लोकगीतों में व्यक्त विभिन्न शैलियाँ

01-01-2022

लोकगीतों में व्यक्त विभिन्न शैलियाँ

डॉ. राजकुमारी शर्मा (अंक: 196, जनवरी प्रथम, 2022 में प्रकाशित)

किसी भी आशय या गीत के बोलने की प्रणाली उसे प्रस्तुत करने का तरीका ही शैली कहलाता है। दूसरे शब्दों में अभिव्यक्ति के प्रकार को शैली कहते हैं। अंग्रेजी में शैली के लिए “Style” शब्द का प्रयोग किया जाता है। शैली के संबंध में डॉ.निरुपमा शर्मा का कथन “शैली से व्यक्ति या साहित्यकार मूर्त होता है। प्रत्येक साहित्य सृजेता अपनी अलग शैली से जाना-पहचाना जाता है। सृजनकार जिस व्यक्तिक विशिष्टता के साथ सृजन करता है उसका प्रभाव आ ही जाता है। शास्त्रीय विवेचन में शास्त्रचार्यों ने काव्य में बाह्य और आंतरिक भाव पक्ष और कला पक्ष माने तथा उसके विभिन्न तत्त्वों के परिगणना करते हुए बुद्धि, कल्पना, भाव, शैली आदि नाम गिनाये। वस्तु की अभिव्यक्ति के प्रकार और ढंग को ही ‘शैली’ कहा गया।”1

किसी भी मानव जाति या देश के तीन मूल आधार होते हैं उसकी सभ्यता, संस्कृति और गीत तीन घटकों को आपसी संबंध की आवश्यकता होते हुए भी अलग-अलग महत्त्व एवं प्रभाव की आवश्यकता रही है। जब कला और साहित्य का नाम आता है तो कला के अंतर्गत सबसे पहले हमें गीत ध्यान में आते हैं और ये संस्कृति कहीं न कहीं लोक से जुड़ी होती है। इसीलिए लोकगीत और लोकसंस्कृति परस्पर एक-दूसरे से घनिष्ठ संबंध होता है और समान रूप से दृष्टिगत होती है। किसी भी देश या क्षेत्र का लोकगीत वहाँ की संस्कृति का अविभाज्य अंग होता है। सामाजिक जीवन किसी न किसी रूप में प्रत्यक्ष एवं अप्रत्यक्ष रूप से जुड़ा होता है। शैली द्वारा हम गीत के आधार को जान सकते हैं कि यह गीत साहित्यिक या लोकगीत। लोकगीत है तो वह कौन-सा है।

हिंदी लोकगीतों में गायन शैलियों का अपना विशेष महत्त्व है क्योंकि इनमें गीत के विभिन्न रूप पाये जाते हैं और यह गीत शैली इतनी प्रभावी और शास्त्रीय गीत के इतने नज़दीक है कि गायक अपने अनुभवों, परिश्रम और रियाज़ के बाद प्रस्तुत कर सकता है। यह लोकगीत शैली आज भी है लेकिन बदलते परिवेश, परिस्थितियों के साथ-साथ इनके क्षेत्र और स्वरूप में उनके परिवर्तन आते रहे हैं। इन लोकगायन शैलियों की प्रमुख विशेषता तथा अपनी विशिष्टताओं के साथ ख़ूबियों को प्रकट कर रहा है जो इस प्रकार से हैं: कजरी, लांगुरिया, रसिया, बारहमासी, लावनी, लोरी, होरी, नृत्यगीत, लोकभजन आदि।

कजरी, उत्तरप्रदेश के बनारस और मिर्जापुर क्षेत्र में अत्यधिक प्रचलित है। कजरी वर्षा ऋतु का गीत है कजरी की स्वर, ताल, लय अत्यधिक सुंदर एवं आकर्षित करने वाली शैली है। जो सरल, सहज और मधुर बोलचाल के रूप में व्यक्त होती है। कजरी का वास्तविक रूप लोकगीत ही है। बनारस में प्रत्येक क्षेत्र में सावन के महीने में हर घर में कजरी गीत गुनगुनाया जाता है। एक ओर जहाँ पुरुष वर्ग कजरी दंगल में भी लोकगीत गाते हैं वहीं दूसरी ओर स्त्रियाँ झूला झूलते हुए गुनगुनाती हैं। कजरी लोकगीत गाने का एक अलग ढंग होता है। इसी प्रकार बनारस में कजरी का अपना ही स्वरूप होता है। जिसमें झूला गीत का एक उदाहरण:

“सिया संग झूले बगिया में राल ललना।”

