ख़ैबर दर्रा-संग्रह की कहानियाँ बहुत देर तक साथ बनी रहती हैं
अनीता सक्सेना
समीक्षित पुस्तक: ख़ैबर दर्रा (कहानी संग्रह)
लेखक: पंकज सुबीर
प्रकाशक: राजपाल एंड सन्ज़, नयी दिल्ली
मूल्य: ₹325/-
पृष्ठ-176
प्रकाशन वर्ष: 2025
पंकज सुबीर की कहानियाँ जाति-धर्म के अंतर को महत्त्व न देकर मानवीय रिश्तों को अहम् स्थान देती हैं। इस संग्रह की अधिकतर कहानियाँ इंसान की उस कमज़ोरी को लेकर लिखी गई हैं जो ईश्वरीय देन होती हैं, अर्थात् इसमें उस बच्चे की या उन माँ-बाप की ग़लती नहीं होती जिन्होंने उसे जन्म दिया है। ये कमज़ोरी क़ुदरतन होती है। इंसान की यह शारीरिक कमज़ोरी जिसको लेकर मन में कई गाँठें पल जाती हैं और ज़िन्दगी भर पीछा नहीं छोड़तीं, ऐसी कई कमज़ोरियों पर संग्रह की कुछ कहानियाँ हैं, जैसे: निर्लिंग, देह धरे का दंड और हरे टीन की छत। बच्चे जो जन्म से या फिर परिस्थितिवश कुछ शारीरिक समस्याओं से पीड़ित हो जाते हैं, उनका मर्म पंकज सुबीर ने कहानी के माध्यम से पाठकों तक पहुँचाया है। पहले समाज में ऐसी बातों को छुपाया जाता था, जिसके कारण बच्चे भी और परिवार के लोग भी बहुत तकलीफ़ झेलते थे लेकिन आज इन पर खुलकर बातें की जाने लगी हैं। थर्ड जेंडर को भी समाज में एक उचित स्थान मिलने लगा है। वे शर्मिंदगी को परे त्यागकर पढ़-लिखकर आगे आ रहे हैं और अच्छी नौकरी भी पा रहे हैं। ‘देह धरे का दंड’ और ‘निर्लिंग’ इसी प्रकार की समस्या तो बताती हैं लेकिन उसमें इन लोगों के ऊपर किये जा रहे शोषण का वीभत्स चेहरा भी सामने लाती हैं।
पंकज सुबीर की कहानियों में चाहे प्रकृति का वर्णन हो या घर का, होटल का या जंगल का, बहुत विस्तार लिये होता है। ‘देह धरे का दंड’ में अस्पताल का वर्णन, या ‘बीर बहूटियाँ चली गयीं’ में जंगलों का, स्कूलों का कॉलेज का, हर जगह लेखक की दृष्टि बहुत पैनी नज़र आई है। यहाँ तक कि स्टेशन पर वेटिंग रूम में बैठे दो लोगों और स्टेशन का दृश्य भी आँखों के सामने एक खाका-सा खींच देता है।
एक और विशेष बात मुझे नज़र आई, वह भी पुस्तक की शीर्षक कहानी ‘ख़ैबर दर्रा’ में कि यहाँ कहानी में नया प्रयोग है, यहाँ पात्रों के नाम नहीं हैं, उन्हें पहला युवक या दूसरा युवक, युवती या उस आदमी के नाम से ही पुकारा है और कहानी आगे बढ़ती चली गई है। इस कहानी की शुरूआत तो एक मानसिक कुटिलता लिए गंदे विचार से हुई है, लेकिन अंत मानवीय चेतना के जाग्रत होने के साथ हुआ है, जो पढ़ने में अच्छा लगता है।
‘बीर बहूटियाँ चली गयीं’ में भी लड़का और लड़की ही केंद्र में हैं, इसको पढ़कर लगता है कि कहानी में इंसान का नाम होना उतना महत्त्वपूर्ण नहीं है जितना कथानक और दो लोगों के बीच की बातचीत। दो बच्चों की मासूमियत का भी चित्रण है इस कहानी में, उनके मन में उठ रहे सवालों का भी और पहाड़ों की कठिन ज़िन्दगी का भी। पंकज सुबीर फ़िल्मी गीतों का प्रयोग भी अपनी कहानियों में बख़ूबी करते हैं और कविताओं का भी। ‘हरे टीन की छत’ कहानी में भी चुने हुए साहित्यकारों की कविताएँ लेकर उन्हें कहानी में पिरोया गया है।
पहली कहानी का नाम भले ही ‘एक थे मटरू एक थी रज्जो’ हो पर यह कहानी जैसा कि लेखक ने कहानी में कहा ‘दास्तान-ए-मटरू मियाँ’ ही है। एक ऐसी दास्तान जिसमें जो होना चाहिए वो हो तो रहा है पर होकर भी नहीं है।
पंकज सुबीर अपने एक अलग तरह के लेखन के लिए जाने जाते हैं। इस संग्रह में भी पहली कहानी की शुरूआत कुछ अलग होती है लेकिन अंत तक आते-आते पाठक कहानी के अनेक शेड से गुज़रते हुए एक मार्मिक दृश्य पर ठहर जाता है। कहानी का नाम है ‘एक थे मटरू मियाँ, एक थी रज्जो'। कभी हँसाती, कभी कुछ सोचने पर मजबूर करती कहानी कहीं-कहीं पर भरपूर व्यंग्य भी करती है।
