मज़हबी

05-03-2016

सजदे में सर, सजदे में नहीं ज़िन्दगी तो क्या 
कुछ इस तरह होती है मेरी, बन्दगी तो क्या 
 
शब्दों में कान, कानों में शब्द हुआ नहीं मेरा 
क़ाबिले-पेश न रही, दिल की कली तो क्या 
 
शब्द = भजन; क़ाबिले-पेश = अर्पण-योग्य

 

होना था मश्ग़ूल-ए-हक़, मगर हो क्या गया 
सू-ए-ज़न ही फिर रही, मेरी बेख़ुदी तो क्या 
 
मश्ग़ूल-ए-हक़ = सत्य के लिए रत; सू-ए-ज़न = अविश्वास, संशय, पक्षपात

 

मानिन्द-ए-बर्क-ए-फ़लक़, आया गया यहाँ 
इक पल न रही आपसे ये आशिकी तो क्या 
 
मानिन्द-ए-बर्क-ए-फ़लक़ = आसमानी बिजली की तरह
 
जाना नहीं माना नहीं, 'अंजुम' को ग़म बड़ा 
यूँ कहता रहूँ मैं हो गया हूँ, मज़हबी तो क्या 

0 टिप्पणियाँ

कृपया टिप्पणी दें