महिला उपन्यासकारों के उपन्यासों में अनुभूति की जटिलता एवं तनाव 

01-05-2022

महिला उपन्यासकारों के उपन्यासों में अनुभूति की जटिलता एवं तनाव 

डॉ. राजकुमारी शर्मा (अंक: 204, मई प्रथम, 2022 में प्रकाशित)

व्यक्ति अपने जीवन में सामाजिक, आर्थिक एवं धार्मिक व्यवस्था से प्राय: असंतुष्ट-सा प्रतीत होता है। उसका जीवन मृत परंपराओं, विषमताओं और विसंगतियों से यदा-कदा भरा हुआ है, जिसके कारण जीवन जीना दुर्भर हो गया है। सरल, सहज और स्वाभाविक जीवन कोसों दूर दिखाई देता है। सामाजिक परिवेश अलगावों और विसंगतियों से ओत-प्रोत है। जीवन में इन समस्याओं को जब तक दूर नहीं किया जा सकता, तब तक बेहतर जीवन की कल्पना नहीं की जा सकती। व्यक्ति अपने में हताशा, कड़वाहट, टूटन, वेदना, संवेदना और दोहरे जीवन जीते हुए व्यक्तियों को देखकर प्राय: मन उनकी और स्वतः ही अग्रसर होता दिखाई देता है। ऐसे में व्यक्ति का व्यक्तित्व ही क्षुब्ध हो गया है। समय, वातावरण और समाज में जब-जब परिवर्तन आया है तब-तब व्यक्ति के जीवन में भी हर क्षेत्र में उसका प्रभाव पड़ा है, बदलते जीवन-मूल्य एवं सम्बन्ध पहले ही अनेक प्रकार के परिवर्तन एवं संकट उत्पन्न करते हैं। इन संकटों से उत्पन्न समस्याएँ जीवन को पूरी तरह बदल देती है। व्यक्ति के विचारों में नयापन और संघर्ष में अनेक प्रकार की विशेषताएँ मानसिक एवं शारीरिक रूप से बदलाव लाती है। यही परिवर्तन मन में अनेक प्रकार की जटिलता एवं उससे उत्पन्न होने वाले तनाव को जन्म देता है। 

