कासे कहूँ
डॉ. दीपा गुप्ताप्रोफ़ेसर मेघना की नज़रें चारों ओर दौड़ रहीं हैं। कभी इस कमरे, तो कभी उस। कभी कॉलेज के बरामदे में दौड़ती तो कभी जीने से धड़धड़ाती हुई चढ़ ऊपर के कमरों की तलाशी लेने लगती, फिर हार–थककर कॉलेज के प्रवेश–द्वार पर बैठ सोचने लग जाती हैं– "आज क्यूँ नहीं आया विप्रेन्द्र? रोz तो मेरे आने से पहले ही कॉलेज आ जाया करता था।"
प्रतिदिन सुबह विप्रेन्द्र मेघना को देखते ही आत्मिक मुस्कान बिखेरते हुए "गुड मार्निंग मैम" कहता है। भले ही मेघना अपनी ख़ुशी प्रकट नहीं करती पर विप्रेन्द्र की मुस्कान उसके अंतर्मन में समा हिलोरें लेने लगती है। आज भी कई लोगों से "गुड मार्निंग" तो सुना पर विप्रेन्द्र का वह लहराता मुस्कान भरा अभिवादन न पाकर मेघना बेचैन हो गयी है।
अपनी बाल्यावस्था में ही मेघना ने जब अपने पिता को अर्थी पर जाते हुए देखा था तो सिसक–सिसक कर बहुत देर तक रोई थी क्योंकि अर्थी पर जाने का मतलब उसने ही अपने छोटे–छोटे भाई बहनों को उस दिन समझाया था। पिता की मृत्यु के बाद मेघना की माँ कॉलेज में अटेंडर का काम करने लगी। मेघना माँ के उत्तरदायित्वों को समझती हुई गंभीर बनती गयी। माँ अपने कॉलेज के प्रोफ़ेसरों की बातें मेघना से अक्सर ही करती। उनके हाव–भाव व गुणों को मेघना से मिलाती। मेघना की भावनाएँ पुलकित हो प्रोफ़ेसर के आसन पर बैठ जाती। उससे पढ़ाई का जुनून सर पकड़ा। हर वर्ष अव्वल। कॉलेज में चश्मिश पढ़ाकू लड़की के नाम से पहचान बन गई। देर रात तक किताबों में रमीं रहती। उसकी अल्हड़ता उसके छोटे भाई–बहनों ने आपस में बाँट लिया था।
मेघना देर रात तक पढ़ते–पढ़ते जब अलसा जाती तब रसोई घर में से आने वाली बर्तनों की खटर–पटर आवाज़ें उसे सचेत करती कि माँ भी तो रसोई में अभी भी काम कर ही रही है जबकि दिनभर वो भी तो कॉलेज में ऊपर–नीचे–दौड़ती–भागती रहती है। अंतर्मन की पीड़ा उसकी नींद को काफूर कर देती। उस रात की कल्पना से आज भी उसकी आँखें नम हो जातीं हैं जब रसोई घर से घड़ाम् की आवाज़ आई थी और उसके अंधुवाते चेहरे पर लगा मानो गाज़ गिर गयी हो। हाथ से क़लम छूटकर धरती पर लुढ़कने लगी थी। पैरों की थरथराहट दौड़ में बदल गयी। माँ को फर्श पर निश्चेष्ट ढेर पाकर समझ नहीं पाई थी कि क्या करे और क्या न करे? अँधेरे से डरने वाली लड़की आधी रात में झिंगुरों के एकछत्र साम्राज्य से बेख़बर दरवाज़े की कुंडी खोल बेतहाशा मुहल्ले में दौड़ने लगी। कभी सोनारिन चाची के घर के दरवाज़े की कुंडी खटखटाती तो कभी भागकर पंडिताइन की। घंटों दौड़–दौड़ मुहल्ले में कुंडियाँ पीटती रही पर किसी को भी न जगा सकी। न पड़ोसियों को न माँ को। माँ की चिरनिद्रा ने इसके अंतर्मन को चीर डाला।
