आदिवासी समाज में शिक्षा

01-01-2023

आदिवासी समाज में शिक्षा

डॉ. मो. माजिद मियाँ (अंक: 220, जनवरी प्रथम, 2023 में प्रकाशित)

सारांश: 

‘जनजाति’ भारत के आदिवासियों के लिए इस्तेमाल होने वाला एक संवैधानिक शब्द है। भारत सरकार के अनुसार किसी समूह को अनुसूचित जनजाति के परिप्रेक्ष्य में ‘आदिवासी’ सर्वाधिक उपयुक्त शब्द है जैसे अनुसूचित जाति की जगह ‘दलित’ शब्द गहरे अर्थ में है उसी प्रकार अनुसूचित जनजाति में ‘आदिवासी’ जो कि नौकरियों में सन्दर्भ में प्रासंगिक हो सकता है। आदिवासी शब्द उस चेतना का भी प्रतीक है जिसकी मदद से उन्होंने अपने दुःख-दर्दों को समझा है और जो उन्हें मुक्ति के राह में आगे बढ़ा रही है। ‘आदिवासी’ पद में एक आंदोलन-धर्मिता है, जो जनजाति में नहीं है आदिवासी साहित्य की लम्बी मौखिकी और लगभग एक सदी पुरानी परम्परा में आये समकालीन आदिवासी लेखन एवं विमर्श की शुरूआत हमें 1991 में बाद माननी चाहिए। आदिवासी साहित्य अस्मिता की खोज एवं शोषण के विविध रूपों से उद्घटित तथा आदिवासी अस्मिता व अस्तित्व के संकटों और उसके ख़िलाफ़ हो रहे प्रतिरोध का साहित्य है। आदिवासी लेखन और उसमें स्त्री विमर्श में अभी तक ‘स्वानुभूति बनाम सहानुभूति’ जैसी बहसें केन्द्र से दूर परिधि के इर्द-गिर्द घूम रही हैं। आज हमारे देश में 198 भाषाएँ हैं जिनमें से अधिकांश आदिवासी भाषाएँ ख़त्म होने के कगार पर हैं। इनमें से 7 हमारे झारखण्ड प्रदेश की आदिवासी भाषाएँ हैं: हो, खड़िया, कुडुख, भंडारी, मलतो, बिरहरी और असुरी। यह अत्यन्त दुर्भाग्यपूर्ण है कि भारतीय संविधान जहाँ आदिवासी अस्मिता, स्वशासन, रीति-रिवाज़, भाषा-संस्कृति की रक्षा के लिए संकल्पबद्ध है वहीं हमारे देश नहीं। इन्हीं सभी कारणों से आदिवासी राष्ट्रीयताएँ सबसे गहरे संकट से गुज़र रही हैं। 

बीज शब्द: 

परम्परा, अस्तित्व, दशा, रीति-रिवाज़, भाषा-संस्कृति, सरकारी संरक्षण आदि। 

प्रस्तावना: 

हिन्दी साहित्य में आदिवासी विषय पर लिखते हुए ‘पात्रों’ को साफ़-साफ़ तीन कोटियों में रखा गया है। आदिवासी ‘बेचारे’ हैं—शोषित और उत्पीड़ित-लेखकीय सहानुभूति के पात्र; नैरेटर मसीहा है जो अपने आदर्शवाद, सिद्धांतवाद और ‘अव्यावहारिकता’ के चलते सभ्य समाज की आँख का काँटा है। लेखक की सारी शुभेच्छाएँ और संवेदनाएँ इसके साथ हैं क्योंकि वह लेखक के अहं का ही विस्तार है। विशेषकर, आदिवासी स्त्रियों के संदर्भ में तो इस तरह का लेखन और भी क्रूर दिखाई पड़ता है जब हमें साहित्य में आदिवासी स्त्रियों को सिर्फ़ स्वच्छंद यौन की वस्तु के रूप में और उनकी लुटी-पिटी, नुची और क्षत-विक्षत स्थितियाँ देखने को मिलती हैं। झारखंड आंदोलन की बौद्धिक अगुवाई करने वाले डॉ. वी.पी. केशरी आहत होकर कहते हैं, “अनेक बाहरी लेखकों ने तो अहित करने वालों को उद्धारक और हमारे नायकों को अपराधी चित्रित किया है। उनका लेखन हमारी औरतों के बलात्कार के बिना उत्कृष्ट और कलात्मक नहीं होता।”

