लकड़हारिन
गोलेन्द्र पटेल(बचपन से बुढ़ापे तक बाँस)
तवा तटस्थ है चूल्हा उदास
पटरियों पर बिखर गया है भात
कूड़ादान में रोती है रोटी
भूख नोचती है आँत
पेट ताक रहा है ग़ैर का पैर
ख़ैर जनतंत्र के जंगल में
एक लड़की बीन रही है लकड़ी
जहाँ अक़्सर भूखे होते हैं
हिंसक और खूँखार जानवर
यहाँ तक कि राष्ट्रीय पशु बाघ भी
हवा तेज़ चलती है
पत्तियाँ गिरती हैं नीचे
जिसमें छुपे होते हैं साँप बिच्छू गोजर
ज़रा सी खड़खड़ाहट से काँप जाती है रूह
हाथ से जब जब उठाती है वह लड़की लकड़ी
मैं डर जाता हूँ . . .!