घर की ज़िम्मेदारियों ने कॉलेज जाना छुड़ा दिया था। घर–घर जा कर ट्युशन पढ़ाने लगी थी पर अपनी पढ़ाई को भी विराम नहीं दिया था, देर रात तक अपना पाठ्यक्रम पूरा करती रहती थी। भाई–बहन की ज़िम्मेदारियों के एहसास के साथ अपनी परीक्षाओं में भी अव्वल ही आती रही। पी जी करने के पश्चात् एक प्राइवेट कॉलेज में प्राध्यापिका के पद पर कार्य करने लगी तब कॉलेज व सुबह–शाम ट्युशन से आर्थिक बल मिला। बहनों की रुचि पढ़ाई के प्रति न देखकर उनकी डिग्री के बाद ही उनकी शादी करवा दी थी। भाई को इंजीनियरिंग में दाख़िला मिलने से बहुत ख़ुश हुई। उसे तो पढ़ते–पढ़ते ही चौथे साल में एक मल्टी नेशनल कंपनी ने लाखों का पैकेज देकर नियुक्त कर लिया गया था। उस रोज़ मेघना घंटों माँ–पिता के फोटो को निहारती रही थी। घंटों अंतःकरण का वार्तालाप चलता रहा था। पूरी रात चेहरे पर हल्की सी मुस्कान और फिर करवट बदलते ही बीती। कुछ ही दिनों बाद जब भाई ने झिझकते हुए अपनी सहपाठिनी से विवाह की बात कही तो जानी-भली लड़की देखकर उसने सहर्ष स्वीकार कर लिया। उन्हें परिणय सूत्र में बँधवा तृप्ति अनुभव की मानो गंगा नहा ली हो। उस समय भाई–बहनों ने मेघना को भी शादी की सलाह दी पर उसने सबकी बातों को नज़रअंदाज़ कर दिया क्योंकि अब उसका जुनून सर चढ़ गया था अपनी मंज़िल पाने को। सुबह–शाम का ट्युशन छोड़ स्वध्याय में जुट गयी। मेंहदी रंग लायी। विश्वविद्यालय में नौकरी लग गई। माँ की फोटो को निहारते हुए मन तड़प–तड़प कर कह रहा था– "अब देख न माँ अब अपनी बेटी का चेहरा, मैं भी प्रोफ़ेसर बन गई।" मसोसते मन की प्रतिछाया आँखों में तैरने लगी और जैसे ही उसने अपनी पलकें ढलकायी आँसू की दो बूँदें रेख़ा छोड़ती हुई गालों से लुढ़ककर नीचे चली गई।
भाई–बहन अपनी दुनिया में रम गए। जब कभी मिलते तो मेघना को घर बसाने की सलाह देते पर मेघना ने पहले ज़िम्मेदारी फिर जुनून और फिर बालों पर उभरती सफ़ेदी देख अपने हर जज़्बात को दफ़न कर दिया था। उसने अपने–आप को किताबों की रोमांचक दुनिया में सिमटा लिया। बस चश्में का नंबर, बालों की सफ़ेदी के साथ बढ़ता रहा।
प्रो. मेघना ने विप्रेन्द्र को पहली बार कॉलेज में प्रिंसीपल से बात करते हुए देखा था। जब वह प्रिंसीपल के कमरे में गई थी तभी उसकी नज़र पतले लंबे खिलखिलाते नवयुवक पर कुछ क्षण के लिए टिक सी गई थी फिर उसे अपनी ही कक्षा में देखकर प्रश्नों की झड़ी लगा दी थी। विप्रेन्द्र ने दो–चार दिनों में ही सबको अपना दोस्त बना लिया था, यहाँ तक कि मेघना को भी। वह चुपचाप उसकी बातें सुनकर मुस्करा देती। वह कक्षा में मेघना की कुर्सी के सबसे क़रीब, आगे वाली कुर्सी पर बैठता। जब सभी विद्यार्थियों को वह कुछ लिखने के लिए देती तब वह अपना काम जल्दी–जल्दी समाप्त कर मेघना से बातें करने लगता। कभी–कभी उसके व्यक्तिगत पहलू को भी छू जाता। मेघना हँसकर टाल जाती। टेबल पर रखी मेघना की किताब, डायरी व पेन को बिना पूछे ही उठा लेता। वह कुछ नहीं कहती। बल्कि आत्मिक व्यवहार को महसूस ज़रूर करती। एक दिन भाई के आ जाने से जब मेघना कॉलेज नहीं जा पाई तो दूसरे दिन विप्रेन्द्र ने आधिकारिक रूप से पूछा– "कल क्यूँ नहीं आयीं?" मेघना ने लिखना बंद कर उसे नीचे से ऊपर तक देखा फिर मुस्काती हुई सिर झटक दिया। उसका आधिकारिक पूछना मेघना को बहुत अजीब लगा पर उस आधिकारिक वार्तालाप का सुखद एहसास उसे रात भर सहलाता रहा था। विप्रेन्द्र की छवि उसके सामने तैरती हुई अनायास मुस्कान बन उसके चेहरे पर पसर गयी थी।