झारखंड आंदोलन की अग्रणी विदूषी आदिवासी लेखिका डॉ. रोज केरकेट्टा इस संदर्भ में लिखती हैं, “आदिवासी शिष्ट साहित्य में स्त्री श्रम, सहिष्णुता, ममत्व से पूर्ण तो मिलती है, लेकिन अपने लिए और परिवार के लिए निर्णय लेती हुई कम मिलती है। वह जीने के लिए कठिन परिश्रम करती है, देस-परदेस जाती है, सेवा करती है स्वयं को नहीं, दूसरों को प्रसन्न रखने के लिए।” ‘दूसरों को प्रसन्न रखने’ की सामंती स्त्री प्रवृत्ति आदिवासी समाज में नहीं है। यह उस बाहरी भाषा और संस्कृतिकरण के ज़रिए आई है जिसे विकास और मुख्यधारा के नाम पर आदिवासियों पर लाद दिया गया। क्योंकि यही आदिवासी स्त्री, आदिवासी लोककथाओं में दूसरों को प्रसन्न रखने की बजाय बराबरी की बात करती हुई दिखती है। डॉ. केरकेट्टा हमें बताती हैं, “जब आदिवासी समाज में गोत्र का बँटवारा हुआ, तब परिवार की अवधारणा बन चुकी थी और परिवार में स्त्री पत्नी होने के साथ-साथ सहयोगिनी भी होती थी। वह अपने विचार पारिवारिक मामलों में व्यक्त कर सकती थी। जैसे एक कथा में पति-पत्नी मिलकर तीन रोटियाँ बनाते है। पति दो खाना चाहता है, जिसके लिए तर्क देता है कि वह चावल लाया है। यह कठिन काम था, जिसे उसने किया। स्त्री भी कहती है कि वह दो राटी खाने की हक़दार है, क्योंकि उसने लकड़ी ढूँढ़ी, चावल पीसा और रोटी पकाई। काम उसने अधिक किए। यानी काम के आधार पर उसे बराबरी का हक़ मिलना चाहिए।” आदिवासी लोककथाओं में स्त्री विमर्श का उल्लेख करते हुए डॉ. सुश्री शरद सिंह भी इसी मंतव्य की पुष्टि करती हैं। वे कहती हैं, “आदिवासी लोककथाओं में स्त्री की सहज प्रकृति को वर्णित किया गया है।” 

आदिवासी स्त्रियाँ साहित्य और फ़िल्मों में एकसिरे से ग़ायब हैं। क्योंकि आदिवासी स्त्रियाँ हर वक़्त, हर किसी के साथ सहवास के लिए तत्पर रहती हैं क्योंकि उनका समाज यौन वर्जना से मुक्त समाज है। जबकि गोंड आदिवासी का घोटुल, मंडाओं का गितिओड़ा या उरावं आदिवासियों की धुमकुड़िया आदिवासी जन शिक्षण के केन्द्र रहे हैं और इन वाचिक आदिवासी विश्वविद्यालयों में सिर्फ़ यौन क्रियाएँ नहीं होतीं। आज देश का पूरा आदिवासी समाज ग्लोबल लूट के पहले निशाने पर है। देश के आदिवासी इलाक़े अंतहीन उत्पीड़न और जुझारू संघर्ष के प्रमुख केन्द्र बन गए हैं और भारतीय राष्ट्र जिन्हें देश की आंतरिक सुरक्षा के लिए ‘ख़तरा’ घोषित कर चुका है। औपनिवेशिक समय में शुरू हुई दोहन-लूट एवं शोषण की इस अंतहीन प्रक्रिया को दर्ज करने की बजाय साहित्य ने सिर्फ़ आदिवासी स्त्रियों की बलात्कारी स्थिति को ही फ़ोकस किया है। सही है कि आदिवासी स्त्रियाँ बलात्कार झेलती हैं पर यही एकमात्र आदिवासी स्त्री सच नहीं है। वे लड़ रही हैं, अपने समाज के भीतर मौजूद अंधविश्वासों, कुरीतियों से, बाहरी शोषण उत्पीड़न से। 

1999 में पोलटेकनिक करने वाली आदिवासी महिला दीपाली अमृत खलखों आज ट्रेन चला रही है। पुरुषों के लिए सुरक्षित माने जाने वाली भारतीय सेना में पहली बार शामिल होने वाली देश की पहली महिला जवान एक आदिवासी स्त्री है। दो बच्चों की माँ शान्ति तिग्गका ने 13 लाख रक्षा बलों में पहली महिला जवान बनने का अनोखा गौरव हासिल किया है। आदिवासी स्त्रियाँ आदिवासी लोकगीतों और लोककथाओं में इतिहास को चुनौती देती समूची ओजस्विता के साथ मौजूद हैं। विजय तेंदुलकर को नाटक ‘कमला’ और 1985 में उस पर बनी फ़िल्म में आदिवासी कमला बेची जाती है, तो ‘मृगया’ (मृणाल सेन, 1976), ‘आक्रोश’ (गोविन्द निहलानी, 1980) और ‘लाल सलाम’ (गगनबिहारी बारोट, 2002) की कथा आदिवासी स्त्री के बलात्कार पर केंद्रित है। फ़िल्मों में ‘इज़्ज़त’ की जिस अवधारणा के साथ आदिवासी समाज को वर्णित किया गया है, वह आदिवासी समाज की अवधारणा बिल्कुल नहीं है। आदिवासी समाज में स्त्रियाँ सिर्फ़ इज़्ज़त की वस्तु नहीं है बल्कि वे पुरुषों की तरह ही संपूर्ण इंसान है। 

