बरसाती झोले में रख कर उसने अपनी शर्ट के नीचे दबा रखी थी। 

जब वह घर पहुँचा तो पूरी तरह तर-ब-तर था। पूरा शरीर ठंड से थर-थर काँप रहा था। घर में घुसते ही उसकी पत्नी बरस पड़ी, “नवा नवा बरसाती रखे रहिस त पहिरे काबर नई? अतेक भीगे काबर?” 

“वाह! नवा नवा बरसाती ल अतेक पानी म पहिरौं . . .?” 

“का होगे त? पानी बादर म बरसाती ख़राब होथे क?” 

“त?” 

“त का? डोकरा . . . बुढ़ागे हे। तबिअत बिगड़गे त . . .?” 

समारू ने इससे आगे डोकरी की किसी बात पर ध्यान नहीं दिया। 

‘तैं, नई समझ सके . . . ” उसने अपने आप में बड़बड़ाते हुए कहा। जल्दी से बरसाती को बाहर निकाल कर बड़े प्यार से खूँटी पर टाँग दिया। बरसाती से पानी निथरने लगा। 

खाना खाने के बाद उसे एक छींक आई, “आक्छीं . . . ।” बस, इसके बाद वह खटिया पर लेट गया; और फिर कभी उठा नहीं। उसे तेज़ बुख़ार आया, बूढ़ी हड्डियाँ कँपकँपाने लगी। कोई दवा, कोई टोटका काम नहीं आया। अन्तिम समय में उसकी सन्तोष भरी नज़र नयी बरसाती पर लगी थी। 

हाँ! उसकी नयी बरसाती अब भी वहीं टँगी है, उसी खूँटी पर। सुरक्षित! 

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