नाच

भीष्म शर्मा (अंक: 250, अप्रैल प्रथम, 2024 में प्रकाशित)

 

नाच नचाए ये कैसा
सब मुँह पैसा ही पैसा। 
 
भरी दुपहरी गरमी के दिन, 
ठेला लोग चलाते हैं। 
क़िस्म क़िस्म के उद्योगों में, 
अपनी देह जलाते हैं॥
 
कुछ जीते जी हासिल करते
कुछ इस पे मर जाते हैं। 
भटकी आत्मा के जैसे वो, 
कम ही शान्ति पाते हैं॥
 
अचरज-करतब क्यों ऐसा, 
कहीं नहीं देखा जैसा। 
नाच नचाए ये कैसा, 
सब मुँह पैसा ही पैसा॥
 
डाकू-चोर बनाए कुछ को, 
शातिर कुछ को ग़ज़ब का। 
कुछ से हमला युद्घ कराए, 
आम-जैसा या अजब का॥
 
मानवता की बलि चढ़ा कर, 
पूजा इसकी करते हैं। 
परमेश्वर की पदवी देकर, 
रह-रह इससे डरते हैं॥
 
क्या है नायक क्या खलनायक, 
कोई न इसके जैसा। 
नाच नचाए ये कैसा, 
सब मुँह पैसा ही पैसा॥
 
पैसे से पैसा आता बिन, 
पैसे ये आए कैसे। 
भेड़ अकेले न रह ढूँढ़े, 
झुंडों को अपने जैसे॥
 
कुछ छोटे रह जाते हैं कुछ, 
सागर जैसे बन जाते। 
बुद्धि जितनी ताक़त जितनी, 
उतने ही बढ़-चढ़ जाते॥
 
कुछ अपने रोगों से सबको, 
रोग-युक्त कर देते हैं। 
संग-अपने अपने झुंडों को, 
श्वास-मुक्त कर देते हैं॥
 
कोई आम खिलाड़ी है न, 
धावक ही ऐसा-वैसा। 
नाच नचाए ये कैसा, 
सब मुँह पैसा ही पैसा॥
 
अपनी प्राप्ति करवाने को, 
धरम के काम कराता है। 
टेढ़ी चाल से चलकर हरदम, 
परमेश्वर तक जाता है॥
 
जीवन के शतरंज में इसको, 
जो कोई भी जान गया। 
तय है जीत उसी की हरदम, 
‘भीषम’ इसको मान गया॥
 
न अपना न पर कोई भी, 
इसका 'जैसे को तैसा'। 
नाच नचाए ये कैसा, 
सब मुँह पैसा ही पैसा॥
 
पाते कर-भोगी इंसाफ़, 
करदाता रह जाते हैं। 
भेड़ की न सुन ऊन पे ही नित, 
दावे ठोके जाते हैं॥
 
नाचो-गाओ मौज मनाओ, 
‘गूँगे का गुड़’ ये कैसा। 
नाच नचाए ये कैसा, 
सब मुँह पैसा ही पैसा॥

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