कुर्सी और आदमी
निर्मल गुप्तगहरे भूरे रंग की जिल्द वाली
आरामदेह कुर्सी पर पसर
मुतमईन है वह
उसकी आँखें खोज रही हैं
कुर्सी को रखने के लिए
उचित उपयुक्त और निरापद जगह।
कुर्सी का मिल जाना
एक खूंखार सपने की शुरुआत है
वह कुर्सी के पीठ पर टँगे तौलिये से
पोंछता जा रहा है हाथ
रंगे हाथों पकड़े जाने का अब कोई ख़ौफ़ नहीं।
कुर्सी में लगे हैं पहिये
घूमने की तकनीक से है लैस
वह उसके हत्थे को कस कर थामे है
उसे पता है कि कुर्सियाँ
अमूमन स्वामिभक्त नहीं होती।
कुर्सी पर मौक़ा ताड़कर पसर जाना
फिर भी है काफ़ी आसान
लेकिन बड़ा जटिल है
उसे अपने लायक़ बनाना
बड़ा मुश्किल है कुर्सी को
घोड़े की तरह सधा लेना।
कुर्सी पर बैठते ही आदमी
घिर जाता है उसके छिन जाने की
तमाम तरह की आशंकाओं से
इस पर बैठ जाने के बाद
वह वैसा नहीं रह पाता
जैसा कभी वह था नया नकोर।