मुसाफ़िर प्रेम
स्नेहासुनो, कुछ कहना था तुमसे . . .
हाँ, कुछ तुम्हारी तारीफ़ में,
और कुछ तुम्हारी शिक़ायत में भी . . .
तुम आते हो मेरे शहर महीनों बाद . . .
जैसे किसी त्योहार की तरह,
ढेर सारी ख़ुशियाँ ले कर . . .
और फिर उसी त्योहार की तरह,
चले भी जाते हो . . .
ढेर सारी आशाएँ और थोड़ी उदासी दे कर . . . !
क्या ऐसा नहीं हो सकता;
कि तुम कुछ देर और रुक जाओ,
या फिर चले आओ कभी,
जैसे किसी बिन मौसम बारिश की तरह . . . !
या फिर चाहो तो मुझे ले चलो,
तुम अपने साथ,
और रख लो मुझे अपने पास . . .
1 टिप्पणियाँ
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यह उम्दा कविता है स्नेहा जी ।