कक्षा में पढ़ाते समय किताब के पन्ने को पलटते हुए जब भी मेघना की नज़रें फिरती हुई विप्रेन्द्र की ओर जातीं तब वह विप्रन्द्र के मुस्काते चेहरे को अपनी ओर एकटक निहारते हुए ही पाती और फिर धड़कनें बढ़ जातीं, मन मुस्काता और सारे परिदृश्य को मन में समेटकर नज़रें घूमा लेती। एक दिन चश्में को पल्लू से साफ़ करते देख विप्रेन्द्र ने कहा– "लैंस क्यूँ नहीं लगातीं? बार–बार चश्मा पोंछने के झंझट से बच जाएँगी। जब देखो तब चश्मा ही पोंछती रहतीं हैं।"
"चुप, चलो आगे लिखो।" हँसकर कहते हुए मेघना ने उसे चुप तो करा दिया पर उसकी बातें ज़ेहन में घुस हलचल मचाने लगी। उसी दिन कॉलेज से घर आती हुई रास्ते में चश्में की दुकान देख अंदर जाकर लैंस का सेट आँखों में लगा, फ़्रेम में फँसे अंडाकार शीशे में अपने चेहरे का नया रूप देख अचंभित हो गई। घर आकर भी कई बार अपने चेहरे को आइने में देखकर गालों को सहलाते हुए निहारा। दूसरे दिन कॉलेज में सभी ने बहुत अच्छी प्रतिक्रिया दी पर उसकी नज़रें तो मानो विप्रेन्द्र की प्रतिक्रिया की ही प्यासी थीं।
जब कक्षा में घुसते ही विप्रन्द्र ने कहा– "वाओ मैम क्या गज़ब लग रहीं हैं।" तब भले ही मेघना ने कुछ नहीं कहा हो पर उसका रोम–रोम पुलकित हो उठा। विप्रेन्द्र की चपलता भरी बातें बतरस लगती। धीरे–धीरे वे मित्र–तुल्य बातें करने लगे। अनुशासन प्रिय मेघना बच्चों को इधर–उधर की बातें करने से डाँटती रहती थी पर विप्रेन्द्र इसका अपवाद बन गया, न केवल कक्षा में ही बल्कि बरामदे, प्रांगण, पुस्तकालय व प्रयोगशाला में भी जब उनका सामना होता तब उसके चेहरे पर स्मित आभा बिखर जाती।
कल ही तो कहा था विप्रेन्द्र ने– "मैम भूख लगी है, समोसा खिलाइए न।" और दोनों ने कैंटीन में चाय समोसे खाये। समोसा खाते हुए विपेन्द्र ने कहा था– " आप डाई क्यों नहीं लगाती हैं? सभी लोग तो लगाते है, क्या ज़रूरत है उम्र से बड़ी दिखने की।" मेघना ने हँस कर कहा – "चुप, पहले समोसा खाओ।"
शाम को घर आकर आइने में देख अपने बालों की सफ़ेदी को बहुत देर तक निहारती रही। पहले तो आइना बस केवल बाल झाड़ने के लिए ही देखती थी। फ़ुरसत के क्षणों में तो उसके हाथों में बस क़लम होती थी या किताब। उसके चेहरे पर चिन्तन धारा झर लगाये मौसम की तरह एकसार धूमिल, सदैव फैली रहती थी पर अब कभी–कभी फटे बादल और बादलों के बीच से चमकते सूरज की झिलमिल आभा दिख पड़ती है।
