महादेवी का साधना दीप
डॉ. रश्मिशीलवेदनाभूति का चरम सौन्दर्य महादेवी जी के काव्य में प्रस्फुटित हुआ है। जहाँ वह अपनी समस्त विषमता और कटुता को त्याग कर अमृतमयी तथा मधुमयी हो गयी हैं। उनकी वेदना का अभिशाप वरदान बनकर कवयित्री की चिर संगिनी के रूप में उन्हें चिर सांत्वना प्रदान करने वाली सखी बन गयी। वेदना के ताप से द्रवीभूत एवं स्वभावतः संवेदनशील उनका हृदय पर पीड़ा को समझने में समर्थ हो गया। वेदना व्यक्तिगत न रहकर समष्टिगत बन गई। तभी तो वह कहती हैं-
अलि मैं कण-कण को ज्ञान चली।
सबका क्रन्दन पहचान चली।
यहाँ यह कहना अतिशयोक्ति नहीं है कि नारी हृदय की सार्वभौम करुणा, सर्वव्यापी स्नेहशक्ति तथा आत्मविश्वास को लेकर महादेवी जी ने विश्व के लिए चिर प्रेममय मंगल की आराधना अत्यधिक स्वाभाविक ढंग से की है। चिर सुन्दरम् प्रियतम की पूजा में स्वयं आरती की लौ की भाँति जल-जल कर भारती मन्दिर में उज्ज्वल प्रकाश विकीर्ण किया है। विश्व के कण-कण में व्याप्त पूर्णता प्राप्ति के क्रन्दन का संवेदनात्मक अनुभव किया। सम्भवतः इसीलिए उनकी काव्य सृष्टि में मानवता की चरम साधना का स्वर बहुत ही स्पष्ट और सजीव है। जो युगों से मनुष्य को पूर्णतः की ओर ले जाने का एकमात्र साधन रहा है।
दीप मेरे जल अकम्पित, घुल अचंचल, सब बुझे दीप जला लूँ, तथा यह मन्दिर का दीप इसे नीरव जलने दो, आदि कविताओं के अध्ययन से यह भली-भांति समझा जा सकता है कि विश्व की अन्धकार पूर्ण स्थिति में कवयित्री अपनी साधना का दीपक अदम्य धैर्य और उत्साह के साथ प्रज्वलित रखना चाहती है। वह अपने मन के दीप को सदा-सर्वदा जलाने की इच्छा रखती है तभी तो उनकी कामना थी-
मधुर-मधुर मेरे दीपक जल।
युग-युग प्रतिदिन प्रतिक्षण प्रतिपल।
महादेवी के कवि जीवन की सबसे बड़ी विशेषता यही रही है कि वह भयंकर से भयंकर कष्ट सहर्ष झेलना जानती हैं। यह विश्वास है कि जब तक दुःखद कंटकों का सामना नहीं किया जायेगा तब तक सुखद सुमनों की प्राप्ति असम्भव है। पीड़ा और करुणा के द्वारा मानवता का कल्याण करना कितना उच्च आदर्श है। इस आदर्श का प्रभाव उनके जीवन पर गहरा पड़ा है। जिसका सहज रूप में अनुभव किया जा सकता है।
दीप सी जलती न तो,
यह समलता रहती कहाँ?
दुःख का मूल कारण व्यक्ति का अलगाव या अहंकार है। जब व्यक्ति अपने को विश्व जीवन में मिलाकर देखने की साधना में सफल हो जाता है, तब उसका दुःख अपने आप विस्तृत होकर सुख की स्थिति प्राप्त कर लेता है। महादेवी जी ने अपने व्यक्तित्व को विश्व व्यापक जीवन के जिस प्रवाह में प्रवाहित कर दिया हे वहाँ दुःख का निराकरण स्वतः हो जाता है। वह स्वयं भी स्वीकार करती हैं-
"दुःख मेरे निकट जीवन का ऐसा काव्य है, जो सारे संसार को एक सूत्र में बाँध रखने की क्षमता रखता है। हमारे असंख्य सुख हमें चाहे मनुष्यता की पहली सीढ़ी तक भी न पहुँचा सकें, किन्तु हमारा एक बूँद आँसू भी जीवन को अधिक मधुर उर्वर बनाये बिना नहीं गिर सकता। मनुष्य सुख अकेला भोगना चाहता है और दुःख सबको बाँट कर।"
प्रेम ही व्यक्ति को सर्वाशतः निःस्वार्थ बनाकर उसे दूसरे में लीन होने की प्रेरणा देता है। यह बात दूसरी है कि प्रेम का पात्र अपनी सीमा के विस्तार में कैसा है? महादेवी जी का प्रेम चेतना की उस महत्वकांक्षा का प्रतीक है, जहाँ व्यक्ति चेतना अपने को सर्वात्म के समकक्ष रखने को उत्सुक रहती है क्योंकि प्रेम की सफलता निष्ठा और चरम सीमा पूर्णतामय अद्वैत भाव में ही होती है। तभी तो
अलि, मैंने जलने ही में जब,
जीवन की निधि पा ली।
धूप सावन, दीप सी मैं, "तथा मोम सा तन घुल चुका अब दीप सा मन जल चुका है।" आदि गीत महादेवी के काव्य की मूल चेतना, साधना, विरह मिलन तथा सुख-दुख की भावना से सम्बद्ध है, इस भावना का मूल स्रोत आत्मा ही है। अतः आत्मा विषयक प्रतीकों का प्रयोग महादेवी के काव्य में अनेक रूपों में हुआ है। आत्मा और उसकी साधना की सबल अभिव्यक्ति दीप के द्वारा हुई है-
किन उपकरणों का दीपक,
किसका जलता है तेल?
किसी वर्तिका कौन कराता,
इसका ज्वाला से मेल?
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लौ ने वर्ती को जाना है,
वर्ती ने यह स्नेह, स्नेह ने,
रज का अंचल पहचाना है।
आत्मा और ब्रह्म की स्थिति को स्वीकारते हुए भी महादेवी जी की आत्मा किसी दार्शनिक ब्रह्म में विलीन होकर अपना अस्तित्व अन्य ब्रह्मवादियों की भाँति विसर्जित नही करना चाहती, वरन् उसका लक्ष्य जीवन के शत्-शत् बन्धनों को स्वीकार करते हुए अपनी स्थिति को व्यापक और विराट बना देना है। तभी तो उनकी कामना है कि विश्व के दीप भले ही बुझ जाये किन्तु उनके हृदय में निरन्तर ज्योति प्रज्वलित रहती है। उसने अपने जीवन का प्रकाश अपनी विरह वेदना से जलते रहने में देखा है-
आलोक यहाँ लुटता है
बुझ जाते हैं तारागण,
अविराम जला करता है
पर मेरा दीपक सा मन
कवीन्द्र रवीन्द्र की गीतान्जलि के समान ही विश्व की पीड़ित मानवता के प्रति महादेवी का काव्य साधना अमर संदेष का विधान करती है। अखिल मानवता एक दिन जीवन के कलह-कोलाहल से थम कर इन गीतों की छाया में "शीतल विश्राम पायेगी यह निश्चित है।" निराला जी ने इनकी काव्य साधना में निहित भावना की प्रशंसा करते हुए लिखा है-
हिन्दी के विशाल मन्दिर की वीणा पाणि।
स्फूर्ति चेतना रचना की प्रतिमा कल्याणी॥