लेबर चौराहा और कविता
प्रभांशु कुमारसूर्य की पहली किरण
के स्पर्श से
पुलकित हो उठती है कविता
चल देती है
लेबर चौराहे की ओर
जहाँ कि मज़दूरों की
बोली लगती है।
होता है श्रम का कारोबार
गाँव-देहात से कुछ पैदल
कुछ साइकिलों से
काम की तलाश में आये
मज़दूरों की भीड़ में
वह गुम हो जाती है
झोलों में बसुली,साहुल हथौड़ा
और अधपकी कच्ची रोटियाँ
तरह-तरह के श्रम सहयोगी औज़ार
देख करती है सवाल
सुनती है विस्मय से
मोलभाव की आवाज़ें
देखती है
आवाज़ों के साथ मुस्कराता
शहर का असली आईना
कविता न उठाती है हथियार
न लहराती है परचम
वह धीरे-धीरे
मज़दूरों की हड्डियों में समाकर
कैलशियम बन जाती है।