लालबुझक्कड़ का मार-बेलौस प्रपंच
डॉ. कुमारेन्द्र सिंह सेंगर
सुबह की सैर को कॉलोनी के अन्दर बने पार्क का चक्कर लगाया जा रहा था। हरी-भरी मुलायम घास पर बिखरी ओस का आनन्द पंजों के द्वारा पूरे शरीर को मिल रहा था। मंद-मंद चलती हवा से मन-मष्तिष्क तरो-ताज़ा महसूस कर रहा था। सुबह-सुबह के उस गुलाबी से वातावरण में अचानक से किसी चीखने जैसी कर्कश ध्वनि ने अवरोध पैदा किया, “अरे भाईसाहब, जल्दी से मेन गेट पर पहुँचिये, आपके लालबुझक्कड़ ने लाइव नाटक फैला रखा है।” इससे पहले कि हम अपनी चहलक़दमी रोक कर उस ध्वनि को उत्पन्न करने वाले व्यक्ति से कुछ पूछताछ कर पाते, वह प्रकाश की गति से कॉलोनी की गली के मोड़ पर प्रविष्ट होकर ग़ायब हो गया। ख़ुद को पार्क के बाहर धकेलते हुए से सोचने लगे कि पता नहीं इस लालबुझक्कड़ ने क्या गुल खिला दिया?
चलिए, आगे की कोई और बात बाद में, पहले लालबुझक्कड़ से आपका परिचय करवा दें। पहली जानकारी आप लोगों के लिए ये कि लालबुझक्कड़ और कोई नहीं बल्कि हमारी छोटी सी कॉलोनी के एक सदस्य हैं और दूसरी जानकारी यह कि ये इनका असली नाम नहीं। इनका असली नाम तो है लालता बाबू कक्कड़। अब ऐसे में सवाल उठता है कि असली व्यक्ति के असली नाम के बजाय उसका एक नक़ली नाम बनाने की ज़रूरत क्यों पड़ गई? दरअसल ये महाशय अपने आपको सर्वज्ञ समझते हैं, सोचते हैं कि प्रत्येक काम को पूरा करने में इनको महारथ हासिल है। ख़ुद को ज्ञानी तो इस क़द्र समझते हैं कि कठिन से कठिन शब्दावली का प्रयोग करते हुए इधर-उधर दौड़ते रहते हैं। प्रत्येक समस्या का समाधान निकालने की कथित स्व-विशेषज्ञता रखने के कारण इनकी कार्य-प्रणाली और इनके नाम को लेकर हम कुछ मित्रों ने अपना ही कोड-वर्ड बना रखा है। ‘वेल ट्राई बट काम न आई’ की कार्य-प्रणाली कोडिंग के साथ ‘लालता बाबू कक्कड़’ को कर दिया ‘लालबुझक्कड़’!
इतना विश्वास था कि हमारे लालबुझक्कड़ द्वारा मार-पिटाई जैसी स्थिति भी पैदा नहीं की जा सकती है। हाँ, पिटाई जैसे हालात से दो-चार अवश्य हो सकते हैं। ये विश्वास इसलिए बना हुआ था क्योंकि जब कभी भी ऐसी स्थिति उत्पन्न हुई तो बेचारे लालबुझक्कड़ मार खा लिए मगर किसी की पिटाई नहीं कर पाए। मार खाने का भी उनका अपना एक गौरवशाली इतिहास है। दर्जनों बार मार खाकर अलंकृत होने के बाद भी हरकतों में कोई सुधार नहीं हुआ है। जबरिया उलझ पड़ने की आदत बदस्तूर जारी है। विश्वास होने के बाद भी जल्दी-जल्दी मेन गेट की तरफ़ बढ़े जा रहे थे। वहाँ पहुँचने पर लालबुझक्कड़ की जगह उनकी गले में फँसी-फँसी आवाज़ से सामना हुआ। “यह क़तई स्वीकार नहीं है। कार्य-संस्कृति का, कार्यालयीन संस्कृति का तो ध्यान ही नहीं रखा जा रहा है। समिति अपना काम सही ढंग से नहीं कर रही है। यदि सब कुछ ऐसे ही चरमोत्कर्ष पर चलता रहा तो उच्चाधिकारियों को शिकायत प्रेषित कर दी जाएगी।” आवाज़ के सहारे आगे बढ़कर देखा तो हमारे लालबुझक्कड़ इधर-उधर हाथ-पैर फेंकते-फटकारते हुए भाषण वाले अंदाज़ में बकबकाने में लगे हुए हैं।
“आख़िर कॉलोनी के पार्क को व्यवस्थित करने वाली समिति से उनको बिना सूचना दिए क्यों हटाया गया? इसके लिए हमारी कॉलोनी की मुख्य समिति आरोपी है। यह अपराध है, अनुशासनहीनता है, उत्तरदायित्वहीनता का परिचायक है।” कॉलोनी के कई सदस्यों सहित वहाँ के गार्ड द्वारा हँसते-मुस्कुराते लालबुझक्कड़ की नौटंकी की रिकॉर्डिंग, लाइव प्रसारण किया जा रहा था। कुछ सदस्य रुक कर नज़ारा देखने में गए थे तो कुछ चलते-फिरते अनपेक्षित भाषण का आनंद उठाने में लगे थे।
