मुश्किलें तब भी थीं . . . 

01-09-2025

मुश्किलें तब भी थीं . . . 

नेहा शुक्ल बर्रेत्तो (अंक: 283, सितम्बर प्रथम, 2025 में प्रकाशित)

 

मुश्किलें तब भी थी, मुश्किलें अब भी हैं
फ़र्क़ बस इतना है, अब उनसे लड़ना सीख लिया है
गुज़रते वक़्त का हाथ थामे आगे बढ़ना सीख लिया है
जी करता है तो कभी पीछे मुड़कर देख लेती हूँ, 
जिन बातों ने हँसाया था कभी, 
अब उन्हें याद करके रोना आ जाता है 
और जिस छोटी सी बात पर फूट कर रोई थी कभी 
आज उसे याद कर के हँस देती हूँ
एक दिन मन हल्का करने टहलने निकल पड़ी
खुली हवा में साँस लेने की नौबत आ पड़ी
समंदर की लहरों पर पहली बार ग़ौर किया
एक छोटे से एहसास ने दिल भर दिया
बिखर जाती हैं टकराकर चट्टानों से
पर समेट कर ख़ुद को 
किसी तरह किनारे पहुँच ही जाती हैं—
गुज़रकर कई तूफ़ानों से
इन लहरों में खो कर भी ख़ुद उभरना सीख लिया है
गुज़रते वक़्त का हाथ थामे आगे बढ़ना सीख लिया है

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