लोटा–पानी
डॉ. दीपा गुप्ताबेरंग मन से रंग–बिरंगे अलंकरण से सज रही है बेरोनिका। आज लोटा–पानी जो है। भरे समाज में हड़िया (चावल से बना शराब) पीना–पिलाना होगा जुल्युश को। तभी तो शादी तय होगी। आयो–बाबा की कोई ज़ोर–ज़बरदस्ती तो नहीं पर मनशा तो यही है। वह सब को समझा–समझा कर थक गयी कि वह शादी नहीं करना चाहती फिर भी सब मानते कहाँ हैं। समझाते ही रहते हैं। तब उसने सोचा कि आज भरे समाज में ही हड़िया पीने से इंकार कर देगी। कोई कुछ नहीं कर पाएगा।
भित्त (दिवार) में मढ़े आईने के बगल वाले दिरखा पर चखुट टिन के चित्तियाये डिब्बे में रखा है सजने का सब समान। आईने का अक्स चिढ़ाता है। आँखों की घीरनी का तेज सभ्य समाज की किरणें पाते ही ओस सा काफूर हो गया। मन डूबा जा रहा है चक्रवाती घीरनी में। हिम्मत नहीं होती अक्स से नज़रें मिलाने की और सहलाने लगती है अपने रौंदे हुए उदर को। यदि एड़ी से न मिसवाई होती तो अब तक उभर आता चिकना पेट और फुदकने लगती नन्ही किरण का स्पंदन। करती भी तो क्या सोमनाथ को उसका माँ बनना भी तो पसंद नहीं।
नयी बिन्दी के पत्ते से किनारे की बड़ी लाल टिकुली (बिन्दी) उजाड़कर चिपका दी अपने ऊँचे ललाट पर। बेरो के पैदा होते ही बपतिस्मा पढ़ाते ही फादर ने कहा था ऊँचा ललाट लेकर आई है हमारे उरांव कुल में, कुल का नाम ऊँचा करेगी। आयो–बाबा ने जश्न मनाया था। भर–भर दोना (पत्ते का काटोरा) हड़िया पिलाया था सभी को।
कोने में पड़े झाड़ू से एक सिक (तिनका) तोड़ सफेद कुमकुम में डुबो–डुबोकर टिकुली को सजाने लगी। सफ़ेद बूँदों के बीच लाल टिकुली खिल उठी। ऐसे ही खिल उठी थी जब सोमनाथ ने उसके माथे पर नग जड़ी लाल टिकुली चिपकायी थी। सारी रात मुस्काते व करवट बदलते ही गुज़री थी उस रोज़। रह–रह कर सोमनाथ के चेहरे का नूर बेरो के चेहरे पर पसर जाता था और वह उसमें लिपट मदमस्त हो बिछौने पर सिकुड़ती–पसरती रही थी। ख़ुश होती भी क्यों नहीं सोमनाथ बनिया कुल से शहरी पहनावा–ओढ़ावा वाला आदमी जो था। छैल–छबीली कल्पना में उरांइन लड़कियाँ न्योछावर हो जाती हैं। उनका रहन–सहन, हाव–भाव, वाकपटुता और गेहुंवा–गौर्य वर्ण लुभाने के लिए मायाजाल से कम नहीं। बिन्दी सजकर झिलमिलाने लगी। झाड़ू के सिक ने बड़ा काम किया माथे को सजाने में। अब सिक को कहाँ रखती? उसमें लगी कुमकुम अन्य समानों को गंदा ही करती। बेरो ने सिक को किनारे फेंक दिया। कोने में पड़ा सफ़ेद कुमकुम से लिपटा चमचमाता सिक देख रहा है बेरो को। बेरो भी तो ऐसे ही देखा करती थी भरे पेट सोमनाथ को और इसके पहले बेरो की राह एकटक निहारता था सोमनाथ।
आयो–बाबा लकड़ी–पत्ता लेने जंगल चले जाया करते। बेरो घर का काम–काज करती। कभी कोई गाँव में कुछ काम के लिए बुलाता तो चली भी जाती। दस–पाँच, बासी–कुसी पकड़ा देता, ख़ुश हो जाती। सहुआइन तो अक्सर ही बेरो के बाबा को देखते ही कह देती– “भेज देबे बेरो के तनि सुन काम हीक, झिन भुइलबे।”(भेज देना बेरो को थोड़ा काम है, भूलना मत।)