आदिवासी साहित्य में भी महिलाओं की उपस्थिति नहीं के बराबर है और है भी तो उसी तरह से जैसा कि ग़ैर-आदिवासी समाज द्वारा रचित साहित्य में। इसे समझने के लिए संताली साहित्य को देखा जा सकता है। जनंसख्या की दृष्टि से संताल झारखंड का सबसे बड़ा आदिवासी समुदाय है। यह स्वाभाविक है कि संताली रचनाकारों की संख्या भी अन्य आदिवासी रचनाकारों की तुलना में अधिक होगी। आज संताली लोक गर्व से कहते हैं कि उनके साहित्यकारों की सूची दस हज़ार से लंबी है। पर यदि उनसे यह पूछा जाए कि महिला साहित्यकारों की संख्या बताइए, तो वे पाँच का भी नाम नहीं गिना सकते। लेकिन जब लिखित साहित्य की बात आती है तो आदिवासी महिलाएँ दिखती है नहीं। वे एकदम से ग़ायब हो जाती हैं। इसका एक अर्थ तो यह है कि वे शिक्षा से वंचित हैं इसलिए लिख नहीं सकतीं। दूसरा यह है कि वे लिख-पढ़ रही हैं, पर छपने-छपाने की जो प्रक्रिया है, वह पुरुषों के अनुकूल है और उनके क़ब्ज़े में है। यह ट्रेंड भी आदिवासी समाज के विपरीत है। राजनीति में भी आदिवासी महिलाओं की स्थिति भेदभाव वाली है। 

आदिवासी समाज में स्त्री अपनी आज़ादी में किसी की रोक-टोक स्वीकार नहीं करती है। यदि उसकी मान्यताएँ उसके आड़े आती हैं तो वह उसका विरोध कर सकती है। रांगेय राघव के ‘कब तक पुकारूँ’ उपन्यास में उनका विद्रोह कम है, इससे ज़्यादा वे शोषण चक्र में बुरी तरह फँसी हैं, उनका आत्म-सम्मान उनसे छिन जाता है। अपने पति को पुलिस से छुड़वाने हेतु वे अपना सौदा करती हैं। उनके स्वर में कहीं भी आक्रोश नहीं है, सिर्फ़ व्यवस्था के आगे घुटने टेकने को विवश हैं, लाचार हैं। उनका विश्वास है, “जमींदार हुकुम चलाता है—वह हमारा बाप है, हम उनकी रिआया हैं।” इस प्रकार व्यवस्था के शोषण तंत्र में आदिवासी समाज की स्त्री पिसती रही है। मुख्यधारा का समाज उनकी लाचारी, बेबसी का नाजायाज़ फ़ायदा उठाता है। उपन्यास में प्यारी अपनी जातीय अस्मिता से कहीं ज़्यादा औरत होने पर खीझ खाती है, “मुझे उठा ले।” 

आदिवासी स्त्री की भी कुछ इच्छाएँ, आकांक्षाएँ होती हैं, “मेरे भीतर कितनी उमंग भरी, मेरी भी समाज में प्रतिष्ठा हो। मैं बड़ी बन सकूँ।” ऐतिहासिक उपन्यासों में ‘कचनार’ में आदिवासी स्त्री के अस्तित्व का चित्रण मिलता है। जिसमें स्त्री का आत्म-सम्मान सर्वोपरि है। ‘शैलूष’ नामक उपन्यास में सावित्री नामक पात्र चाहती है कि उनकी भी अपनी ख़ुद की ज़मीन हो जिससे वो गरिमापरक जीवन जी सकें। उपन्यास में आदिवासी स्त्री भी अपने हक़ और अधिकारों को पाने की लालसा रखती है। वह अपने तथा बाहरी समाज के हस्तक्षेप से निपटने हेतु अपने को ताक़तवर रखती है। उपन्यासों में आज की वह आदिवासी स्त्री है जो मुख्यधारा के समाज के सामने अपनी झिझक, संकोच और चुप्पी को तोड़ती हुई दिखलाई पड़ती है। इन उपन्यासों में आदिवासी स्त्री अस्तित्व-संघर्ष के स्वर गति पकड़ते हुए दिखलाई पड़ते हैं। हिन्दी में स्त्री-विमर्श के चौखटों एवं इरादों को तोड़ता हुआ इस विमर्श के एक नए अध्याय की शुरूआत करता है। इस उपन्यास में आदिवासी समाज में अंगड़ाई ले रही स्त्री में नई चेतना की अभिव्यक्ति है। तेजिंदर का ‘काला पादरी’ आदिवासी अस्तित्व और अस्मिता को लेखक लिखा गया उल्लेखनीय उपन्यास है। 

