नागार्जुन की कविताओं में लोकतंत्र

01-06-2022

नागार्जुन की कविताओं में लोकतंत्र

डॉ. मो. माजिद मियाँ (अंक: 206, जून प्रथम, 2022 में प्रकाशित)

डॉ. मो. माजिद मियाँ, प्राध्यापक (हिंदी विभाग), श्री अग्रसेन महाविद्यालय, दालखोला, उत्तर दिनाजपुर
khan.mazid1340@gmail.com, Mobile-9851722459 

शोध सारांश:

नागार्जुन छायावादोतर काव्य के सर्वप्रमुख काव्यान्दोलन प्रगतिवाद के और सम्पूर्ण हिंदी कविता के महत्त्वपूर्ण जनकवि हैं। जनकवि की छवि उनकी राजनीतिक व्यंग्यधर्मिता और जनपक्षधरता के योग के कारण बनी है। प्रकृति, राजनीति, लोकाशक्ति और मैदानी जीवन के बहुविध रंग उनकी कविताओं में उपलब्ध हैं। तथा भाषा व्यंजना और शक्ति समर्थित सम्प्रेषण के अनिवार्यता से जुड़ी हुई है। नागार्जुन की काव्य चेतना वास्तविकता जीवनबोध के संकल्प से जुड़कर विकसित हुई है। वास्तव में वह कविता के लोकतंत्र में जनता के सांसद हैं जिसने निडरता से जनता के सवाल को बार-बार कविता के लोकतंत्र में उठाया है और जनता ने भी उन्हें स्वीकार कर आँखों पर बिठाया है। 

शब्द कुंजी: लोक, सरोकार, जनपदीयता, जनपक्षधरता, श्रमजीवी, वर्गसंघर्ष, वास्तविकता। 

प्रस्तावना:

नागार्जुन की संपूर्ण रचनाधर्मिता समतली संघर्ष की पगडंडियों पर चहलक़दमी करती हुई निरंतर यात्री बनी रहती है। इनकी काव्य चेतना का स्रोत और थाती है जनपदीयता। लोक सरोकार इनके काव्य की शक्ति और पूँजी है जो जीवन के जितना पास है वह नागार्जुन की काव्य-चेतना के पास है। वह मुरैठा बाँधे ठिगना चना, सिंदूर तिलकित भाल वाली पत्नी-प्रिया, दंतुरित मुस्कान वाला शिशु, दुद्धी धान की मंजरियाँ, कटहल, मादा सूअर ये सभी आम ज़िन्दगी के सहज चित्र हैं जिनसे नागार्जुन काव्य साधना गुज़रती है। कविता ‘बहुत दिनों के बाद' में गंध-रूप-रस-शब्द-स्पर्श के आदिम बोध को कितनी सहजता से बाबा कविता में उतार ले जाते हैं:

'अब की मैंने जी-भर देखी
पकी-सुनहरी फ़सलों की मुस्कान, 
अब की मैं जी-भर सुन पाया 
धान कूटती किशोरियों की कोकिल कंठी तान
बहुत दिनों के बाद’

ये जनपद और कृषि संस्कृति के सहज चित्र हैं जो विशेषकर आज के विषम समय में संवाद साझा करते हुए नज़र आते हैं। जीने की ज़िद, सच कहने का माद्दा, कभी मलँग-सा फटकारते हुए, कभी किसान-सा पौधे को पानी देते हुए। कुल मिलाकर नागार्जुन की कविता विकसती है, उकसाती है, लताड़ती है, बतियाती है। इन सब की रचनात्मक परिणति का एक सुंदर दृश्य दृष्टव्य है:

‘रिक्शेवाले की पीठ पर फटी बनियाइन, 
पसीने के अधिकांश गुण-धर्म को कर रही है-प्रमाणित॥
इस नरवाहन की प्राण शक्ति और कितना पकेगी? 
और कितना? क्षार-अम्ल दाहक विगलनकारी।’ 

ये अचूक नज़र कविता में किसी भी ईमानदारी के दावे से ज़्यादा ईमानदार है। नागार्जुन की काव्य चेतना में लोक की आत्मा में जन का संवाद है। जनता के सवाल उठाने में नागार्जुन किसी जनप्रतिनिधि से ज़्यादा सतर्क और ज़िम्मेवार हैं। नागार्जुन मूलत: जनपक्षधरता के कवि हैं। इनकी कविताओं में जीवन के सवाल ख़ुश्बू की तरह नमूदार होते हैं। श्रमजीवी वर्ग के संघर्ष को अगर कोई अनुष्ठान बनाता है तो वह निश्चित रूप से बाबा हैं। नागार्जुन उस समाज के सच को अपनी काव्य-चेतना के माध्यम से संप्रेषणीय बनाते हैं। जनकवि का यह रूप जनप्रतिनिधि के संसदीय रूप से ज़्यादा खरा और ईमानदार है। 'नागार्जुन स्वाधीन भारत के प्रतिनिधि जनकवि हैं। तरल आवेगों वाला, अति भावुक, हृदयधर्मी जनकवि।”1 इसकी स्वीकारोक्ति का यह बिंदास तेवर देखें:

'जनता मुझसे पूछ रही है, क्या बतलाऊँ
जनकवि हूँ मैं। साफ़ कहूँगा क्यों हकलाऊँ' 

डॉ. रामविलास शर्मा की यह टिप्पणी 'जहाँ मौत नहीं है, बुढ़ापा नहीं है, जनता के असंतोष और राज्यसभाई जीवन का संतुलन नहीं है वह कविता है नागार्जुन की। ढाई पसली के घुमन्तु जीव, दमे के मरीज़, गृहस्थी का भार फिर भी क्या ताक़त है नागार्जुन की कविताओं में।' हम नागार्जुन की काव्य चेतना में निरंतर धँसी लोक जीवन और जन प्रश्नों की तासीर को महसूस कर सकते हैं। मज़दूरों, किसानों की भाषा में लिखने वाला बाबा की यह स्वीकारोक्ति कि:

'जी हाँ, लिख रहा हूँ 
बहुत कुछ! बहोत बहोत 
मगर आप उसे पढ़ नहीं पाओगे
यहाँ बिल्कुल वैसे जैसे कि लोग बोलते हैं–'

तो स्वाभाविक रूप से बाबा की काव्यशक्ति का पता चलता है। डॉ. नामवर सिंह कहते हैं, 'बात करने के हज़ार ढंग हैं। कभी तो वह सीधा-साधा वक्तव्य देते हैं-प्रतिबद्ध हैं। आबद्ध हैं। कभी ख़ुद से बातचीत-नहीं कर ली पार। उसके बाद नाव को लेता, कभी दूसरे को संबोधन कालिदास सच-सच बतलाना।'

'जनकवि के रूप में नागार्जुन की सबसे बड़ी उपलब्धि है, कविता के कलात्मक सौंदर्य की बलि चढ़ाए बिना कविता को सर्वजन सुलभ बना दिया।’2 यह टिप्पणी बाबा और उनके शिल्पन के संदर्भ में एकदम सटीक है। गँवई प्रकृति और भदेसपन पर अम्लान लगाव बाबा की काव्य-चेतना को कोमल कर देता है। गाँव घर की याद प्रवासी की थाती है पत्नी, पुत्र का सहज चित्रण निश्चित रूप से गृहस्थ जीवन की स्वस्थ और अंकुठ प्रस्तुति की अप्रतिम और इकलौता उदाहरण बन जाता है। प्रकृति के सतरंगी तस्वीर को व्यक्त करते हुए, नागार्जुन जब बादल को घिरते देखा है जैसी कविताएँ लिखते हैं तब भी वास्तविकता की ज़मीन पर उनके पैर टिके रहते हैं। परिणाम यह होता है कि कालिदास के मेघ, नागार्जुन के बादल के सामने कपूर की तरह उड़ जाते हैं। 

अकाल और उसके बाद की कविता पर तो रेवती रमण इतने मुग्ध हैं कि इसी एकमात्र कविता को वो पर्याप्त बताते हैं बाबा की दीर्घजीविता और कालजयस्विता के लिए। कई दिनों तक चूल्हा रोया, चक्की रही उदास से चमक उठी घर भर की आँखों कई दिनों के बाद कविता क्या मानो जीवन संग्राम के संघर्ष कर रहे मनुष्य की कथा की करुण पर यशस्वी रूप साकार हो उठा हो। नामवर सिंह ने ठीक ही लिखा है:

'नागार्जुन को काव्य-संसार का एक बहुत बड़ा भाग अनूठे प्रकृतिचित्रों से सजा है, जिनसे कवि की गहरी ऐंद्रियता और सूक्ष्म सौंदर्य-दृष्टि का एहसास होता है। वर्षा और बादलों पर इतनी अधिक कविताएँ निराला के बाद नागार्जुन ने ही लिखी है।”3

राजनीति पर कविताएँ लिखते समय वे नारों और कविताओं की बुनियादी फ़र्क़ को समझते हैं . . . बाँकी व्यंग्य और निर्भीकता से उनकी राजनीतिक कविताएँ अपनी पठनीयता में मारक और प्रभाव में संभावनाधर्मी हैं:

'बरसाकर बेबस बच्चों पर मिनट-मिनट में पाँच तमाचे 
इसी तरह दु:खरन मास्टर गढ़ता है आदम के साँचे'4

शिक्षा व्यवस्था पर प्रहार साथ ही पैदा हो रही विसंगति का चित्र बाबा अद्भुत तरीक़े से साधते हैं। 

निष्कर्ष:

संपूर्णता में देखें तो नागार्जुन की काव्य चेतना भारतीय जनमानस के समस्त सुख-दुख, स्वप्न-जागरण, संघर्ष-यातना की सामूहिक तैयारी से निर्मित होती है। कबीर-निराला की परंपरा में आनेवाली नागार्जुन निश्चित रूप से संप्रेषणीयता का अकुंठ लोकस्वर तैयार करनेवाले आधुनिक काल की सर्वश्रेष्ठ कवि हैं। सच कहें तो वास्तविकता का आग्रह और यथार्थ का परिपक्व बोध नागार्जुन की काव्य-चेतना में आस्था, सरोकारों से संबद्ध पक्षधरता, सूक्ष्म पर्यवेक्षण, व्यंग्य, राजनीतिक व्यावहारिकता में सभी विशिष्टताएँ नागाजुन की काव्य-चेतना को निश्चित रूप से प्रभावित, प्रेरित और परिभाषित करती है। 

संदर्भ ग्रंथ सूची:

  1. कविता की ज़मीन और ज़मीन की कविता-संपादक आशीष त्रिपाठी, पृ.-168, राजकमल प्रकाशन, 2010 

  2. कविता की ज़मीन और ज़मीन की कविता-संपादक आशीष त्रिपाठी, पृ.-173, राजकमल प्रकाशन, 2010 

  3. नागार्जुन-प्रतिनिधि कविताएँ, भूमिका, राजकमल प्रकाशन, 1982 

  4. वही पृ.-07

To- Md Mazid Mia, 
c/o- Ramashish Chaudhary, 
Vill- Khudiram Pally, 
Po- Bagdogra, 
Dist.- Darjeeling, 
Pin- 734014 (WB), 
Mobile-9851722459

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