बचपन का ज़माना
महेश पुष्पदरोज़ाना साँझ ढलते ही
दिल का उदास होना,
वो गुज़रे हुए लम्हों को
याद करके रोना,
वो रातों को बिस्तर पर
पहेलियाँ बुझाना,
वो छोटी सी बातों पर
रूठना-मनाना।
छोटी सी ज़िद के लिए
घंटों तक रोना,
माँ के न जगाने तक
बिस्तर पर सोना,
अब ज़िन्दगी की लहरों में
कलकल नहीं है,
अब प्रेम माँ के प्रेम सा
निश्छल नहीं है।
खेल-खेल में लड़ते-झगड़ते,
फिर मान जाते,
ऐ क़ाश कि इस बचपन को हम,
पहले जान जाते,
नहीं पता था बचपन एक दिन,
पचपन में ले जायेगा,
उपहारों में गुज़रे कल की,
बस यादें दे जायगा।
वो भी एक दौर था,
जब मन के मौजी थे,
गाँव की गलियों के,
हम आवारा फौजी थे,
घर की छोटी सी दुनिया में,
अपना भी हुक़्म चलता था,
हँसते मुस्कुराते -
हर दिन ढलता था।
अब चेहरे बेवज़ह यारों के
खिलते नहीं हैं,
दोस्त भी पुराने अंदाज़ में
अब मिलते नहीं हैं,
गाँव से दूर जीवन
कैसे बिताया है,
आज यहाँ आया हूँ,
तो दिल भर आया है।