बेरो चहक–चहक उनके घर की साफ़–सफ़ाई में लग जाती। सहुआइन बेटी का उतारन भी कभी–कभार दे देती। खिल उठती बेरो नये परिवेश का पहनावा पाकर। नये परिवेश का पहनावा खींचने लगता नयी दुनिया में। बेरो इसी नयी दुनिया का हिस्सा बन जाना चाहती है। उसे कचोटता है रोज़ आयो–बाबा का जंगल जाना, लकड़ी–पत्ते तोड़ना, बरसात में एक खेती करने के बाद साल भर चरवाही व हरवाही करना। सारे बंधन तोड़कर निकल जाना चाहती है उस नयी दुनिया की ओर।
काजल की रेखा से आँखें पनिया गयीं। आँचल को गुलठाकर भाप देने लगी। मांदर (ढोल) की आवाज़ें आने लगीं। लगता है पूरा समाज आ गया। जुल्युश भी आ गया होगा। उसकी तो आज आरज़ू पूरी हो रही है। उसने कई बार मुझे ढुक्कु ढुकाने की कोशिश की थी। उस समय ढुक्कु हो लेती तो गोद में तीन–चार बच्चे आ गये होते। उस समय ही तो केरोनिना भी एडविन के घर ढुक्कु हो ली थी। दो बच्चा होने के बाद लोटा–पानी कराकर शादी हुई। आज थोड़ी देर से आएगी, कल ही कह रही थी जंगल से आने में देर हो जाएगी, आजकल काम जल्दी नहीं उसरता। छोटू साल भर का भी नहीं हुआ कि फिर पेट से रह गयी। अब तो सारा काम छोटू को भेतरा बाँध कर ही करना पड़ता है। भेतरा बाँधे–बाँधे पीठ भी अकड़ जाती है। दिनभर एडविन जो कमाता है आधा से अधिक पीकर ही आ जाता है, फिर वही रोज़ का हो–हल्ला और हंगामा। मैं लकड़ी–पत्ते न तोड़ूँ तो एक शाम का कलेवा जुटाना भी मुश्किल। बेरो जानती है सब कुछ। शायद इसीलिए सब छोड़ पहुँच जाना चाहती है उस नयी दुनिया में। बेरो को चिढ़ सी होती है समाज के रहन–सहन, रीति–रिवाज़ से। जुल्युश ने कई बार समझाया भी – “झिन देख उ बड़ मन के, उमन के दाँत हाथी लेखे, खाये के आऊ दिखाए के आऊ हय। हामिन कर संस्कृति बढ़िया हीक, सब झन चिड़िया नियन आजाद। न झुठ–मुठ के शान न हवाई सपना।”(उन लोगों को मत देखो, उन लोगों के दाँत हाथी जैसे हैं। हमारी संस्कृति अच्छी है, सब लोग चिड़िया के समान आज़ाद हैं।)
जुल्युश की बातें बेरो को कहाँ समझ आतीं। पसीने की महक को डियोडरेंट ने दबा रखा है। सहुआइन ने बेरो को सोमनाथ के कमरे में पोछा लगाने के लिए भेजा था। सोमनाथ की बहू रसोई में धुसका तल रही थी। धुसके की ख़ुशबू से मन ललचा रहा था। सहुआइन ने कहा भी था– “जाये खन आयो–बाबा मन ले भी धुसका लेई जाबे।”(जाते समय माँ–पिता जी के लिए भी धुसका ले जाना।)