बनारस में कजरी लोकगीत का प्रचलन अधिकतर है लेकिन उसके नज़दीक क्षेत्रों में लोकधुन वाली कजरी भी गायी जाती है। एक अन्य लोकगीत में कजरी गाती स्त्री अपने मन में उत्पन्न भावों को अपने पति प्रियतम से कहती है:

“हमका मेला में चलिकै घुमावा पिया
झुलनीं गढ़ावा पिया ना।
अलका टिकुली हम लगइबे
मगिया सिंदुर के सजइबे,
हमरी अगुरी में मुनरी पहिनावो पिया
मेला में घुमावा पिया ना।”

भोजपुरी लोकगीत में कजरी (गीत) इस प्रकार से है:

“बाय कहे दुखइया संइया मोर सरेवे ए हरि।
सोना के थारी में जेवना परोसनी
सइया जेवे आधिरतियां देवरवा भोरे ए हरि।
चुनि-चुनि कलिया के सेज उसवानी
सइवसा सुते आधिरतियां देवरवा भोरे ए हरि।
पाकल पनवाँ के विरवा लगवनी
सइयसा चामें आधिरतियां देवरवा भोरे ए हरि।”

कजरी गीतों में देवी की पूजा और अर्चना का भी बहुत महत्त्व है। इस गीत में महाकाली देवी (कजला) की पूजा करते हुए गाये जाने वाले गीतों को लोकगीत विधा में आम बोल-चाल की भाषा में कजरी या कजली गीत कहते हैं:

“असरा लगा के अइली, शरण में तोहार एहो छटी मइया।
भर दा तू गोदिया हमार ए हो छटी मइया
भर दा तू गोदिया हमार ए हो छटी मइया॥”

कजली गीत में केवल गीत या गायन शैली की परंपरा नहीं है बल्कि यह पर्व है जो रक्षाबंधन के कृष्ण पक्ष की तृतीया को पड़ता है जिसमें बहन भाई को राखी बाँधकर अपने प्रेम-भाव को अर्पण करते हैं। इस कजरी गीत में स्त्री अपने वियोग का वर्णन करते हुए कहती है जो सावन के महीने में अपने मैके जाने के लिए अनेक प्रकार उपक्रम करती हुए प्रतीत होती है।

“ठाड़ी झरोखवा मैं चितवउँ
नैहरे से केउ नाहीं आइ
ओही रे मयरिया कैसन बपई रे
जिन मोरी सुधियौ न लीन
ओही रे बहिनियाँ कैसन बीरन
ससुरे मैं सावन होई।”2

लोकगीतों में लांगुरिया गीतों का महत्त्वपूर्ण स्थान है। देवी की आराधना एवं पूजा के लिए ही लांगुरिया गीत गाये जाते हैं, बल्कि देवी गीतों की बजाए लोक समाज में लांगुरिया के गीत भी अधिक प्रचलित है। ये गीत भाव और रहस्य से पूर्ण हैं। इन गीतों में लय, धुन और नृत्य का विशेष रूप से महत्त्व होता है। लांगुरिया राजस्थान में गाये जाने वाले गीतों का एक प्रकार है। जिसमें देवी के प्रति भक्ति-भावना अधिक जागृत है। धार्मिक अनुष्ठान, मांगलिक सुअवसर पर देवी-देवताओं की भक्तिपूर्ण आराधना की जाती है। यहाँ देवी का एक लोकगीत इस प्रकार से है:

“माता देर नगारों उतरी
माता अभा जी भाई बेटा विनती
माता अभा जी कंवर-भंवर विनती
हाथ कगन सिर मोड़ दियाड़ी, मात।
माता नै अगड़ घड़ावैस्या।”

लांगुरिया गीतों को ब्रज में छोटे और प्रिय बालक के रूप में भी मान्यता प्राप्त है। भारतीय संस्कृति एवं परिवार में स्त्री अपने पति की देखभाल एक बच्चे की ही तरह करती है। इस गीत में पति के प्रति प्रेम को प्रकट किया है।

“दरवज्जे पै खड़ी लहराय लांगुरिया
तेरी धन खाय लई, कारे नाग ने।
और कुछ खायौ, कुछ डस लई।”

और कुछ मारी फुसकारि। बारे लांगुरिया तेरी धन . . .