उपन्यासों में व्यक्ति के मन की स्थिति और जीवन जीने के प्रति दृष्टिकोण में पूर्ण रूप से परिवर्तन आ गया है, जिसके कारण वह अपने सम्बन्धों के प्रति भाव को प्रकट करने में असक्षम होता जा रहा है। असंतोष, कड़वाहट, अर्थहीनता और अनेक प्रकार की कुंठाओं से जीवन लिप्त दिखाई देता है, जिसके कारण उसके विश्वास और मूल्य के रूप में-व्यक्ति की मानसिकता को जड़ बना देते हैं और उसके व्यक्तित्व को अन्य भागों में बाँट दिया है। व्यक्ति अपने परिवेश तथा सम्बन्धों के प्रति खिन्न होता जा रहा है जिसके कारण व्यक्ति अपनी इच्छाओं और संवेदनाओं को भूलता जा रहा है। इस संदर्भ में रूसो का मानना है, “मनुष्य जन्म तो एक स्वतंत्र इकाई के रूप में लेता है, परन्तु जीवन भर अनचाहे अंकुशों की ज़ंजीरों में जकड़ा रहता है। ये अनचाही ज़ंजीरें उसके जीवन के सहज विकास में अवरोध सिद्ध होती हैं। इन ज़ंजीरों से मुक्त होने के लिए वे जीवन भर सिर पटकता है, लेकिन पराजित रहने के कारण असंतोष और आक्रोश में जीता है।”1 व्यक्ति जब अपनी इच्छाओं और माँगों को पूरा करने में असमर्थ होता है, तो उसके मन में वातावरण और सम्बन्धों के प्रति असमर्थता एवं तनाव का भाव मन में घर कर लेता है जिसके कारण अनेक प्रकार की भ्रांति जन्म लेती है। जीवन जीना कठिन एवं दुर्भर लगने लगता है। लेखिका उषा प्रियंवदा ने अनुभूति की जटिलता एवं तनाव को अपने उपन्यास ‘शेषयात्रा’ में विविध रूपों में दिखाने का प्रयास किया है। उपन्यास में नायिका अनु की वेदना को लेखिका ने दिखाने का प्रयास किया है। बचपन में माता-पिता की मृत्यु के बाद अपनी नानी के यहाँ जीवन-यापन कर रही है। कॉलेज में उसकी मुलाक़ात डॉ. प्रणव से होती है और जल्द ही शादी के पवित्र-बंधन में बँध जाते हैं। प्रणव अनु को अमेरिका ले जाना चाहता है पर अनु अपना जीवन भारतीय परिवेश में रहकर ही बिताना चाहती है। प्रणव के समझाने पर अनु विदेश जाने के लिए तैयार तो हो जाती है पर विदेशी वातावरण में अनु अपने आप को पूरी तरह ढाल नहीं पाती जिसके कारण कई बार प्रणव उससे दूरी बना लेता है। अनु अपने मन को शांत करने के लिए कई बार आस-पड़ोस का सहारा लेती है तो कई बार घर की चारदीवारी में ही रहकर अकेलेपन की शिकार होती हुई दिखाई देती है। पति प्रणव को लेकर अनु रात-दिन चिंतित रहती है। वह अपने और अनु के प्रति एकत्रित नहीं है। प्रणव अपने पेशे को छोड़कर फ़िल्मों में अपनी क़िस्मत आज़माना चाहता है। एक पार्टी के दौरान घर पर सभी मित्रगण आते हैं। उसमें पात्र ज्योत्सना अनु को प्रणव के सम्बन्ध के बारे में बताती है और कहती है कि उसका सम्बन्ध किसी परस्त्री से है, “हम लोग तो पुराने विचारों के है। डॉक्टर पटेल ने जाकर प्रणव से साफ़-साफ़ पूछा तो उसने कहा कि वह उसे चाहता है। उससे शादी करने की सोच रहा है।”2 अनु प्रणव के बारे में सुनकर अचंभित और हताश हो जाती है। प्रणव का ऐसा रूप जो उसने कभी सोचा भी नहीं था देखने में आता है। प्रणब का यह रूप रंग देख उसे गहरा आघात पहुँचाता है जिसके कारण वह पागल-सी हो जाती है। मित्र और आसपास के लोग उसकी सहायता कर इलाज करवाते हैं। अनु मन ही मन टूटकर बिखर जाती है। इतने तनाव में रहकर व्यक्ति कितना असहाय हो जाता है। जीवन जीने की इच्छा रिसते हुए दिखाई देती है। 
 