बेरो गुनगुनाती झूमती हुई पोछा लगा रही थी। नहानी से तौलिया लपेटे निकला था सोमनाथ। एक पल के लिए उसके पैर ठिठके फिर सामान्य हो गया। बेरो तो बचपन से ही उसके घर में काम करती रही है। बेरो की नज़र उसके बदन पर पड़ी। गोरे देह में चिपके काले बालों के आकर्षण से उसकी नज़रें भी चिपकने लगीं। नज़रें टकराते ही वह झेंप गयी। पोछा के कपड़े को भिगोकर निचोड़ती हुई भावनाओं को भी झटकारने लगी। सोमनाथ शर्ट इन कर हल्के उभरते तोंद को बेल्ट से कस, क्रीम–पाउडर–डियोडरेंट लगा बाल सँवारने लगा। डियोडरेंट की ख़ुशबू कमरे में बिखर गयी। सुरभित हो गयी बेरो। ख़ुशबू को ज़ेहन में उतार लेने को आतुर, लम्बी साँसें लेने लगी। सोमनाथ आईने के सामने बाल सँवारता रहा। उलझता रहा अपनी ही माँग सीधी करने में। सीसे में दिख रहे झुक कर पोछा लगाती बेरो के अक्स में उलझता चला गया। कुर्ती से झाँकता यौवन, मंद मुस्काता चेहरा, ख़ुशबू से सराबोर काम में मग्न पर जब बेरो की चंचल फिदकती नज़रें ज्यों ही आईने से टकराईं सोमनाथ की निहारती नज़रों का सामना करते ही सकपका गई। मन में विस्फोट सा हुआ। तन सुधि ले खड़ी होकर दुपट्टा सँवारने लगी। सोमनाथ कमरे से बाहर निकल गया। बग़ीचे के आम पेड़ छत तक पसर आए थे। कल ही मंजराए थे, ध्यान भी न आया कि कब अंबिया गदरा गई। गदराई अंबिया घूमने लगी आँखों में। मन हुआ लपक कर पकड़ ले। दिमाग़ ठनका जल्दीबाज़ी करना ठीक नहीं। गद् लग गई तो ख़ामख़्वाह परेशानी में फँस जाएगा। ‘खाया–पीया कुछ नहीं गिलास तोड़े चार आना।’ सोचकर नाश्ता करने बैठ गया। फूला–फूला धुसका गायत्री परोसती जा रही थी पर ध्यान गठीली अंबिया पर ही था। बेरो बगल से पोछा की बाल्टी लिए निकली। सोमनाथ की नज़रें नीचे से ऊपर तक सरसराती हुई देह पर फैली देख डियोडरेंट की ख़ुशबू से मन सराबोर हो गया।
लाल लाली से गुलाबी होठ लाल कर लिए। सेंट निकालकर ऊपर से नीचे तक स्प्रे की। चमेली की ख़ुशबू से पूरा कमरा गहगहा उठा। ज़ेहन में समाया डियोडरेंट अब भी भारी पड़ रहा है। लाल साड़ी के साथ लाल लिपस्टिक ख़ूब फबा। बेरो हर त्योहार में लाली लगाती है। सोमनाथ अक्सर मज़ाक करता– “काले लिपस्टिक में पइसा फेंक थीस, तोर होठ तो अइसने रसभरल लाल हीक।”(क्यों लिपस्टिक में पैसा फेंक रही हो? तुम्हारे होठ तो ऐसे ही रसभरे लाल हैं।)
बेरो ‘धत्’ कहती हुई लजाकर भाग जाती। एक दिन पकड़ में आ ही गयी। गायत्री बहू-बच्चों को लेकर भाई की शादी में पहले ही मायके चली गयी थी और सहुआइन घर का काम बेरो को समझाकर पड़ोस में सत्यनारायण भगवान की पूजा में चली गई। सोमनाथ ने एक गिफ़्ट का डब्बा पकड़ाते हुए बेरो से कहा था– “देख तोर ले का हीक इ डिबा में।”(देखो तुम्हारे लिए क्या है इस डिब्बा में)
बेरो के चेहरे पर सकुचाहट व शर्माहट पसर आई थी। गालों पर लालिमा बिखर गई। नज़रें झुकने लगी थीं, बदन सिकुड़ने लगा। पैरों की उँगलियाँ ज़मीन से खेलने लगी थीं। सोमनाथ को ट्रेफ़िक का ग्रीन सिगनल जलने सा लगा। उसने बेरो को बाँहों में भरते हुए कहा– “काले सोचत थिस, तोर ले लाने हो त। सब तोर हीक, मोए भी तोर।”(क्यों सोच रही हो, तुम्हारे लिए लाया हूँ। सब तुम्हारा है, मैं भी तुम्हारा हूँ।)
