कविता के बहाने सार्थक जीवन की तलाश

15-11-2025

कविता के बहाने सार्थक जीवन की तलाश

डॉ. विजय शंकर मिश्र (अंक: 288, नवम्बर द्वितीय, 2025 में प्रकाशित)

समीक्षित कृति: सुगंध भी एक भाषा है (कविता-संग्रह) 
कवयित्री: अंजना वर्मा
प्रकाशक: श्वेतवर्णा प्रकाशन, नई दिल्ली
पृष्ठ: 127, 
मूल्य: ₹249

कविता जीवन की व्याख्या भी है, जीवन का दर्शन भी, जीवन का सौंदर्य भी और जीवन की सर्वोत्तम प्रगति की राह भी। शब्दों से जीवन को कहाँ तक समझा जा सकता है, इसकी गहरी समझ की कवयित्री अंजना वर्मा की ताज़ा प्रकाशित पैंसठ कविताओं का संग्रह अभी हमारे हाथ में है। इसका शीर्षक देखकर चमत्कृत भी हूँ और बार-बार यही भाव मन में आता है कि ‘सुगंध भी एक भाषा है’ जैसे शीर्षक को काव्यात्मक कहा जाए अथवा दार्शनिक। सुगंध पर एक नहीं, अनेक आयामों के साथ इस संग्रह में कवयित्री के भाव प्रकट हुए हैं। इससे पहले के प्रकाशित उनके छह कविता-संग्रहों को भी हमने देखा और पढ़ा है। लेकिन ‘सुगंध भी एक भाषा है’ तक आते-आते कविता का तेवर और मिज़ाज मेरी दृष्टि में कुछ भिन्न-सा हो गया है। यहाँ तक कि कवयित्री दर्शन और यथार्थ के मध्य अपने स्वत्व को उभरने की कोशिश में सफल हो गई-सी लगती है। इनके भावात्मक-दार्शनिक होने का सबसे बड़ा प्रमाण इन्हीं की भूमिका में देखिए। लिखती हैं—“जब मैं सिर्फ़ कविता के साथ अंतरंग क्षणों में होती हूँ तो यह महसूस करती हूँ कि वही मुझे रच रही है। कविता को रचने की शक्ति मुझ में नहीं है। मैं कविता को शब्दों का ढेर नहीं मानती। मैंने उसे केवल शब्दों में ही नहीं देखा है; बल्कि उसे माँ माना है। उसने मेरे अंतस में उस कवि-चेतना को जन्म दिया है, जो बचपन से मेरे आभ्यंतर में समाई मेरे भावों का पोषण करती हुई उसे सँवारती रही है। यही मेरे आठों पहर की सहचरी और मेरी आंतरिक शक्ति है।”

अंजना वर्मा की चिंता उस वर्ग और समाज के प्रति ज़्यादा है जो दलित है, उपेक्षित है, जिसका सपना रोज़ बनता है, रोज़ काँच की तरह समय के पत्थर से टकराकर चूर-चूर हो जाता है। वह वर्ग आज़ादी के इतने दिन बीत जाने के बाद भी सुख की तलाश में भटक रहा है। दुर्दिन की धुँध से बाहर वह वर्ग आज तक नहीं निकला। ऐशोआराम की ज़िन्दगी जीने के अरमान पर वज्रपात होता रहा। किसी-न-किसी उपाय के प्रयास व्यर्थ हो रहे हैं। अंजना वर्मा केवल उस वर्ग के प्रति सहानुभूति ही नहीं दर्शातीं, बल्कि प्रश्नचिह्न खड़ा करती हैं, 
“हमने तुमसे कोई शिकायत नहीं की/झुग्गियों में हँसकर काटते रहे ज़िन्दगी/तुम्हारी महँगी गाड़ियों की सैर के लिए/हम व्यस्त रहे/ चिकनी सड़कों की कालीनें बिछाने में/तुम्हारे फ़रमान पर स्वादिष्ट व्यंजन /भूखे पेट मिनटों में /तुम तक पहुँचाने में/ तुम्हारी सुख-सुविधा के अनुसार/ अपने को ढालने-बनाने में/अपनी ख़ुशियों में हमें/ शामिल भी न होने दोगे?” (घर लौटते हुए) 