उपन्यास ’ठीकरे की मंगनी’ में लेखिका नासिरा शर्मा ने नायिका महरुख की बिखरी और तार-तार होती ज़िन्दगी का मार्मिक चित्रण किया है। रफत से मंगनी होने के बाद में महरुख अपने जीवन पर पूर्ण रूप से उसी का अधिकार मानने लगती है। भारतीय संस्कृति में विवाह एक पवित्र बँधन माना जाता है। जिसे परिवार और समाज के बनाए गए रीति-रिवाज़ों और परंपराओं के अनुसार से निभाया जाता है। नायक अपनी पढ़ाई पूरी करने के लिए अमेरिका चला जाता है वहाँ जाकर वह पूर्ण रूप से विदेशी वातावरण में अपने आप को ढाल लेता है। घर-परिवार और यहाँ तक कि महरुख को भी भूल जाता है। अमरीकन लड़की से शादी कर जीवन के सुनहरे पलों को जीने लगता है। इस घटना का जब नायिका को पता चलता है तो उसकी उम्मीद, विश्वास और जीवन के प्रति रोष उत्पन्न होने लगता है। महरुख मन ही मन सोचती है, “रफत भाई के व्यक्तित्व का फ़ानूस टूटना था सो टूट गया उससे फूटती फैलती रोशनी के दायरे से वह हमेशा के लिए आज़ाद हो गई थी, मगर जिस अँधेरे से वह जा लगी थी, उसने ज़िन्दगी का मक़सद ही ख़त्म कर दिया था।”3 नायिका महरूख अपनी मानसिक वेदना से त्रस्त जीवन का बोझ झेलना बहुत ही कष्टदायक होता जा रहा था। दिलो-दिमाग़ पड़े धोखे को भूलना बहुत मुश्किल है। नायिका महरुख अपने आत्मसम्मान को बनाए रखने के लिए निरंतर जीवन में प्रयास कर रही है पर उससे बाहर निकलना इतना आसान नहीं था। वह अपने मन को स्थिर करने के लिए अपनी पढ़ाई को अपना रास्ता बनाती है। गाँव में लोगों को शिक्षा के माध्यम से जागरूक करती है और कहती है, “अब कोई ऐसा रास्ता जीने का नहीं बचा था जिस पर चलकर वह ज़िन्दगी को एक नया अर्थ दे सके। . . . फिर भी दूसरों के लिए अपने को जिलाएगी।”4 व्यक्ति कभी-कभार ऐसे अविश्वासों और छलों से ऊपर अपने आप को उठा नहीं पाता है। महरुख अपने मन की अनुभूतियों को किसी के सामने प्रकट नहीं कर पाती जिससे मन में पड़ा गहरा असंतोष उसे इन समस्याओं से बाहर निकलने नहीं देता और तनावपूर्ण ज़िन्दगी जीने को बाध्य करता है। 

उपन्यास ’ऋणानुबँध’ में मालती जोशी ने सम्बन्धों में उत्पन्न विसंगति और विषमता पर प्रकाश डाला है। निर्मल का विवाह सुसंस्कृत एवं संपन्न परिवार में प्रताप के साथ होता है। निर्मल सीधी-सादी और मध्यमवर्ग परिवार से है। पति प्रताप के प्रति उसका प्रेम और सम्मान देखते ही बनता है। परिवार के सभी सदस्य निर्मल को बहुत पसंद करते थे। निर्मल भी परिवार के प्रत्येक सदस्य की इच्छा-अनिच्छा का ध्यान रखकर ही कार्य करती थी। प्रताप निर्मल को पसंद के साथ-साथ उसका ध्यान रखता था। निर्मल को जब प्रताप के नाजायज़ सम्बन्ध के बारे में पता लगता है तो वह न तो टूटती और न ही सम्बन्ध-विच्छेद करती है बल्कि पति का निरंतर साथ देती रही। पति प्रताप का सम्बन्ध और किसी से नहीं बल्कि अपनी विधवा भाभी मंदा से ही था। जब घर वालों को इस सम्बन्ध की भनक लगी तो पूरा परिवार निर्मल के साथ खड़ा हो जाता है। मदा अपनी हरकतों से परिवार, निर्मल भाभी और बच्चों को उल्टा सीधा बोलती रहती है। एक दिन मंदा चाची ने पूरे घर में हाहाकार मचा रखा था तभी पिताजी प्रताप ने आक्रोश में मंदा को सुना डाला, “पाप-पुण्य जिसने जो भी किया हो लेकिन उसका आजीवन प्रायश्चित्त निर्मल कर रही है, मत भूलना।”5 मंदा प्रताप की बातों को सुन तिलमिला उठी और अपने प्यार, मान-सम्मान को तिस्स्कृत होते न देख सकी और आक्रोश में बोल उठी—“प्रायश्चित? किसने किया है प्रायश्चित्त? आपकी निर्मल ने? वह तो राजरानी बनी करवाचौथ और संतान सप्तमी पूजती रही ठाट से। पिसी तो मैं हूँ इस घर में एक ग़ुलाम की तरह अपने अहसानों का बोझ मुझ पर लादकर ज़िन्दगी भर के लिए ख़रीद लिया गया है मुझे। मेरा गाँव घर-परिवार सब कुछ छीन लिया और उसे नाम दिया प्रायश्चित का वाह।”6 