बेरो ने नज़रें उठाईं। सोमनाथ की नज़रें मदभरी लगीं। उसने बाँहों का कसाव बढ़ाते हुए कहा– “सच कह थो बेरो, जे दिन से तोके पोछा लगात देइख हो। मन पगलाइल लेखे लाग थीक। तोंए तो मुरुक सुंदर हिस। एक बार देख तो इ डिबा में का लाइन हो तोर ले।”(सच कह रहा हूँ बेरो, जिस दिन से तुम्हें पोंछा लगाते हुए देखा हूँ। मन पागल सा हो गया है। तुम तो बहुत सुंदर हो। एक बार देखो तो इस डिब्बा में क्या है तुम्हारे लिए।)
फिर ख़ुद ही डिब्बा को खोलने लगा। नगजड़ी बिन्दी, एक बिन्दी पत्ते से उजाड़कर बेरो के माथे पर चिपकाते हुए कहा– “देख आईना में केतना खिलइत हीक तोर पर, तोर आगे सब फेल।”(आइना में देखो कितना खिल रहा है तुम पर, तुम्हारे सामने सब फेल हैं।)
बेरो की नज़रें कमरे के ड्रेसिंग टेबल की तरफ़ गयीं। बिंदी की चमक से मन जगमगाने लगा। फिर डिब्बे से कान का झुमका निकाल कर उसके कान में सटाते हुए कहा था कि बहुत फबेंगे तुम पर, इसे पहन कर दिखा न। बाद में पहन कर दिखाऊँगी कहते हुए बेरो ने पकड़ लिया।
एक डब्बा जिस पर अंतरंग वस्त्र के फोटो बने थे, उस डिब्बे को पकड़ाते हुए सोमनाथ ने पूछा था– “अउर इके।”(और इसे)
बेरो सिहर उठी थी नख से सिर तक। डियोडरेंट की ख़ुशबू आँखों में उतर आई। सोमनाथ को अंबिया का गद् लगने का भय ख़तम हो गया। खट्टी–मीठी अंबिया बहुत भाने लगी। जब मौक़ा लगता मन भर रसास्वाद करता।
गायत्री बहू के मायके से आते ही उनकी सीमाएँ निर्धारित हो जातीं फिर भी क्षणिक मौक़े में भी बेरो को रानी होने का एहसास करा देता। पैमाने का जाम छलकने के लिए ख़ुद ही बेक़रार हो जाता। भले ही सोमनाथ पूरे परिवार के लिए सख़्त है पर बेरो के लिए तो रुई का फाहा। विशेष कर गायत्री के पहनावे–ओढ़ावे को लेकर सोमनाथ बहुत सख़्त रहता। जब सोमनाथ के कुछ दोस्त घर आए थे तब गायत्री के सिर से पल्ला सरक गया था तब सोमनाथ ने सबके जाने के बाद गायत्री को यह कहते हुए बहुत डाँटा था कि मेरे दोस्तों के सामने शरीर की नुमाइश करती है। बातें बढ़ते–बढ़ते चाँटे तक पहुँच गई थीं। उसी समय बेरो को बुला-बुलाकर नास्ता परोसवाया, हँस–हँसकर अपने दोस्तों के सामने तारीफ़ की। छत पर पसरी अंबिया सबको भाने लगी थी।
“तइयार होले बेरो जल्दी कर, सब आइ गेलसं।”(तैयार हुई बेरो, जल्दी करो। सभी लोग आ गए।)
बाबा ने दरवाज़े से आवाज़ लगाई। मांदर की ढम–ढमाहट से घर गूँज रहा है। नये–नये, रंग–बिरंगे कपड़ों में सजे, रिश्तेदारों से घर–आँगन गहगहा उठा। आँगन में सब सामान के साथ हड़िया भरा दो लोटा रखा है। इसे ही पीकर शादी की स्वीकृति देनी होगी। मद पीना कोई नया तो नहीं है बेरो के लिए। शुरू से ही पर्व–त्योहारों में पीती रही है। उस दिन सहुआइन के घर भी पी ली थी जब सहुआइन गायत्री बहू को लेकर एक रिश्तेदार के घर शादी में चली गयी थी और सोमनाथ यह बहाना करके रुक गया था कि – “गाय–गोरु–दुकान कौन देखेगा। मैं ही रह जाता हूँ तुम लोग हो आओ। मेरे खाने–पीने की चिंता मत करो। कह देना बेरो को बना कर चली जाएगी।”