आज विप्रन्द्र को कहीं न देखकर उसके मन में तरह–तरह की शंकाएँ उभरने लगी हैं। क्यूँ नहीं आया अब तक? कहीं रास्ते में तो…? कहीं तबीयत…? नहीं…नहीं… नाकारात्मक भावों को ढकेलती हुई सिर झटक दे रही है। बहुमूल्य साथी का एहसास कराने वाली किताब आज हाथ में मूल्यहीन सी पड़ी हुई है। उसके पन्ने हवा के झोंको के साथ फड़फड़ा रहे हैं। दिलो-दिमाग़ में उहापोह की धमा–चौकड़ी मची हुई है।
"हाय मैम, मेरे बारे में ही सोच रही हैं ना," कहते हुए विप्रेन्द्र साक्षात प्रकट हो गया। मेघना के दिल की धड़कनें बेक़ाबू हो गयी, मानो रँगे हाथों पकड़ी गई हों। धड़कनों पर लगाम लगाती हुई बोली– "नहीं, एक कहानी पढ़ रही हूँ। उसी के बारे में सोच रही हूँ और तुम, अभी ही आ रहे हो क्या? लगाम ऐसे कस दी कि मन में उफनते बेचैन भाव चेहरे तक पहुँच भी न सके।
"हाँ मैम एकाउंट खुलवाने के लिए बैंक गया था। वहीं बहुत देर हो गई। सोचा आज कॉलेज ही न आऊँ पर मैंने आपके लिए कुछ ख़रीदा है, रहा न गया, लगा आज ही दे दूँ। प्लीज़ बुरा न मानना। यूँ ही ख़रीद लिया," कहते हुए अपने बैग से एक पैकेट निकाल कर मेघना के हाथ में पकड़ा दिया। "मैम इसे घर में ही देखिएगा," कहते हुए दौड़ कर चला गया। मेघना उसका दौड़ना एकटक ओझल होते तक देखती रही। धड़कनों को सुकून मिलता रहा। उसने पैकेट उलट–पलट कर देखा फिर मुस्काती हुई अपने बैग के ऊपरी ज़िप खोलकर उसमें पैकेट डाल सर्र्र् से जीप बंद कर दिया बैग सहलाते हुए ख़ज़ाने की सी आत्म संतुष्टि पूरे देह को रोमांचित करती रही।
घर पहुँचते ही उसने टिफ़िन निकालने के लिए जैसे ही बैग खोला नज़रें पैकेट पर पड़ी। सब काम दरकिनार कर पैकेट ले सोफ़े पर बैठ गई। नाखुन से सैलोटेप खुरचती हुई मंद मुस्कान लिए पैकेट खोलने लगी। काली मेंहदी! काग़ज़ का एक टुकड़ा फिसलकर लहराते हुए नीचे गिरने लगा। नज़रें भी संग–संग लहराती उस टुकड़े पर टिकी रहीं, कुछ लिखा है उस पर "मैम बुरा न मानना प्लीज़ऽऽऽ" और उसके नीचे मुस्काते चेहरे की जीवंत छाप। मेघना की नज़रों के साथ उसके होंठ भी उस मुस्काते चेहरे से उलझ कर मुस्काने लगे। उसने वह पेपर अपने होंठों से लगाकर आँखें बंद कर लीं, फिर उस टुकड़े को अपने धड़कते दिल की धड़कन के क़रीब। वाह रे सुकून धड़कनों की तृप्ति से रोम–रोम संतृप्त।
रात अपना पंख पसारती जा रही है पर मेघना की आँखों से नींद कोसों दूर। कभी पानी पीती तो कभी बाथरूम जाती। चेहरे पर स्मित आभा। तन–बदन पुलकित होता रहा। आख़िरकार उठकर सोफ़े पर बैठ गई और टीवी देखने लगी। देखते–देखते भोर के सुहाने झोंको ने सहलाया तो झपकी लगी। खिड़की से आता तेज़ प्रकाश जब आँखों पर पड़ा तो मिचमिचाती पुतलियों के खुलते ही नज़र दिवार पर टँगी घड़ी की ओर दौड़ी। आठ बज गए। माथा भी भारी। प्रिंसिपल सर को फोन कर दिया कि तबीयत ठीक न लगने के कारण वह कॉलेज नहीं आ पाएगी।
अलसाये हुए ही उठी और केवल आवश्यक काम ही किये। चाय–नाश्ता करके फिर से सोने का मन हुआ। जैसे ही कमरे में गई। दरवाज़े की घंटी बजने की आवाज़ आई। दरवाज़ा खोलते ही– "विप्रेन्द्र तुम?"