असल में लालबुझक्कड़ देश की राजनीति में सक्रिय योगदान करने की अपनी इच्छा को कॉलोनी की राजनीति के द्वारा पूरा करने में लगे थे। मुख्य समिति के ख़ासमख़ास बनकर उनके द्वारा कुछ न कुछ जुगाड़ लगा लिया जता और उनके अपने आर्थिक हित सध जाते। कभी पार्क के सुन्दरीकरण के नाम पर, कभी घास को व्यवस्थित करने के नाम पर, कभी पार्क में टहलने वालों की सुरक्षा के नाम पर सीसी कैमरों को लगवा पर, कभी ड्रोन के द्वारा औचक निरीक्षण करवाने के नाम पर लालबुझक्कड़ अपना पेट भरते रहते। इस पेट भरने की प्रक्रिया में जैसे ही कोई अवरोध आता, लालबुझक्कड़ हताश-निराश होकर किसी न किसी बहाने मुख्य समिति को आरोपित करने लगते। उनकी आत्मा की तरह ही उनके कंधे से लटके बैग से तत्काल काग़ज़-पेन निकलता और त्वरित गति से नोटिस तैयार होने लगता। इसके लिए उनको किसी ऑफ़िस की, किसी मेज़-कुरसी की, किसी स्थान विशेष की आवश्यकता नहीं होती। बस, उनके मन का नहीं हुआ, नोटिस-लेखन शुरू।
एक हाथ में काग़ज़ लिए, दूसरे हाथ से कंधे पर लटके बैग को सँभालते हुए लालबुझक्कड़ ने जैसे ही हमारी तरफ़ देखा, एकाएक उनके रेडियो का वॉल्यूम कम हो गया। हमें देखकर लालबुझक्कड़ की सभी सुरों पर गुज़रती-ठहरती आवाज़ रुकी और पानी के घूँट के सहारे दोबारा लय पकड़ती इससे पहले उनको शांत रहने का इशारा किया। लालबुझक्कड़ हमारी आँखों का इशारा मात्र समझते हुए अपने चतुर-सुजानों का दामन थामकर किनारे सरक लिए।
हमें अब देश की राजनीति में और कॉलोनी की राजनीति में साम्य दिखने लगा। देश की राजनीति में भी आरोप लगाये जा रहे हैं, सबूत माँगे जा रहे हैं। कॉलोनी की राजनीति में भी आरोप लगाये जा रहे हैं। लालबुझक्कड़ का असली मुद्दा पार्क की व्यवस्था का हस्तांतरण किया जाना नहीं है। असल मुद्दा तो कॉलोनी के उच्चस्तरीय कार्यों में लालबुझक्कड़ के चतुर-सुजानों को वरीयता न दिया जाना है। इसे लालबुझक्कड़ ने अपनी प्रतिभा की, अपने ज्ञान की, अपनी राजनीति की हार समझी। और सच भी है, आख़िर जिस व्यक्ति ने राजनीति करने की आकांक्षा के साथ आँखें खोली हों, तमाम पड़ावों पर मार-ग्रस्त होने के बाद भी ख़ुद को ख़ुराफ़ातों से दूर नहीं रखा वो व्यक्ति एक झटके में कॉलोनी की राजनीति में ख़ुद को पराजित कैसे मान ले?
2 टिप्पणियाँ
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अंतरराष्ट्रीय पत्रिका 'साहित्य कुंज' में प्रकाशित डॉ कुमारेन्द्र सिंह सेंगर जी का व्यंग्य लेख - 'लाल बुझक्कड़ का मार - बेलौस प्रपंच' उन लोगों पर करारा तमाचा है जो हर बात में अपनी ही बात को आगे रखते हैं। दुर्भाग्य से हर मुहल्ले में एकाध नमूने ऐसे पाए जाते है। ये एक तरह से अतृप्त आत्माएं होती हैं जो अपनी इच्छा पूरी न होने पर यूं ही भटकते रहते हैं। वे मानते हैं कि अमुक क्षेत्र में हम बहुत कुछ कर सकते थे पर कर नहीं पाए , अथवा मौका नहीं मिल पाया है अथवा मौका तो मिल गया था पर फलां फलां ने अपनी टांगें अड़ा दी। ये सारे अथवा उनकी अधूरी ख्वाहिशों को कचोटते रहते हैं। इन ख्वाहिशों को पूरा करने के लिए वे हर एक के सामने भाषणबाजी करते रहते हैं। कभी-कभी इस एवज में मार भी खा जाते हैं। पर अपनी हरकतों से बाज नहीं आते हैं। इन महाशयों को लाल बुझक्कड़ कहना अतिशयोक्ति नहीं है। बुंदेलखंड में अंधों में काना राजा को लाल बुझक्कड़ कहा जाता है। अंधों के बीच वे अपने गैरकूत के तर्कों से खुद को बुद्धिमान समझ लेते हैं। और जब कोई समझदार व्यक्ति उसके सामने आ जाता है तो उसकी बोलती बंद हो जाती है। समाज में लगातार बढ़ रहे लाल बुझक्कड़ों के लिए यह सटीक व्यंग्य है। बढ़िया व्यंग्य के लिए साहित्यकार को बधाई।
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बेहतरीन व्यंग्य बढ़िया प्रवाह