पर बेरो जा कहाँ पाई थी सोमनाथ ने मुर्गा–भात बनाने के लिए कहा था और संग में विदेशी शराब की बोतलें भी ले आया था। बेरो प्याला–पे–प्याला भरती गयी। बाहर तेज़ हवाओं के साथ बिजली कड़क रही थी। सोमनाथ ने एक बार प्याला बढ़ाते हुए कहा था– “एक बार इकेहूं चख के देख, अइसन आज तक नी पीले होबे। फिर घर चइल जाबे।” एक बार इसे भी चख कर देखो, आज तक ऐसा नहीं पी होगी। फिर घर चली जाना।)
रात अंगूरी होती चली गयी। तेज़ हवाओं के साथ मुसलाधार बारिश हुई। सारी अंबिया झड़ गयीं। ज़मीन पर पथरा–बीछ गयीं। सुबह मुहल्ले के बच्चे दौड़–दौड़कर आम चुनने लगे। कई घरों में कूचा लगा होगा तो कितनों ने चटनी बनायी होगी। जिभे–जिभे रुचिर भिन्ना।
अंगूर के रस ने हड़िया को दबा दिया। नये फ़ैशन नये समाज में ढल गई बेरो। ओछा लगता है उसे अपना समाज। गरियाती रहती है अपने समाज के लोगों को इन्हें तो खाने–पीने–रहने का अक़्ल ही नहीं।
बेरो की नज़रें घूम रहीं हैं आँगन के चारों ओर। पूरा समाज बैठा है। एक कोने में सामान का ढेर लगा हुआ है। कुछ तो लड़के वाले लेकर आए तो कुछ समाज वाले। बेरो के पिता को तो फ़िक्र ही नहीं थी कि बेटी की शादी करनी है। लड़के वाले ही धन-माल देते हैं। सारा समाज भिड़ जाता है पत्ता तोड़ने, लकड़ी लाने से लेकर सब सामान जुटाने में। गायत्री बहू को सहुआइन इसलिए भी तो कोसती रहती है कि दहेज में कुछ नहीं लाई। जो चढ़ा वह भी बहुत हल्का। पहले तो गायत्री बहू को मुँह खोलने की हिम्मत ही नहीं थी पर अब शादी के दस साल बाद कभी–कभी जब बिलकुल नहीं सहा जाता तो कह भी देती है– “फिर क्यों सारा कैश ही गिनवा लिए थे, उस समय तो कहे कि हमारा घर सामानों से भरा है। हमें कैश ही दे दीजिए, फिर रोज़–रोज़ के ताने क्यों कि मैं लंगटे घर से आई हूँ, माँ–बाप ने ऐसे ही विदा कर दिया।”
फिर पूरा दिन गायत्री बहू कलपती–सिसकती–कुढ़ती–कोसती रहती अपने व अपने भाग्य को, इसलिए बेटी होते के साथ ही बैंक में खाता खोलवा दी कि थोड़ा–थोड़ा जमा करती जाएगी फिर शादी में दिक़्क़तें नहीं होंगी।
बड़ी बेटी होने के बाद गायत्री बहू जब फिर पेट से थी तभी उसके न चाहने पर भी सहुआइन और सोमनाथ उसे डॉक्टर के पास ले जाकर चेक करवाए। दो बार सफाई करवाने के बाद तीसरे में बाबू ठहरा। कैसी पीली पड़ गयी थी उस समय। बड़े–बड़े डॉक्टर न होते तो बच भी नहीं पाती। बेरो ने कहा भी था कि हमारे समाज में तो औरतें ऐसे ही मर जाती हैं बिन इलाज के, बस झाड़–फूँक कराते–कराते। यदि आयो–बाबु ने गिरिजा में बपनिस्ता न पढ़वाया होता तो मैं कभी पढ़ती भी नहीं। नहीं भाता मुझे यह समाज। बनिया समाज का