दो सदियों के मेल को आपने बड़े बढ़िया तरीक़े से जोड़ा है “जब आये थे, बीसवीं सदी थी जो वसंत और बहार की सदी थी अब इक्कीसवीं है जो पतझड़ लेकर आई है” इस एक वाक्य में आपने मटरू मियाँ से लेकर पार्टी और पार्टी कार्यालय तीनों का एक साथ हाल बता दिया है।
आपने इसे आगे नाम दिया है ‘दास्तान-ए-मटरू मियाँ'। क़िस्सा गोई की शैली में मटरू मियाँ की जीवनी से यह कहानी शुरू होती है जो पढ़ते हुए, या कहें कि सुनते हुए चेहरे पर कई बार मुस्कान ले आती है। मसलन उनका नामकरण कैसे हुआ? उनके चारों भाइयों की शक्लों का वर्णन रोचक है “अब्बा जितने मोहर्रम-मोहर्रम थे, अम्मी उतनी ही ईदम-ईद थीं।” यह पढ़कर लगा एक नया मुहावरा बन गया। उसके आगे भी हास्य कई जगह व्यंग्य का साथ लिए मिलता है “ऐसा लगता था मानो इंसान के नाम पर अब्बा नाम की फोटोकॉपी की ब्लैक एंड व्हाइट मशीन से किसी ने चार कॉपी निकाल दी हों”।
मटरू मियाँ की दादी का प्यार अपने बेटे और पोते के लिए इसी व्यंग्यतम और हास्य का पुट लिए शैली से उमड़ता है “उनका बेटा यानी मटरू मियाँ के अब्बा उनके लिए चाँद का टुकड़ा थे। शायद वो उस ग्रह से आईं थीं जहाँ चाँद काले होते होंगे”। इसी तरह मटरू मियाँ जो निहायत गोरे-चिट्टे थे उनके लिए “उनकी अम्मी मटरू मियाँ का शाही स्नान महीने में एक-दो बार ही कर पाती थीं, इसलिए मटरू मियाँ महीने में एक-दो बार ही अंग्रेज़ के बच्चे लगते थे” कहानी का हर वाक्य इसी तरह की उपमाओं और हँसी से भरा हुआ है। मटरू मियाँ का यह गोरापन उन्हें महल्ले की तमाम झाँकियों में कभी राम तो कभी कृष्ण बनाया करता था यहाँ तक कि वो सीता और द्रौपदी भी बन जाते थे। उनकी माँग हर कहीं थी। आयोजक उन्हें सुबह ही आकर बता जाते थे कि आज अच्छे से नहा लेना तुम्हें सीता या द्रौपदी बनना है।
मटरू मियाँ के थोड़े बड़े होने के बाद कहानी अपना रूप बदलती है। यहाँ किरदार आता है डी.डी.टी. का यानी दुर्गा दास त्रिपाठी, ढोलक वादक दामोदर और रज्जो का। ये चार किरदार ही इस कहानी के मुख्य पात्र हैं जो आपस में जब मिलते हैं तो एक नई कहानी को जन्म देते हैं। कहानी मटरू मियाँ से हटती तो नहीं लेकिन राजनीति के दंगल में उतर जाती है। पत्रकारिता, राजनीति और कूटनीति तीनों मिलकर शतरंज का खेल खेलते हैं। इस खेल में शतरंज के मोहरों की तरह इंसान को मोहरे बनाकर शतरंज खेली जाती है। खिलाने वाला बेदाग़ बचकर तीनों को उलझा देता है और अंत में मटरू मियाँ को उनका परिवार छोड़ देता है, डी.डी.टी. संसार छोड़ देते हैं बाक़ी दामोदर और रज्जो दोनों अपने-अपने परिवारों में लौट जाते हैं। एक बार फिर से कार्यालय और मटरू मियाँ एक जैसी खंडहर वाली स्थिति में आ जाते हैं। यहाँ पर दास्तान-ए-मटरू मियाँ का दर्दनाक अंत होता है और उस अंत की रिपोर्ट देने वाली पत्रकार पाठक के मन में देर तक हलचल मचाती रहती है यही इस कहानी की सफलता है।
एक बहुत बढ़िया कहानी लगी ‘आसमां कैसे-कैसे’। यह पुस्तक की एकदम अलग मिज़ाज की कहानी है जो हमें उस काल में ले जाती है जब लोग अपने वचन के पक्के हुआ करते थे। लोग अमीर होते थे लेकिन जितने पैसों से, उससे ज़्यादा अपने दिलों से। इस कहानी में माँ साब, माया, राठी जी और सेठ राघवदास जी के निर्णय देर तलक याद रह जाने वाले हैं। बहुत बढ़िया कहानी है यह।
इस संग्रह की कहानियाँ बहुत देर तक साथ बनी रहती हैं। संग्रह की कहानियों में लगभग हर विषय पर बात की गयी है। अलग-अलग विषय की कहानियों को समाहित किये हुए यह संग्रह कई सारे सवाल छोड़ जाता है। वे सवाल जिनका उत्तर जानना बहुत आवश्यक है। एक अच्छे संग्रह के लिए लेखक को बधाई।
अनीता सक्सेना
ईमेल-anuom2@gmail.com