“पूरी दुनिया में/ दुखों का बस एक ही चेहरा होता है/ उसे पहचानो/ अब भी तो तोड़ दो ये विभाजक रेखाएँ/ जिनसे कुछ मिला नहीं आज तक/ सिवा नफ़रत, हिंसा और युद्ध के।”

मुक्त होना सरल प्रक्रिया नहीं है। गाँठ बारहा कोशिश करने पर खुली तो जाती है, लेकिन उस गाँठ का पूरा-का-पूरा खुलना तभी सम्भव है जब अंतरंगता में यह बात समझ में आ जाए कि, “नदी मुक्त होती है बहकर/शब्द मुक्त होते हैं मुख से निकलकर/कविता मुक्त होती है किसी के अंतर तक जाकर/शास्त्र ज्ञान मुक्त होता है यथार्थ को छूकर/साधना मुक्त होती है अज्ञेय को जानकर/प्रेम मुक्त होता है अपना सर्वस्व देकर/अहं मुक्त होता है अपनी अहंता खोकर/तुम जहाँ खड़े हो वहीं से अपनी मुक्ति ढूँढो।” (मुक्ति) 

हम समझ सकते हैं कि इस महत्त्वपूर्ण कविता के ज़रिए कविता जीवन को किसी मुक़ाम पर देखना चाहती है। यही गाँठ का खुलना है जिसे आज तक ढोया जा रहा है। 

कुल मिलाकर ‘सुगंध भी एक भाषा है’ कविता-संग्रह एक सुंदर, गंभीर और जीवन-सौंदर्य के यथार्थ से संपृक्त संग्रह है। कोई ज़रूरी नहीं कि किसी संग्रह की सारी-की-सारी कविताएँ अच्छी हों, लेकिन यह भी कोई ज़रूरी नहीं है कि सारी-की-सारी कविताएँ सुंदर और मार्मिक नहीं हों। अतिशयोक्ति से बचते हुए अंजना जी की कविताएँ पढ़ते हुए हमें ऐसा लगता है की कवयित्री के पास अपना एक व्यापक ‘विज़न’ है, कथ्य को पहचानने की पूरी शक्ति है। कथ्य की सुंदरता तब और निखर जाती है जब भाषा का संस्कार और व्यापक हो जाता है। आधुनिक कविता पर एक बड़ा ख़तरा आज यही है कि कई के पास कहने के लिए बहुत-कुछ है, लेकिन कैसे कहना है, किस तरह जनता तक पहुँचाना है—इसका ज्ञान कमज़ोर है। और यही कारण है कि अनगिनत कविताएँ रोज़ लिखी जाती हैं और उसी रफ़्तार में कालकवलित भी हो जाती हैं। प्रतिभा के साथ-साथ पूरा-पूरा अवलोकन सामर्थ्य अंजना जी में है। उनकी कविताएँ आम पाठक और गंभीर पाठक दोनों पसंद करते हैं। वह चाहे ‘मिट्टी की आवाज़’ कविता हो चाहे ‘लौट आओ नदी’ हो, चाहे ‘आधी रात का पेड़’। इस संग्रह की तमाम कविताओं में सुंदर, सम्यक और सार्थक जीवन की तलाश है। इनकी दृष्टि में सुगंध एक सांकेतिक शब्द है जिसका प्रतीकार्थ हम आत्मा भी निकाल सकते हैं। परमात्मा भी निकाल सकते हैं। इनकी सुगंध वह सुगंध है जो अपनी मौजूदगी दूर-दूर तक बता देती है, लिख देती है हवाओं के पन्नों पर ख़ुश्बू से अपना नाम और पता। पुकारने के लिए हमेशा आवाज़ की ज़रूरत नहीं होती। सुगंध भी एक भाषा है। इसीलिए किसी कवि ने कहा है मौन भी अभिव्यंजना है। सुंदर छपाई के लिए श्वेतवर्णा को धन्यवाद। 

संपादक 'सृजन गवाक्ष'
भदई निवास, ब्रह्मस्थान, बालू घाट
मुजफ्फरपुर-842 001
चलभाष-9430460435

0 टिप्पणियाँ

कृपया टिप्पणी दें