अंग बन कर रह जाना चाहती हूँ, पर क्या वे मुझे अपनाएँगे? शायद कभी नहीं। सोमनाथ भी तो जब मुझे अकेले में मिलते हैं तब ही रानी सा मान देते हैं, नहीं तो नौकरानी ही। काश सोमनाथ जुल्युश जैसे होते जो इतना होने पर भी मेरे लिए जान देता रहता है। कई–कई दिन मैं घर से बाहर रहती हूँ, पूछताछ भी नहीं करता। सहुआइन की बेटी शादी से पहले एक लड़के से हँस–हँसकर बातें क्या कर रही थी कि पूरे परिवार का ताप उसे सहना पड़ा। सोमनाथ ने तो दो थप्पड़ भी गाल पर रसीद कर दिये थे, भले ही ख़ुद. . .। और उसका दोस्त तो जेल चला गया था अपनी ही बहन के क़त्ल के इल्ज़ाम में। बहन शादी से पहले ही पेट से हो गयी थी। खोखली नाक के सिवाय कुछ नहीं। कंबल ओढ़ कर घी पीने की आदत है इन्हें। कोरोनिना भी तो ढुक्कु हो गयी थी दो बच्चे के बाद लोटा–पानी हुआ। क्या फ़र्क पड़ता है बच्चा शादी के पहले हो या बाद में।
सहुआइन की बेटी को तो हमारा समाज ही अच्छा लगता था। कहती है तुम लोग ही ठीक हो बेरो कम–से–कम खुलकर साँस तो लेती हो। धन की नहीं मन की रानी हो। बेरो सोचती मैं कैसे समझाऊँ इसे पेट भरा व तन पर मनचाहा सुंदर लिबास हो तो बातें निकलती ही हैं। एक दिन हमारे घर में रह ले तो जान जाऊँ।
आज तो घर का कोना–कोना दमक रहा है। दुद्धि मिट्टी की ख़ुशबू फैली है सभी दीवारों पर। घर–आँगन गहगहा रहा है। सभी के चेहरे पर ख़ुशियाँ सितारों सी टिमटिमा रही हैं। बेरो भी टिमटिमाती यदि उस कुल में जाती तो। वह अनमने मन से बढ़ रही है, आँगन की ओर। हड़िया का लोटा जैसे ही जुल्युश की ओर बढ़ाया। बहुत ख़ुश दिखा जुल्युश, दोनों हाथों से सहर्ष स्वीकार कर लोटा को होठों से लगा लिया। उसकी आखों का ख़ुमार मदहोश करने को आतुर। झुका लेती है बेरो अपनी नज़रों को। धड़कने नगाड़े की तरह ढब–ढब।
जुल्युश ने मुस्काते हुए लोटा बेरो की ओर बढ़ाया। डरता है जुल्युश! नहीं पी बेरो तो वह कुछ नहीं कर सकता। पूरा हक़ है उसे नामंजूर करने का। कोई हक़–दाब नहीं समाज का। यहाँ तो सब खुले पक्षी हैं।
जुल्युश के आँखों का ख़ुमार, हाथ में लोटा। ऐसा ही तो नज़ारा था उस रोज़ जब सोमनाथ ने अंगूर का रस पिलाकर मदहोश कर दिया था। उस रात का एक–एक पल सोचकर सिहरती है बेरो अब भी। भरपूर जीया था उस रात, और फिर न जाने कितने ही ऐसे दिन–रात। ऐसा ही चलता रहता यदि माहवारी न रुकती। सोमनाथ को जब बतायी तब तो उसके चेहरे की रंगत ही उड़ गई थी। डॉक्टर के पास भी नहीं ले जा सकता था। छप्पर से धुँआ देख गाँव वालों को भनक लग ही जाती कि कुछ पक रहा है। हज़ार रुपये की गड्डी पकड़ाते हुए कहा था– “चमाईन से पेट मिसवा ले। बच्चा गिर जाई। केखहों कानोकान खबर भी नी होई।” (चमईन से पेट मिसवा लो। बच्चा गिर जाएगा। किसी को कानो–कान खबर भी नहीं होगी।)
