किसान
सुनीता बहलकिसान गूँजता है,
सत्ता के गलियारों में,
क़िस्सा होता है,
इसका चौराहों में, बाज़ारों में।
रैलियों में लगते हैं,
जिसके नाम के नारे,
तरसते हैं दो जून की रोटी को
ये बेचारे।
किसानों की दुर्दशा सुना गलियाँ-गलियाँ,
नेता लूटते हैं,
ख़ूब लोगों की तालियाँ।
देते हैं फिर ये नेता
कई नये आश्वासन,
ताकि चलता रहे हमेशा,
इनका शासन।
किसानों के लिए
नई योजनाओं का सुना क़िस्सा,
बदल देते हैं, नेता
चुनावों की दिशा व दशा।
अन्नदाता फिर सिर्फ़ बनता है,
मज़ाक का पात्र,
क्योंकि हक़ीक़त नहीं,
हैं ये सिर्फ योजनाएँ मात्र।
इस शोरगुल में फिर एक,
किसान हो जाता है इतना नाउम्मीद,
जीवन की डोर ख़ुद ही तोड़,
सो जाता है ख़ामोशी से लम्बी नींद।
चुनावी वादों की हेडलाइन के साथ
हाशिये में छपती,
फिर किसी किसान की
ख़ुदकुशी की ख़बर।
सत्ता के शोरगुल में शायद ही,
पड़ती हो उस ख़बर पर किसी की नज़र।