उपन्यास ‘हवन’ में लेखिका सुषमा बेदी ने स्त्री की अतृप्त इच्छाओं का चित्रण किया है जो समय और परिवार के अभाव में पूरा नहीं होता। नायिका अपने परिवार में सभी भौतिक सुख-सुविधाओं और आर्थिक रूप से संपन्न थी। गुड्डो अपनी शारीरिक एवं मानसिक संतुष्टि के लिए डॉ. जुनेजा के प्रति आकृष्ट हो जाती है। “गुड्डो भी उन औरतों में से थी जिनके लिए पुरुष का व्यक्तित्व उसकी पदवी से बनता था।”7 जुनेजा के प्रति गुड्डो का आकर्षण केवल शारीरिक रूप से नहीं था बल्कि मानसिक आधार पर भी था। जुनेजा भी गुड्डो के प्रति आकृष्ट हो उसे फ़ोन कर देता तो, “गुड्डो खिल गयी। . . .  अभी भी वह आकर्षित कर सकती है और वह भी जुनेजा जैसे आदमी जिसके पास अहोदा था, पैसा था, जिसको हज़ार तरह के काम निकाल सकते थे, ख़ासकर डॉक्टरी पढ़ने वाली उसकी लड़की को इस दिशा में बढ़ाने में वह मददगार हो सकता है।”8 सम्बन्धों में जब स्वार्थ आ जाता है तो वह अपनी दिशा ही बदल लेते हैं जिसके कारण मन में अहित की भावना और छल कपट व्याप्त हो जाता है। ओहदा, भौतिक सुख-सुविधा को पाने के लिए नायिका अपने को समर्पित करने में भी हिचकिचाहट नहीं है। 45 वर्षीय गुड्डो पति से शारीरिक सुख तो प्राप्त होता है पर जुनेजा के साथ यौन-सम्बन्ध स्थापित कर परम आनंद का अनुभव भी करती है। वह जुनेजा से सम्बन्ध स्थापित कर अपनी संवेदना को व्यक्त करते हुए कहती है, “एक पुरुष की सफल और कोमल गिरफ़्त का एहसास . . . झखाड़ होती ज़िन्दगी में मुलायम कोंपले उठने लगी।”9 गुड्डो मानती है कि जुनेजा शादीशुदा एवं बाल बच्चेदार है। फिर भी अपनी दमित इच्छाओं को पूरा करने के लिए किसी भी नदी, समुद्र को पार करने में वह पल नहीं लगाती। समाज या परिवार उसके बारे में क्या सोचेगा उसे ज़रा भी एहसास नहीं। वह अपनी अतृप्त शारीरिक इच्छा को पूरी करने में कई प्रकार के द्वंद्व एवं संघर्ष के तनाव को झेलती हुई दिखाई देती है। 

