लौटने की राह

20-02-2019

लौटने की राह

डॉ. रश्मिशील

आज सुबह सुबह माँ की चिट्ठी आई है। सब बातों के साथ जो मुख्य बात थी वह यह थी कि रूपा की शादी तय हो गयी है। दिसम्बर माह की सत्रह तारीख को लगन है। शादी में बहू और बच्चों को लेकर आना, नहीं तो बिरादरी वाले तरह-तरह की बातें करेगे। यूँ तो लड़के वालों की माँग बहुत है, मगर लड़का अच्छा है, इसलिए उनकी शर्तें माननी पड़ीं। ये तो भला हो तुम्हारे मामा जी का, नहीं तो मैं अकेली बूढ़ी कहाँ-कहाँ भाग-दौड़ करती? उन्होंने बड़ा सहारा दिया। तू तो जबसे शहर गया, वहीं का होकर रह गया। एक बार तो मुझे लगा रहा था कि रूपा अनब्याही रह जायेगी। मगर ऊपर वाले की कृपा से सब ठीक हो गया।

चिट्ठी पढ़कर उसी मेज़ पर रखे लैम्प के नीचे दबा दी। मन बेचैन हो उठा। गाँव की सोंधी महक, जो शहर की आपा-धापी में विस्मृत सी हो गयी थी, वह बहुत देर तक नाक में भरती रही। गाँव की बहुत ही बातें भी याद आने लगीं। लगा कि मैं फिर से वहीं गाँव का शैतान लड़का हूँ। स्कूल से आये दिन बंक मारना। मनोहर, हरिया, सतीश सब कैसे-कैसे बहाने करके आम की बाग में इकट्ठे होते थे और वहीं पेड़ पर अपने अपने बस्ते टाँगकर दिन भर गुल्ली-डण्डा या कंचे खेलते थे और जब एक दिन गुरू जी ने देख लिया था तो वहीं पर गुल्ली-डण्डा वाला डण्डा छीनकर धुनाई कर दी थी। मगर किसी की हिम्मत घर में बताने की नहीं हुई थी। वक्त के साथ सब कुछ कितना बदल गया। मनोहर, हरिया तो अपनी पैतृक खेती में लग गये। सतीश वहीं प्राइमरी पाठशाला में अध्यापक हो गया और मैं सेन्ट्रल स्कूल अध्यापक होकर इधर-उधर घूमते-घामते इस मुम्बई नगरी में बस गया।

मुम्बई शहर भी क्या शहर है। यहाँ के मोह और विमोह में आदमी पिसता रहता है। वह न तो इस शहर से अलग हो पाता है और ना ही इस शहर के प्रति अपनत्व को महसूस नहीं करता है और जीने की जोड़-तोड़ में अपनी ज़िन्दगी को खपाता हुआ व्यक्ति यहाँ से वापस भी नहीं लौट पाता है। वह खुद भी तो जब इस शहर में आया था तो बी.टी. स्टेशन पर उतरते हुए कितना घबरा रहा था। इतना बड़ा स्टेशन इतरेसारे लोग। और अब वह भी तो इसी भीड़ का एक हिस्सा है। एक बड़े शहर की बड़ी भीड़ का हिस्सा।

परिवार के साथ इस शहर में रहना कितना मुश्किल है? सिर्फ वेतन से तो गुज़ारा ही नामुमकिन है। थोड़ा बहुत पत्र-पत्रिकाओं में लेख-लिखने से आमदनी हो जाती है कुछ ट्यूशन कर लेता हूँ। फिर भी रोज़ी-रोटी चलाने के बाद बचत की बात नहीं सोची जा सकती है। वह तो पत्नी को लाना ही नहीं चाहता था, लेकिन जब खाने-पीने की परेशानी हुई और वह बीमार रहने लगा तो फिर पत्नी को लाना मजबूरी हो गयी। सोचा बहुत बार कि गाँव वापस चले, लेकिन फिर वही मजबूरी कि गाँव जाकर करेंगे क्या? जो थोड़ी बहुत खेती थी वह तो मेरी पढ़ाई और राधा की शादी में बिक गयी थी, फिर लगी-लगाई सरकारी नौकरी छोड़ देने का हौसला भी नहीं जुटा पाया।