"हाँ मैम कॉलेज गया तो पता चला कि आपकी तबीयत ठीक नहीं है, सोचा आपसे मिल लूँ और चला आया। क्या हुआ आपको?"
"नहीं, कुछ ख़ास नहीं सिर भारी लग रहा है।"
"कुछ दवाइयाँ ली?"
"नहीं, ऐसे ही ठीक हो जाएगा। आओ, अंदर आओ।"
"अभी आया," कहते हुए वह वापस चला गया। मेघना उसे जाते देख सोचने लगी, "कहाँ चला गया।"और वापस आकर सोफ़े पर बैठ गई। टीवी चालू कर चैनल बदलने लगी।
"मैम दवा लेने गया था," विप्रेन्द्र ने आते ही दवा देते हुए कहा।
दवा की पत्ती कोने से फाड़कर दवा बाहर निकाली और टेबल पर रखे पानी के जग से काँच के गिलास में पानी उड़ेलते हुए कहने लगा– " मैम बस अभी ही चमत्कार होने वाला है। आपने इधर दवाई ली और उधर मूड फ्रेश। आप इसे खाकर आराम कीजिए। मुझे कॉलेज जाना है नहीं तो मैथ्स मैम मेरा कचूमर बना देगी।"
मेघना को दवा खिलाकर वह कॉलेज के लिए निकल गया। मेघना अंदर कमरे मे आकर लेट गई। विप्रेन्द्र की यादों की आभा उसके चेहरे पर बिखरी रही। कल्पनाओं की उड़ान भरता हुआ मन नींद के आग़ोश में चला गया। गहरी नींद से जब जागी तब मन बिलकुल तरोताज़ा लगा। चेहरे की माँसपेशियाँ खिल उठी। नज़र मेज़ पर रखी काली मेंहदी के पैकेट पर पड़ी। फिर क्या, काटा खोला मेंहदी घोली और लगा ली। मिनटों में मानों मेघना का यौवन आइने में दस्तक देने लगा। बहुत देर तक अपने बालों को सहलाती रही फिर चश्मा उतारकर लैंस की डिबिया खोल लैंस भी लगा लिया। आइने में नव–मेघना को देख मुस्काती अंतःवार्तालाप करती रही।
गर्मागर्म चाय की चुस्कियाँ लेती हुई टीवी चैनलों को दौड़ा रही है पर मन किसी पर भी टिक नहीं रहा, न सिनेमा न समाचार। अंत मे संगीत चैनल का "सुनहरे नगमे" लगाकर छोड़ दी। चाय की चुस्कियों के साथ उसने अपने मन को संगीत में डुबो लिया। रोम–रोम संगीत के स्वर के साथ झनझना उठे। मन के मृदंग से अंतरंग नर्तन करने लगे। दरवाज़े की दस्तक ने विप्रन्द्र के सुबह आने की याद ताज़ा कर दी और मन में फिर वही गुहार काश… और मानो भगवान ने सुन ली।
"तुम?" हल्की मुस्कान बिखेरती हुई मेघना ने कहा।
"हाँ, सोचा आपकी ख़बर लेता चलूँ। सुबह आप बहुत डल लग रहीं थीं। अभी बिलकुल फ़्रेश दिख रहीं हैं और ये क्या अकेले–अकेले चाय? मैं तो समोसे भी लाया हूँ।" अंदर रसोईघर से प्लेट व कटोरी ले आया। कटोरी में इमली की मीठी चटनी उडेलते हुए कहा– "पता है मैम, ये मेरी फ़ेवरेट चटनी है। कॉलेज से आते हुए समोसा खाने का मूड हुआ। दुकान पर जाकर ख़्याल आया कि क्यूँ न आपके लिए भी लेता चलूँ। इस चटनी के साथ खाने से आपका मूड और भी फ़्रेश हो जाएगा। आपकी भी फ़ेवरेट है न ये चटनी? मुझे पता था ज़रूर होगी।"