उपन्यास ‘अग्नि पर्व’ ऋता शुक्ल ने आर्थिक तंगी में जीवन बिता रहे निम्न वर्ग के परिवार का चित्रण किया है। परिवार की ज़रूरत ही नहीं पूरी होती ज़मींदार आए दिन उनके सिर पर तलवार लेकर खड़ा रहता है। जियावन सिंह ज़मीन का टुकड़ा हथियाना चाहता है। वह अपने खेतों में धोखे से ज़मीन का टुकड़ा मिलवा लेता है। बिरजू कुछ कहता उससे पहले जियावन सिंह ने कह देता है, “तुम्हारा बाप मरने से पहले जियावन सिंह के नाम अंगूठे के निशान लगा गया है। दो-दो गवाहनामे के साथ इनके नाम।”10 बिरजू परिवार और पत्नी की तरफ़ देख कर चुप हो जाता है। मन की वेदना किसी से भी नहीं कह पाता भीतर ही भीतर द्वंद्व में अनेक संघर्षों का सामना करता है, “भूंईमाता हमें माफ़ी दे दो . . . हम असहाय हैं। . . . माँ, होली क्या करें? हरवाह टोले के किसी बनिहार में इतना दम नहीं है कि वह जियावन सिंह के विरोध में खुल्लम खुल्ला हमारा साथ दे।”11 गाँव में सभी जियावन सिंह से डरते और घबराते है। कोई भी व्यक्ति या परिवार उसे अपनी समस्याओं और उससे उत्पन्न पीड़ा को नहीं कह पाता। दिन-रात का शोषण गाँव वालों को और असहाय बनाता जा रहा है। उससे कोई संवाद न होने के कारण मन की अभिव्यक्ति कुंठा में बदल जाती है। वहीं दूसरी और सम्बन्धों में बढ़ते अवसाद से परिवारों में एक अनजाना अभाव उत्पन्न हो गया है। पैसों के बल पर सम्मान प्रेम और सहानुभूति का प्रभाव समाज और परिवार में इस क़द्र बढ़ गया है। रिश्तों में रिक्तता का भाव बढ़ता जा रहा है, “अपने गाँव की भुरभुरी माटी को माथे पर लगाकर ज़िन्दगी के बाक़ी बचे दिन गाँव वालों की ख़िदमत में गु़ज़ार दिए जाएँ . . . यह सोचकर समय से पहले ही पेंशन की अर्ज़ी दे दी थी . . . लेकिन . . .”12 जियावन सिंह का बड़ा भाई सुमेरू सिंह अपनी फ़ौजी ज़िन्दगी से रिटायरमेंट लेकर भाई के यहाँ आना चाहता था पर उसके लिए कोई स्थान नहीं होता तो मन में अनेक विषमाताएँ उत्पन्न होने लगती है। सुमेर अपने आप से कहता है, “उस क्षण उनका पूरा वुजूद एक अनुभव की शक्ल में ढल चुका था। अनोखा प्रत्यय की पुलक से भरा अनुभव . . .। . . . दुख से भीगी यह काली काम मेरी सुख की हल्की सी प्रतीति मात्र से उड़ने योग्य बन सकती है . . .सुमेरू, आज तुमने कितनी बड़ी सिद्धि पाई है . . . सचमुच कितनी बड़ी . . .।”13 

अतः कहा जा सकता है कि महिला उपन्यासकारों ने अपने उपन्यासों में सामाजिक, आर्थिक और सांस्कृतिक स्थिति में व्यक्ति अपने जीवन का निर्वाह करता है। बचपन से लेकर मृत्यु तक व्यक्ति अपनी अभिव्यक्ति के माध्यम से अपने जीवन के हर्ष-विषाद, सफलता-असफलता और सुख-दुख को अनुभूति के माध्यम से समाज एवं परिवार से व्यक्त करता है। अगर वह अपनी अनुभूति को व्यक्त न कर पाए तो वह अनेक विसंगतियों और विषमताओं के कारण तनावपूर्ण जीवन जीता है जो व्यक्ति, समाज और परिवार के लिए काफ़ी कष्टदायक हो सकता है। लेखिकाओं ने अपने उपन्यासों के माध्यम से पात्रों की असंवेदनशीलता, अवसाद और अलगाव को बदलती परिस्थितियों के अनुरूप दिखाने का प्रयास किया है। 

संदर्भ:

  1. नीलम गोयल –स्वांतत्र्योतर हिंदी लेखिकाओं के उपन्यासों में एलियनेशन,पृ.68

  2. उषा प्रियंवदा-शेष यात्रा,पृ.54

  3. नासिरा शर्मा-ठीकरे की मंगनी,पृ.61

  4. वही,पृ104

  5. मालती जोशी-ऋणानुबंध,पृ.66

  6. वही,पृ.67-68

  7. सुषम बेदी-हवन,पृ.33

  8. वहीं,पृ.33

  9. वही,पृ.47

  10. ऋता शुक्ल-अग्निपर्व,पृ.3

  11. वही,पृ.4

  12. वही,पृ.7

  13. वही,पृ.66

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