रणेंद्र के शब्दों में, “हमारा मानना है कि आदिवासी ने ईसाई, मुसलमान या बौद्ध धार्मिक समुदाय में धर्मांतरित होकर आंशिक रूप से अपने आदिवासीपन को खोया है।” इसी आदिवासीपन को बरक़रार रखने की इच्छा जेम्स खाखा में दिखाई देती है। संजीव का ‘धार’ नामक उपन्यास आदिवासी अस्मिता की दृष्टि से महत्त्वपूर्ण रचना है। उपन्यास के केंद्र में आदिवासियों की संगठन शक्ति तथा क्रांतिकारी पहलू को रखा है। उपन्यास में आदिवासी अपने अस्तित्व की रक्षा के लिए आंदोलित है। संजीव के ‘धार’ उपन्यास की नायिका मैना भी अपने अस्तित्व हेतु संघर्ष करती हुई दिखाई देती है। कोयला माफ़िया, ठेकेदार और पुलिस-प्रशासन की मिलीभगत से आदिवासियों के ऊपर हो रहे उपन्यास एवं अत्याचार से लड़ने के लिए मैना अपने समाज के बीच संघर्षशील चेतना के रूप में न केवल उभरती है वरन्‌ शोषण के ख़िलाफ़ जनजागरण भी करती है। संथाल विद्रोह आदिवासी समुदाय की अस्मिता को बचाने की बाबत उठ खड़ा हुआ था। 

निष्कर्ष: 

मैत्रयी पुष्पा बीसवीं शताब्दी के अंतिम दशक की महत्त्वपूर्ण कथाकार हैं। ‘अल्मा कबूतरी’ उनका श्रेष्ठ उपन्यास है जो कबूतरा जनजाति को आधार बनाकर लिखा गया है। कबूतरा जनजाति के लोग अपनी जड़ों, संस्कृति को कभी नहीं भूल पाते हैं क्योंकि इसी से उनकी अस्मिता जीवित रहती है। इस शोध पत्र में हिन्दी साहित्य में आदिवासी स्त्रियों के तनावों, दुखों, यातनाओं और इन सबके बावजूद उन्हें ज़िन्दा रखने की जद्दोजेहद भीड़ में एक अलग पहचान बनाने की इच्छा एवं उनके संघर्ष करने की शक्ति को उजागर किया है। आदिवासी स्त्रियों के शोषण एवं उनके जीवन पर आधारित कहानी और उपन्यास उनके सबसे कमज़ोर पहलू रहे हैं। लेकिन आज पुरानी दास्तान से उभरकर उनकी वर्तमान दशा और भविष्य के बारे में उनकी सांच और संवेदना काफ़ी हद तक अन्य जन तक सम्प्रेषित होगी। जिसमें बुद्धिजीवियों के अध्ययन और शोध आदिवासी साहित्य के विकास में कुछ नयापन लायेगी। और हमें उम्मीद है कि इस शोध पत्र की दृष्टि से आदिवासी स्त्री का विकास सम्भव हो सकेगा। 

सन्दर्भ ग्रन्थ: 

  1. आदिवासी साहित्य विमर्श—गंगा सहाय मीणा 

  2. ग्लोबल गाँव के देवता—रणेन्द्र

  3. आदिवासी संस्कृति और साहित्य: स्त्री का दर्जा—केरकेट्टा, डॉ. रोज

  4. झारखण्ड के आदिवासियों के बीच—तलवार, डॉ. वीर भारत

  5. कब तक पुकारूँ—राँगेय राघव 

  6. कचनार—वृंदालाल वर्मा

  7. शैलूष—शिवप्रसाद सिंह 

  8. जहाँ बाँस फूलते हैं—प्रकाश मिश्र 

  9. जंगल जहाँ शुरू होता है—संजीव 

  10. धार—संजीव

  11. अल्मा कबूतरी—मैत्रेयी पुष्पा

डॉ. मो. माजिद मियाँ, प्राध्यापक (हिंदी विभाग), 
श्री अग्रसेन महाविद्यालय, दालखोला, उत्तर दिनाजपुर
khan.mazid1340@gmail.com, Mobile-9851722459

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