मेघना चुपचाप मुस्काती हुई विप्रेन्द्र को देख रही है। गंभीरता को चहलक़दमी खिंचती ही है और यहाँ भी खिंचती जा रही है मेघना विपेन्द्र की चपलता से। अनुभव का दायरा बहुत बड़ा होता है, वह अनायास शब्दों को भले ही हृदय में स्थान दे दे पर होंठों तक कभी आने नहीं देता। चटनी में लिपटे समोसे भले ही अंतर्मन को चटपटे करते रहें पर मेघना ने मन की चटपटाहट चेहरे तक आने नहीं दी। दोनों में बहुत देर तक इधर–उधर की बातें होती रहीं, कभी दोस्तों की तो कभी पढ़ाई की ।
विप्रेन्द्र अचानक खड़ा हो गया और कहा– " मैम एक बात कहूँ? बुरा तो नहीं मानेंगी।"
"कहो"
"आप बहुत अच्छी लग रहीं हैं, कॉलेज गर्ल की तरह," कहते हुए दौड़कर बाहर निकल गया। मेघना उसका जाना अपलक, मुस्काती नज़रों से देखती रही। क्या तार छेड़ गया मन में "कॉलेज गर्ल"। जब वह कॉलेज में थी तब तो कभी भी किसी ने ऐसे नहीं कहा। बस एक राजीव था जो कक्षा में चुपचाप उसे देखता रहता था और जब भी दोनों की नज़रें टकराती तो शर्म से झुक जाती या इधर–उधर भटकने लगती। एक मधुर एहसास का तरन्नुम छिड़ा तो था ही पर राग न बन पाया। कॉलेज में वह पढ़ाकू चश्मिश के नाम से ही जानी जाती थी। आज "कॉलेज गर्ल" शब्द सुनकर वह तरन्नुम राग बनकर देह के रग–रग को झंकृत कर रही है। समोसे से लिपटी चटनी की चटपटाहट से हृदय का एकाकीपन मेले के गुलज़ार में बदल गया, मानो मेघना के हाथों में रंग–बिरंगे गुब्बारों का लहराता हुआ गुच्छा हो और वह उनके धागों को मुट्ठी मे पकड़ी इठलाती–इतराती मेला घूम रही हो। रात का खाना भी नहीं खाया। समोसे व चटनी की चटपटाहट ने भूख के एहसास को सुलाए रखा, बस बिस्तर पर पड़ी–पड़ी मधुर एहसासों में भींगती रही। एहसासों की आग़ोश से कब नींद की आग़ोश में चली गयी पता ही नहीं चला। चिड़ियों की चहचहाहट और कोयल की मधुर कूक से नींद हल्की हुई। भोर बहुत सुहानी लगी। वह बाहर निकल कर बहुत देर तक पक्षियों का चहचहाना सुनती रही और उसे महसूस करती रही अपने रोम–रोम में।
कॉलेज में पहुँचते ही सहकर्मियों ने उसके रँगे बाल देखकर "मेघना की छोटी बहन हैं क्या?" कहकर बहुत तारीफ़ की तो किसी ने तल्ख़ मुस्कान भी बिखेरी। मेघना ने किसी की परवाह नहीं की, न तो तारीफ़ से उसका मन पुलकित हुआ और न ही उपेक्षा से मलिन। बस अपनी ही धुन में लगी रही। जब कभी समय मिलता विप्रेन्द्र आकर मिलता, बातें होतीं। कभी–कभी ठहाके भी लगते। नज़रें बहुत कुछ कहतीं पर होंठों पर बस मुस्कान।
अब हर दिन, हर रात सुहानी लगने लगी है मेघना को। एक अलग ही धुन सवार है और वह उसी के तरन्नुम में मदहोश। आज कॉलेज पहुँचते ही पीछे से विप्रेन्द्र भी आ गया। ख़ुशियों भरे लहज़े में कहा, "मैम मुझे कुछ कहना है।"