एक अन्य गीत में देश के स्थिति को व्यक्त करने वाला एक लांगुरिया गीत इस प्रकार देखा जा सकता है:

“घर में नाँभ नाज को दानौ, गुजर कैसे
होई एगी लांगुरिया, मौज उड़ायै नेता हाकिम और मेंबर
बैठे अपने घर ते काम और करत सुनाई नाँय गुजर कैसे...
दिन पै दिन अंधेर है रहे। भारत के दरम्यान गुजर कैसे...
बगुला भगत करि रहे जनता कूँ हैरान। गुजर कैसे…”

ढोला का सर्वाधिक प्रयोग ब्रज, कौन्नजी, कौरवी और राजस्थानी बोलियों में इसका प्रचार-प्रसार देखा जा सकता है। ‘ढोला’ वस्तुतः लोककाव्य है जिसमें राजा नल की लोककथा और स्त्रियों के गीतों का रूप-स्वरूप व्यक्त किया है। किसी भी शुभ कार्यों या खेल के अवसर पर गीत गाने की परंपरा है। यहाँ एक दोहे के माध्यम से मारवाणी का प्रसंग रखा गया है:

“सोरठियो दूहो भलो, भलि मखणरी बात।
जोवण छाई धण भली, तारां छाई रात॥”

यह बनारस एवं ब्रज, मथुरा और वृंदावन क्षेत्र में अधिक लोकप्रिय है। रसिया ‘रस की खान’ कहे जाते हैं। इसमें लोकमानस अपने जीवन के सुख-दुख, हर्ष-विषाद, उमंग और उल्लास की कथा का वर्णन अधिकतर रसिया शैली में ही व्यक्त किया जाता है। यह शैली लोकशैली के अंतर्गत मानी जाती है। रसिया शैली को होली के समय गाया जाता है। एक प्रचलित लोकगीत रसिया शैली में इस प्रकार से है:

“आज बिरज में होली रे रसिया।
होली रे रिसिया बरजोरी रे लिया।”

एक अन्य गीत में लोकमानस के भावों की अभिव्यक्ति हुई है जिसमें नायिका की सुंदर आँखों का बहुत ही सुंदर ढंग से रसिया लोकगीत शैली में प्रस्तुत किया है:

“मृगनयनी को यार नवल रसिया मृगनयनी।
जाके बड़े-बड़े नयनन कजरा सीहे।
ताकि तिरछी नजर मन भाये बसिया मृगनयनी॥1॥
जाके गोटेदार लहँगा सोहै।
ताक पतली कम बल खाये बसिया मृगनयनी।”

इस सुंदर लोकगीत शैली का प्रयोग मथुरा वृंदावन में समूह के द्वारा झूम-झूम कर रंग खेलते हुए नृत्य के साथ भी गाया जाता है।

“मोपै अटा चढ़यौ नहीं जाय बालम जबर झोके जीवन की।
आए हाँ ऊँची अटारी ईंट की, हाँ ऊँची अटारी ईंट की
अए और सीढ़ी लगीं हैं चार। बालम जबर झोके…”

भोजपुरी लोकगीत की एक विशेष लोकप्रिय शैली बरहमासा भी है। जिसमें किसी विरहिणी स्त्री के बारह महीनों के दुःखों का वर्णन होता है। हिंदी साहित्य एवं लोकगीतों में बारहमासा लिखने की परंपरा अत्यंत प्राचीन है। डॉ. नरेश ने कहा है—“बारहमासा लोक-जीवन की अनुभूत्यात्मक अभिव्यंजना है, सामान्यतः इनका विषय विरह-निवेदन होता है किंतु उनमें महीने विशेष की सामान्य प्राकृतिक स्थिति का उल्लेख मिलता है।”3 इसमें जायसीकृत ‘पदमावती’ में नायिका नागमती के वियोग का वर्णन दर्शाया गया है:

“चैत अजोध्या जनमेल राम,
चंदन से कोसिला लिपवली धाम
गज मोतियन से चौक परवली,
सोना के कलस अबरू धवरली।
बैसाख मास रितु बीस समान
तलफत धरती अवरू असमान
जइसे जल बिना तलफेले मीन,
उहै गति मोर केकई कीन॥
जेठ मास लूक लागेला अंग,
राम लखन अवरू सीता संग।
राम चरन पद कमल समान,
तलफेला धरती अवरू असमान
असार्ह मास गरजेला चहुँ ओर,
बोलेला पपीहा कुँहकेला मोर।
बिलखेली कोसिला अवधपुर धाम,
भींजत होइहैं लखन सिय राम॥
सावन में सर सायर नीर,
भीजत होइहें सिया रघुबीर
भूमि गोजरिया फिरेला भुअंग,
राम लखन अवरू सीता संग॥
भादो मास बूँद बरिसेला अपार,
धरवा के हावेला सकल संसार।
बड़ बड़ जे बरिसेला नीर
भींजत होइहें सिया रघुबीर।
कुआर मास, सखि धरम के राज,
निति उठि धरम करेला संसार।
एहि अवसर पर रहिते जे राम, 
बाभन जेवाँइ दिहिते कुछ दान।
आइल रे सखि। कार्तिक मास,
हमरा पर लागल बिरह के फाँस
घर-घर दियवा बारेलि नारि,
हमरि अजोध्या भइल अँधियारि॥
अहगन कुँआरी करत सिंगार,
कपड़ा सिलावेली सेना के तार।
पाट-पितामर पुलुक समान,
कनक सीस बैजयन्ती के माल॥
पूर मास, सखि। परत दुसार,
रैनि भइलि जइसे खाँड के धार।
कुस आसन कइसे सोइहें राम,
बन कइसे करिहे बिसराय॥
आइल हो सखि! माघ बसंत,
कइसे जियबि हम बिना भगवंत
राम चरन मन लागल मोर
बैठि भरत जी हिलावेले चौर॥
आइल, हो सखि फगुआ उमंग,
चोआ चंदन हिरकेला अंग।
बैठि भरत जी घोरेलें अबीर,
केकरा पर छिरकी बिना रघुबीर॥”

लावनी लोकगीत का लोक साहित्य में विशेष महत्त्व है। लावनी नगर में रहने वाले लोगों का लोकगीत माना जाता है। इसका प्रयोग धार्मिक, सामाजिक एवं नैतिक रूप में भी इसका बहुत महत्त्व है। प्राचीन काल में लावनियों में अध्यात्मिकता एवं भक्ति-भावना की प्रधानता रहती थी। लावनी का सृजन हिंदू-मुसलमान दोनों ने मिलकर किया है। मध्यप्रदेश से इसका शुभारंभ माना जाता है। लावनी लोकगीत एक ऐसी विधा है जिसमें सभी रसों एवं भावों की अभिव्यक्ति होती है।

“धीरे-धीरे जलरे दीपक, रानी पहर बदलती है।
जब तक मेल रहोगौ तो ये, तब तक बाती जरती है॥
आवागमन लगो है पीछे माथा सेग बिचरती है।
ऐसो दीपक जरे के जाकी ज्योति अखंड दिखाई दे॥
वा ज्योति के प्रकाश में सारे ब्रह्मांड दिखाई दे।
काल बली भी थर-थर कपि ज्वाल प्रचंड दिखाई दे।
वा ज्वाला की उष्णता में कबहु न ठंड दिखाई दे।”

एक अन्य उदाहरण में:

“वियोगी मुनि सुत हमारे माँगो।
निपट जिंदगी के सहारे माँगो।
अखिल विश्व के प्रभु प्यारे माँगो।
अवध मांग लो प्राण प्यारे न माँगो।
लखन राम आंखों के तारे न माँगो।”

लावनी परंपरा का प्रयोग प्राचीन काल से अब तक किया जा रहा है। जो लोक समाज में अब भी प्रासंगिक है।

लोरी लोकगीत का इतिहास उतना ही पुराना है जितना मानव जीवन की सृष्टि। ये वे गीत हैं जिन्हें माँ अपने बच्चे को सुलाने, चुप कराने और प्यार करने के लिए गीत गाती है। ये गीत बच्चे के शारीरिक एवं मानसिक विकास में अहम भूमिका निभाता है। वह भाषा का प्रथम रूप इन्हीं लयात्मक ध्वनियों तथा लोरियों के माध्यम से सीखता है। डॉ. ग्रेसरीज ने कहा है कि “लोरी गीतों में बड़े आरोह-अवरोह के साथ गाती है। इन शब्दों का कोई अर्थ नहीं होता। इनकी प्रधान मनोहरता माता के स्वत्युक्त उच्चारण में है। इन शब्दों का कोई अर्थ नहीं होता, किंतु प्रायः अर्थ की  शृंखला बीच-बीच में टूटी हुई भी मिलती है।”4 लोकगीत में लोरी का प्रयोग:

“आव-आव गे फुदो चिरैया,
अंडा पारी-पारी जो गे।
तोहरा अंडा अगिन लागौं
नुनु आँखी नीन गे।”

बच्चों को सुलाने के लिए या साधनों में झूला और लोरी का महत्त्व इस प्रकार दर्शाया गया है:

“चंदा माता, चंदा माता।
आरे आवा पारे आया।
नदिया किनारे आवा।
सोने की कटोरिया में
मोरे बब्बू की मुहवाँ में
घूटूक ऽऽ दा॥
× × × ×
अइहो रे निदिया निनार वन से,
खटिया मचिया पटने से,
मोरे बब्बू सूतेला अपने से
× × × ×
ल ल ल ल लोरी
दूध में कटोरी
दूध में बतासा,
लोग देखे तमाशा।”

फागुन मास में होरी के सार्वजनिक सुअवसर में जो गीत गाये जाते हैं, उसे होरी/होली कहते हैं। यह त्योहार पूरे देश में हर्ष और उल्लास से मनाया जाता है। बिहार में होली का उत्सव खुलकर और खिलकर खेलने की परंपरा है। ऐसा कहा जाता है कि जोगीरे की तान में आपको सामाजिक विषमताओं और विडंबनाओं का जो रंज और तंज दिखता है। होली के रंग के साथ वह भी आस-पास के समाज पर प्रहार करता दिखाई देता है। एक उदाहरण:

“काहे खातिर राजा रूसे काहे खातिर रानी।
काहे खातिर बकुला रूसे कइलें ढबरी पानी॥
जोगीरा सररर….
राज खातिर राजा रफ़से सेज खातिर रानी।
मछरी खातिर बकुला रूसे कइलें ढबरी पानी॥
जोगीरा सररर….”

एक अन्य उदाहरण देखिए:

“केकरे हाये ढोलक सोहै, केकरे हाय मंजीरा।
केकरे हाय कनक पिचकारी, केकरे हाय अबीरा॥
राम के हाथ ढोलक सोहै, लछिमन हाथ मंजीरा
भरत के हाथ कनक पिचकारी, शत्रुघ्न हाथ अबीरा॥”

कुमाँउनी में लोक नृत्य से गहरा संबंध है इसलिए यहाँ अलग-अलग अंचलों में विभिन्न प्रकार के लोग नृत्य के साथ गीत गाते हुए अपनी परंपरा और सामुदायिक संगठन आदि का महत्त्व भी दर्शाते हैं। ये नृत्य गीत व्यक्ति एवं समूह के रीति-रिवाज़, भावनाओं, वेशभूषा, तौर-तरीक़े और आचार-विचार के वाहक हैं। इन नृत्य गीतों में केवल मनोरंजन ही नहीं सामाजिक स्थिति, सभ्यता और संस्कृति की झलक भी मिलती है। इस लोक नृत्य में गीत के उल्लास और आनंद को देखा जा सकता है:

“बेडू पाको बारामासा,
हो नरैण काफल पाको चैता, मेरी छैला
रफ़णा बूणा दिया आया,
हो नरैण को जौ मेरो मैता, मैरी छैला।”

अतः इस प्रकार कहा जाता सकता है कि हिंदी लोकगीतों का भाषा संबंधी एवं शैलियाँ अनेक प्रकार की है। कजरी, लांगुरिया, रसिया, बारहमासी, लावनी, लोरी, होरी, नृत्यगीत और लोकभजन आदि में लोकगीतकार अपने भावों और विचारों के द्वारा समाज में हो रहे क्रियाकलापों को लोकगीतों को अभिव्यक्त करता है जिससे कि हमारे देश, प्रदेश, गाँव तथा लोक-संस्कृति प्रकट होती है। उस स्थान की लोक परंपराओं, रीति-रिवाजों और मान्यताओं के बारे में जाना जा सकता है। लोकगीत एवं संस्कृति द्वारा इसकी अनुभूति करते हुए अपने मनोभावों को अभिव्यक्त करते हैं। इन शैलियों के आधार पर ही लोकगीतकार अपने गीतों की रचना करते हैं। जिस प्रकार का गीत उसकी उसी तरह की शैली का सृजन करते हैं।

हिंदी लोकगीतों की इन विविध शैलियों की विशेषता, लय और पूर्ण गायन में है जो उनके स्वर, उच्चारण, जाति और शब्दों में पूर्ण यप से प्रकट होती है। हिंदी लोकगीतों की शैलियों का अध्ययन उनके स्वर और उच्चारण के मूल तत्त्व के आधार पर ही किया जा सकता है।

संदर्भ:

  1. डॉ. निरुपमा शर्मा—गीतों की विविध शैलियाँ, पृ. 10

  2. डॉ. शांति जैन—कजरी, पृ. 18

  3. डॉ. नरेश—चंदूलाल कृत बारहमासा, पृ. 5

  4. डॉ. ग्रेसरीज—लोकगीतों की परंपरा और प्रयोग, पृ. 148


 

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