पिता जी का देहान्त होने पर पिछली बार जब गाँव गया था तो घर की हालत देखकर दिल रोने रोने को हो आया था। सोचा था कि माँ और रूपा को साथ लेते चलें, किन्तु यहाँ की घुटन भरी ज़िन्दगी को सोचकर चुप साध गया। एक ही कमरे में पत्नी और दो बच्चों के साथ पूरी गृहस्थी को समेटने वाला, सुबह क्या आधी रात से ही पत्नी का पानी के लिए लम्बी लाइन, छोटी-छोटी बातों पर खिंच-खिंच इन सबके बीच में माँ और रूपा को कहाँ एडजस्ट करता। माँ को ण्क झूठी तसल्ली देकर ही तो मैं लौट आया था। तब से आज तक गाँव जाना नहीं हो पाया। पत्नी को तब भी नहीं ले गया था मगर उस समय निकिता का जन्म हुआ था इसलिए न ले जाने का पुख्ता कारण मौजूद था, लेकिन अबकी तो ले जाना अनिवार्य है। बहन की शादी है, माँ का कहना सही है। इन्तज़ाम तो करना ही होगा।

इसी चिन्ता में दिन गुज़र गया। शाम को जब लौटा तो पत्नी ने तब तक शायद वह चिट्ठी पढ़ चुकी थी, चाय के साथ ही बात छेड़ दी।

"रूपा की शादी के विषय में क्या सोच रहे हो?"

"सोचना क्या है? जाने की व्यवस्था करनी पड़ेगी।"

"व्यवस्था कैसे होगी? यह भी सोचा है? "

"हाँ, सोचा है, भविष्य निधि से पैसे निकालने के लिए अर्जी दे दी है, शादी तक पैसे मिल जायेंगे।"

मगर कहना जितना सरल था, पैसे प्राप्त करने की प्रक्रिया उतनी ही जटिल थी। पाँच हज़ार कार्यालय के बाबू को दिये तब उसने त्वरित कार्यवाही कर पैसे निकलवाने में मदद दी। पचहत्तर हज़ार रुपये लेकर घर पहुँचा और हिसाब करने लगा। चार लोगों का मुम्बई से लखनऊ का किराया, टैक्सी भाड़ा, लखनऊ से गाँव तक का सफ़र, शादी के लिए बच्चों व पत्नी के लिए नये कपड़े सब मिलाकर पच्चीस, तीस हज़ार तो खर्च हो ही जायेंगे। माँ भले ही न कहे, मगर कुछ रुपये तो उन्हें देने ही चाहिएँ। इसके अलावा कुछ रुपये खुद के पास भी खर्च के लिए होने चाहिए। पत्नी को भी देने पड़ेंगे। गाँव में जगह जगह तो निछावर देनी पड़ती है और काम करने वाले भी कितने होते हैं? माली, धोबन, कहार, नाऊ, कुम्हार, बारी, पता नहीं कौन-कौन? सबको तो वह जानता तक नहीं। सोचते-सोचते सिर में दर्द होने लगा। मगर चिन्ता अपनी जगह बरकरार थी। सुधा अलग अपने जोड़-तोड़ में लगी रही। बच्चे अवश्य आनन्दित थे क्योंकि किताबों में पढ़ा गया गाँव का सच देखने का अवसर मिला था।

 

माँ मुझे सपरिवार पहुँचा हुआ देखकर बहुत खुश हुई। इसी खुशी ने उनके चेहरे से चिन्ता की रेखाओं को कम किया था, यह स्पष्ट दिखाई दे रहा था। रूपा की शादी मेरी सोच से काफी अच्छी हुई थी। लड़के वाले काफी शालीन प्रवृत्ति के थे। मैं मुम्बई से आया हूँ। इस कारण से सबके मन में मेरे प्रति एक आदर भाव था। उनके मन में मुम्बई नगरी का जो अक्स था, वह वही था जो टी.वी. या सिनेमा में देखा था। ज़िन्दगी को जीने की जीतोड़ कोशिशें और रोज़-रोज़ पिसता आदमी शायद उनकी पहचान में नहीं थे।

जब चलने लगा तो माँ ने कहा बेटा अब तू गाँव वापस आ जा। यह पुरखों की देहरी है। मेरा क्या है? आज हूँ, कल नहीं। माँ की बातों का मेरे पास कोई जवाब नहीं, क्योंकि मैं जानता हूँ कि अब लौटने की राह बहुत मुश्किल है। मुश्किल क्या नामुमकिन है। मेरे कुछ न कहने पर भी शायद मेरा जवाब उन तक पहुँच गया था। इसलिए वह बहुत देर तक डबडबाई आँखें से मुझे निहारती रही थी। वे निगाहें आज भी मेरा पीछा करती हैं।

0 टिप्पणियाँ

कृपया टिप्पणी दें

लेखक की अन्य कृतियाँ

पुस्तक समीक्षा
बात-चीत
कहानी
व्यक्ति चित्र
स्मृति लेख
लोक कथा
हास्य-व्यंग्य आलेख-कहानी
सांस्कृतिक कथा
आलेख
अनूदित लोक कथा
विडियो
ऑडियो

विशेषांक में

लेखक की पुस्तकें