पल भर में तरह–तरह की आकांक्षाएँ सराबोर करने लगी। अंतर्मन की रोमनी कसमसाहट समेटते हुए बोली– "कहो विप्रेन्द्र क्या बात है।"
"मैम, मैं मुंबई जा रहा हूँ।"
"क्यूँ हीरो बनने का इरादा है?" मज़ाकिया अंदाज़ में कहकर हँसने लगी।
"नो मैम, मेरे पापा का ट्रांसफ़र हो गया है। पापा तो एक महीना पहले ही चले गये है। उन्होंने वहाँ सब पता कर लिया है। एक बड़े कॉलेज में मेरा दाख़िला हो जाएगा। अब मैं वहीं पढ़ूँगा। अभी टीसी भी लेनी है। और भी बहुत सारे काम हैं। आज शाम को ही निकलना है…।"
मेघना चेहरे पर हल्की मुस्कान लिए निश्चेष्ट मन से उसकी बातें सुनती रही और अंत में जबरन होंठ फैलाते हुई बोली– "ये तो बहुत अच्छी ख़बर है विप्रेन्द्र, वहाँ तो बहुत स्कोप मिलेंगे। बेस्ट ऑफ़ लक।" कहकर अंदर आकर अपने कमरे में बैठ गई।
कॉलेज में दिन–भर कोई–न–कोई आता–जाता–मिलता रहा। अपनी भावनाओं पर क़ाबू करती हुई मुस्काती ही रही। कक्षा में घुसते ही विप्रेन्द्र की जगह खाली देख मन चिंघाड़ उठा। लगा चिल्ला–चिल्ला कर रोए। अंतर्मन में टीस रही वेदनाएँ अकुलाने लगी। अकुलाती चिंघाड़ती वेदनाओं को भी मेघना ने अपने चेहरे पर आने की इजाज़त नहीं दी। झरिया के कोयले खदान सी सभी को सामान्य ही दिखी। शाम को घर आते ही बैग को सोफ़े पर रख सीधे अंदर कमरे में जाकर बिस्तर पर ठहर गई। दिमाग़ का नियंत्रण छूट गया। होंठ सिसकने लगे। आँखों से धार फूट पड़ी। बहुत देर तक सिसक–सिसक कर रोती रही। कोरों से बहने वाले आँसू तकिया सोखता रहा। आँखों में लगे लैंस किरकिराने लगे। उसे बाहर निकाल दिया और फिर वैसे ही औंधे मुँह तकिये पर पड़ी रही। कभी चीखती, कभी सिसकती, कभी दहाड़ती तो कभी बिलकुल शांत। इस रात भी नींद कोसों दूर है। ख़ुशी व ग़म, बच्चे व बूढ़े सा एक समान पर अंतर तो घायल की गति घायल जाने।
मेघना उठी, कोयल की कूक व चिड़ियों की चहचहाहट सुनकर मुस्कायी पर उसकी झंकार आज रग–रग में न समा पायी। बिना इजाज़त कोई नहीं समा सकता है। घर के दैनिक कार्य यंत्रवत भावहीन ही पूरे किये। आलमारी से बिना चुने ही एक साड़ी निकालकर पहन ली। ड्रार खोलते ही नज़र चश्मे के बक्से के साथ–साथ काली मेंहदी के फटे पैकेट पर पड़ी। मेंहदी समेत पैकेट डस्ट्बिन में फेंक दिया। बक्से से चश्मा निकालकर उसपे पड़ी धूल रुमाल से साफ़ करके लगाया और ताला बंद कर कॉलेज के लिए निकल गई।
1 टिप्पणियाँ
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Kahani "KASE KAHUN"me Upma alankar ke jariye aap mere Ghar tak pahunch gayeen.Thanks ,bhabhiji.