बेरो तो अंकुर को मज़बूत दरख़्त बनाना चाहती थी। सोमनाथ का पैर पकड़ गिड़गिड़ाने लगी– “दोसर ही सही, नाम तो देई दे।” (दूसरी ही सही नाम तो दे दो।)
पैरों को झटक कहते हुए निकल गया था सोमनाथ– “नी जानो कहाँ–कहाँ हॉस–बोइल–सुइत हिस आउर एखन मोर नाम लगा थिस।” (पता नहीं कहाँ हँस–बैठ–सोई हो, और अब मेरा नाम लगा रही हो।)
दौड़कर बेरो ने सोमनाथ का हाथ पकड़ लिया था। सोमनाथ हालात पर क़ाबू पाते हुए बेरो को समझाने लगा था– “प्रेम में माँ बनेले जरुरी हिक का? का मोय तोके खुश नाको राखत। तोर सब इच्छा के पूरा कर थो। तोय तो जानत हिस कि हमन कर समाज में केतना इज्जत हीक। सब थूके लागबैं। मोय तोके जिन्दगी भइर रानी बनाइके रखबूं। बस इ बच्चा के गिराई दे।” (प्रेम में माँ बनना ज़रूरी है क्या? क्या मैं ऐसे तुम्हें ख़ुश नहीं रख रहा हूँ? तुम्हारी सब इच्छाएँ तो पूरी करता हूँ। तू तो जानती ही है हमारे समाज को। कितनी इज़्ज़त है हमारी। सब थू–थू करेंगे। मैं तुम्हें ज़िन्दगी भर रानी बनाकर रखूँगा। बस ये बच्चा गिरा दो।)
रात भर उदर पकड़कर रोई थी बेरो। गायत्री बहू ने ही तो बच्चा होते ही कहा था कि आज मैं पूरी नारी बन गई। बेरो को भी तो लगने लगा कि पूृरी नारी मतलब माँ बन जाना। तो क्या वह कभी माँ नहीं बन पाएगी। सिसकती है और सहलाती है पेट को। सुबह उदास चेहरा देख जुल्युश भान गया था। तभी तो सुबह–शाम बेरो की ख़बर पूछने चला आता था। वह तो ऐसे भी अपना लेता पर बेरो कुछ भी अंश नहीं रखना चाहती थी, न तन में न मन में। पूरी तरह झटकार देना चाहती थी। उदर पर चमईन की एड़ी की पीड़ा से कहीं अधिक पीड़ा हो रही थी मन को झटकारने में। नहीं छूट रही मन की लगी।
सोच लिया नहीं पियेगी हड़िया। यदि सोमनाथ बिन बच्चे के रखना चाहता है तो क्या, रखना तो चाहता है। उसकी सब मुराद पूरी तो करेगा। जुल्युश मुस्काते हुए लोटा बढ़ाया। सबकी नज़रें बेरो पर टिकीं हैं। बेरो कसमसा रही है। लौटा देना चाहती है लोटा। जुल्युश टकटकी लगाए मुस्कुरा रहा है। बेरो नज़र नहीं मिला पा रही। उसकी नज़रें दौड़ रही हैं चहुँ ओर। पिंजड़े का रुपु (तोता) टाँय–टाँय कर रहा है। लगता है किसी ने दाना–पानी नहीं डाला। गायत्री बहू लगी पिंजड़े में। लगा अभी जाकर पिंजड़ा खोल दे। हाथ में लोटा लिए ही पिंजड़े की ओर बढ़ पिंजड़ा खोल दिया। रुपु चहचहाने लगा। बचपन मेें आज़ादी का पाठ पढ़ाते समय गुरुजी ने नेताजी का नारा मार–मार कर रटवाया था ‘हमें सुराज्य नहीं स्वराज्य चाहिए।’ उस समय बेरो हमेशा सुराज्य–स्वराज्य में गड़बड़ा जाती थी। अब हँसती है पहले की नादानियाँ सोचकर। फिर हँसी ख़ुद पर, तिरछी नज़रें जुल्युश पर पड़ीं। मनुहार–ख़ुमार से सराबोर लगी। हथेली पर रखे लोटे को दृढ़निश्चयता के साथ कस कर पकड़ होठों से लगा लिया। लोटा–पानी की ख़ुशी में सारा समाज झूम उठा।
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