ख़ानाबदोशी

15-02-2020

ख़ानाबदोशी

महेश पुष्पद (अंक: 150, फरवरी द्वितीय, 2020 में प्रकाशित)

दिन इधर हुआ तो 
रात उधर हो गई,
अब तक ख़ानाबदोशी में, 
ज़िन्दगी बसर हो गई।


ये न पूछो हमसे कि
हमारा घर कहाँ है?
वहीं घर कर लिया,
जहाँ क़दर हो गई। 


मेरी हर अच्छाई को 
भूल गया वो शख़्स,
जिसको मेरी एक ही 
कमी नज़र हो गई।


अपनों के सपनों की क़ीमत,
चुकाते रहे कुछ इस क़दर,
कि सोये नहीं कई रात,
और सहर हो गई।


अपनों की फ़िक्रमंदी का 
एक फ़ायदा ये हुआ,
कि ज़िन्दगी हमारी
बेफ़िकर हो गई।


अरमानों की बस्ती में,
कुछ यूँ चली आँधियाँ,
इमारतें ख़्वाहिशों की,
सब खण्डहर हो गई।


मैं पीता रहा समझकर 
जिसको हसीं मय का प्याला,
होश आया तो जाना वो 
ज़िन्दगी ज़हर हो गई।

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