मेघ
वेदिका संजय गुरव
तुम गरजते हो तुम बरसते हो
समझ आता है तुम्हें चोट लगी है
अपने हृदय की गर्जना सुनते हो
अपनी पीड़ा में बरस उठते हो
सूखे नैनों के लिए अपने अश्रु बहाते हो
जब ख़ुद को समेट नहीं पाते हो
तो प्यासी ज़मीन की प्यास मिटते
अपने दर्द को किसी की ख़ुशी में बदलते हो
अपने अश्रु को बहा कर भी भला करते हो
तुम्हारे निष्काम प्रेम की व्यथा निराली है . . .