कबीर वाणी: आज के सन्दर्भ में
डॉ. देवेन्द्र कुमार
मध्ययुगीन संत काव्य परम्परा के सर्वश्रेष्ठ और युगप्रवर्तक संत कवि तथा समाज-सुधारक कबीर का जन्म सन् 1398 ई. को काशी में हुआ। उस समय भारत पर लोदी वंश का शासन था। सिकंदर लोदी के शासन में हिन्दू समाज की हालत बहुत अच्छी नहीं थी क्योंकि सिकंदर लोदी की अदूरदर्शिता तथा अन्यायप्रियता के कारण प्रत्येक दिन लगभग 150 हिन्दुओं को मौत के घाट उतार दिया जाता था। शासक वर्ग के भोग-विलासपूर्ण जीवन के कारण भारतीय समाज में दुर्व्यवस्था फैली हुई थी। वर्ण-व्यवस्था ने समाज की नींव हिला कर रखी दी थी। शूद्र वर्ण की सब ओर से उपेक्षा की जाती थी। स्वार्थी, चापलूस और धन-लोलुप व्यक्तियों ने निम्नवर्गीय जनता के प्रति उच्च वर्ग के लोगों को ख़ूब भड़काया। वर्णाश्रम-व्यवस्था के नाम पर हिन्दू समाज में विषमता, अज्ञान, भेद-भाव, अन्धविश्वास आदि का बोलबाला था। घमण्ड, मिथ्याभिमान, दुराचार, पाखण्ड, पारस्परिक अविश्वास, विषय-वासना, लोभ, मोह, मद आदि मानसिक और नैतिक विकारों के कारण समाज पतन की ओर जा रहा था। समाज में लोग अपना मानव-चरित्र खोते जा रहे थे। ऐसे में कबीर साहिब ने तत्कालीन समाज के लोगों में चेतना पैदा करने वाली औजस्विनी वाणी से मानव-चरित्र निर्माण की प्रेरणा दी और सामाजिक चरित्र की गिरावटों पर प्रहार किया।
आज के पूँजीवादी युग में चाहे उस युग जैसी परिस्थितियाँ नहीं हैं फिर भी आज का मनुष्य अपनी चारित्रिक विशेषताएँ खोता जा रहा है। इन चारित्रिक गिरावटों की तरफ़ कबीर साहिब ने आज से लगभग छह शतक पूर्व ध्यान दिलाया था। उन की कविता आज भी उतनी ही प्रासंगिक है जितनी उस समय में थी। अंतर केवल इतना है कि उस युग की सामंती व्यवस्था ने अपना रूप बदल कर पूँजीवादी व्यवस्था का बना लिया है। दोनों रूपों में ग़रीब जनता का शोषण होता है। ग़रीब जनता मात्र मज़दूरी और चाकरी करके इनके कोष भर रही है और ख़ुद ही इन के शोषण का शिकार हो रही है। उच्च वर्ग के शोषण करने वाले लोगों को कबीर साहिब ने प्रताड़ित करते हुए कहा:
करै बुराई सुख चहै, कैसे पावे कोय।
रोपै पेड़ बबूल का, आम कहाँ ते होय॥
इन चारित्रिक गिरावटों के कारण पूँजीवादी समाज भी सामंती व्यवस्था की तरह पतन का शिकार हो जाएगा। स्वार्थी लोग शासकों और उच्च वर्ग के लोगों की प्रशंसा में झूठे गीत गाकर अपने हितों की सुरक्षा देखते हैं। ऐसे में सर्वत्र झूठ का बोलबाला होता है। सत्य का प्रचलन कम होता जा रहा है। कबीर ने दृढ़ता के साथ सत्य को ईश्वर से जोड़ते हुए कहा था:
साँच बरोबर तप नहीं, झूठ बरोबर पाप।
जाके हिरदय साँच है, ताके हिरदय आप॥
सच बोलना सबसे बड़ी तपस्या है। कबीर जी के अनुसार सत्य बोलने वालों के हृदय में ईश्वर बसता है। झूठ के प्रचलन का कारण सत्य पर से उठता जा रहा विश्वास है। सत्य पर कोई विश्वास नहीं करता, झूठ पर तुरंत विश्वास कर लिया जाता है, क्योंकि इसमें स्वार्थ होता है। आज सत्य पर अविश्वास करके झूठ पर विश्वास किया जा रहा है। ठीक उसी तरह जैसे अमृत तुल्य दूध को गली-गली घूम कर बेचना पड़ता है और विष तुल्य शराब दुकान पर बैठै-बैठे बिक जाती है। यह चारित्रिक गिरावट ही तो है। कबीर जी लोगों को सत्य की राह पर लाने के लिए ईश्वर का भय दिखाते हुए कहते हैं:
साहेब के दरबार में, साँचे को सिर पाँव।
झूठ तमाचा खाएगा, क्या रंक क्या राव॥
चारित्रिक पतन का एक और कारण समाज के लोगों में करनी और कथनी का अंतर है। कबीर दास ने इस ओर इशारा करते हुए कहा था:
कहन्ता तो बहुतै मिले, गहन्ता मिला न कोय।
सो कहन्ता बहि जान दे, जो न गहन्ता होय॥
परन्तु कथनी-करनी का अंतर न तब मिट पाया और न आज ही। आज भी पूँजीवादी आर्थिक व्यवस्था में यह विभिन्न पार्टियों का एक राजनैतिक अंश बन गया है। समाज में वही मनुष्य आदर पाता है जो स्वार्थ सिद्धि करना जानता है। स्वार्थ सामाजिक विकारों को जन्म देता है। कबीर जी ने स्वार्थ की सीमाओं पर अंकुश लगाने का प्रयास किया ताकि सामाजिक गुणों के विकास में किसी प्रकार की बाधा न उपस्थित हो। स्वार्थी व्यक्ति कभी अपनी बुराई नहीं सुनता। अपनी प्रशंसा करने वालों को सभी प्रश्रय देते हैं। प्रशंसा सुनने वालों को कबीर साहिब ने कहा:
निन्दक नियरे राखिए, आँगन कुटी छवाय।
बिन पानी बिन साबुने, निर्मल करे सुभाय॥
अपनी आलोचना सुनने वाला व्यक्ति भूलों से बचता है और यही उसके चारित्रिक गुण की एक विशेषता है।
कबीर साहिब ने मानव-चरित्र के उत्थान के लिए यह संदेश दिया कि दूसरा तुम्हारे साथ बुराई करे तो भी तुम उसके साथ अच्छाई करो। कष्ट मिलने पर भी दूसरों के साथ बुराई मत करो। वास्तव में यदि समाज का प्रत्येक व्यक्ति इतनी दृढ़ता से बुराई को ठुकराने लगे तो देश का अध:पतन कभी नहीं हो सकता, पर ऐसा नहीं होता। मानव की सहन-शीलता की सीमाएँ भी होती है। वर्गीय समाज में शोषक वर्ग अपने हित में सारी बुराइयाँ करता है और उसे छोड़ने को तैयार नहीं होता। शोषित वर्ग कितना भी त्याग और बलिदान उनके लिए करे परन्तु उनके चरित्र में परिवर्तन नहीं आता। इसीलिए आज जो अमीर है वह और भी अमीर होता जा रहा है और जो ग़रीब है वह अधिक ग़रीब होता जा रहा है। शोषक वर्ग सदा शोषित में बुराइयाँ देखता है, अपने अन्दर नहीं झाँकता। इसीलिए कबीर ने कहा था:
बुरा जो देखन मैं चला, बुरा न दीखा कोय।
जो दिल खोजा आपना, मुझसा बुरा न होय॥
शोषक द्वारा शोषित पर अन्याय करने का कारण धन और सम्पत्ति का रोब और ऐंठन है। कबीर दास कहते हैं कि जो लोग ऐंठे रहते हैं, वे कुछ भी इस संसार से नहीं उठा पाते। संसार एक बाज़ार है, जिसमें एक से एक अच्छी वस्तुएँ मेहनत करके प्राप्त की जा सकती है। ऐंठने वाले व्यक्ति की नज़र उन वस्तुओं पर पड़ती ही नहीं। कबीर साहिब कहते हैं कि नम्रता और परोपकार मानव-जीवन को अच्छा और योग्य बनाता है। दूसरों के प्रति की गई अच्छाई सदा साथ रहेगी।
आज चहुँ ओर छल-कपट का फैलाव हो रहा है। कपट जीवन में दुःख के सिवा कुछ नहीं लाता। कबीर जी ने सदैव कपट और कपटी से बचने का समर्थन किया:
कपटी मित्र न कीजिए, पेट पैठि बुधि लेत।
आगे राह दिखाय के, पीछे धक्का देत॥
ऐसे व्यक्ति बहुत घातक होते हैं जिनकी वाणी तो मधुर होती है परन्तु मन में बैर होता है। कबीर दास के अनुसार व्यक्ति को ऐसी मधुर वाणी में बात करनी चाहिए जिससे उसका अपना मन भी शीतल हो और दूसरों के हृदय में भी निर्मलता का संचार हो। उनके अनुसार कटु वाणी अथवा गाली जब दी जाती है तब वह एक होती है, परन्तु उत्तर में जब गाली निकाली जाती है जो वह एक नहीं, अनेक हो जाती हैं। गाली कलह और कष्ट का मूल है। जो गाली से हार मान कर पलट कर गाली नहीं देता, अपनी वाणी मधुर ही रखता है, वहीं संत है। जो गाली मिलने पर मर मिटता है, प्रहार करता है, वह नीच है। अतः गाली से बचना चाहिए।
लोभ, मद, मोह और क्रोध मानव-चरित्र के लिए अभिशाप हैं। लोभी अपने धन को अर्जित करने के लिए आवश्यक और अनावश्यक तरीक़े अपनाता है, इस प्रकार वह सामाजिक मूल्यों को क्षत-विक्षत कर देता है। लोभी व्यक्ति को समझाते हुए कबीर जी कहते हैं:
एक सीस का मानवा, करता बहुतक हीस।
लंकापति रावन गया, बीस भुजा दस सीस॥
रावण अपनी बीस भुजाओं और दस सिर होने पर भी लोभ के प्रहार से नहीं बच पाया तो साधारण मनुष्य कैसे बच सकता है।
लोभ, मद, मोह और क्रोध मानव की स्वाभाविक प्रवृत्तियों से सम्बन्धित हैं, जो विशेष परिस्थितियों में अधिक स्पष्टता से उभरते हैं। इनके कारण मनुष्य विवेकहीन हो जाता है। मोह ज्ञान का हरण कर लेता है। मद मनुष्य को विवेकहीन बनाता है और वह अच्छे-बुरे का अंतर भूल जाता है। जिसके मन में मद होता है वह पतित हो जाता है। कबीर जी कहते हैं:
धन रहे न जोबन रहै, रहै गाँव न ठाँव।
कबीर जग में जस रहै, करके किसका काम॥
दयावान मनुष्य ही संसार में यश प्राप्त करता हे, लोभी और मद से युक्त व्यक्ति नहीं। समाज में फैली विषमता को रोकना मानव-कत्र्तव्य है। संसार में अच्छे काम समय पर और तुरंत करने चाहिएँ क्योंकि क्या पता कब जीवन समाप्त हो जाये। इस संसार में बहुत से लोग बड़े पाप करने के बाद दान, धर्म, तीर्थ-यात्रा आदि करके अपने पापों पर पर्दा डालने का प्रयास करते हैं। ऐसे लोगों को धिक्कारते हुए कबीर दास ने उन्हें मूल रूप से अच्छा बनने पर बल दिया, दिखावा मात्र तो ढोंग है।
आज कल बहुत से लोग साधु-संतों का वेष धारण किए घूमते हैं, परन्तु उनका मन मान, बड़ाई और ईर्ष्या से भरा रहता है। वे विषय वासनाओं में फँसे होते हैं। इन ढ़ोंगी साधुओं को समझाते वे कहते हैं:
तृष्णा सींची न बुझै, दिन दिन बढ़ती जाय।
जवासा का रुख़ ज्यों, घन मेहा कुम्हलाय॥
जो तृष्णा होती है वह कभी समाप्त नहीं होती। साधु वही है जो मान-अपमान से अप्रभावित रह कर समाज सेवा करता है और धन, मान, ईर्ष्या आदि तृष्णाओं का दमन कर देता है। प्यासा पानी पीकर संतुष्ट हो जाता है परन्तु धन-सम्पदा, सुख और मान की प्यास इन्हें पाकर और भी बढ़ती है। प्रत्येक लाभ के साथ-साथ लोभ बढ़ता जाता है और यह तृष्णा मानव समाज के समुचित विकास के लिए हानिकारक है। कबीर जी कहते हैं:
बड़ा बड़ाई न करै, बड़ा न बोले बोल।
हीरा मुख से न कहै, लाख हमारा मोल॥
बड़ा हुआ तो क्या हुआ, जैसे पेड़ खजूर।
पंथी को छाया नहीं, फल लागे अति दूर॥
साधुता और बड़प्पन ऊँचाई में नहीं, झुक जाने में है, स्वभाव की निर्मलता में है। जो अकड़ता है, वह मिट जाता है। बुराई बड़े होने में नहीं, बुरे गुणों के उदय में है। अभिमान, सारे बड़प्पन तथा यश को नष्ट कर देता है। बड़ा वही है जो समाज का हित सोचता है, विकास की बात सोचता है। लोभ, मद, मोह का त्याग मनुष्य संतोष से कर सकता है। संतोष और विवेक से मन में निर्मलता आती है। मन सहज हो जाता है। दूसरों के प्रति मन में दया की भावना जाग्रत होती है। संतोषी व्यक्ति चिंता-मुक्त होता है। उस पर किसी तरह का दबाव नहीं होता-न धन का, न धनवान का। धनवान अथवा सुखी व्यक्ति दूसरों के शोषण के आधार पर सुखी होता है। इसीलिए कबीर जी कहते हैं:
साहेब मेरे मुझको, सूखी रोटी देय।
चुपड़ी माँगत मैं डरूँ, सूखी छीन नहिं लेय॥
कबीर जी ने संतोष की शिक्षा दी। वे जानते थे कि बुराई की जड़ किसी के व्यक्तिगत सुख से सम्बन्धित होती है, जो सामाजिक हित में नहीं होती। इसीलिए संतोष की आवश्यकता होती है, ताकि मानव-चरित्र में सामाजिक हित को व्यक्तिगत हित पर प्रधानता प्राप्त हो। मान, बड़ाई के पीछे भागने वाले अपने जीवन-मूल्य खो देते हैं। अच्छा मानव-चरित्र बनाने के लिए अच्छी संगति होनी चाहिए। कबीर दास ने साधू और सच्चे व्यक्ति की संगति को सर्वोच्च कहा और कुसंगी को निकृष्ट।
कबीर कुसंग न कीजिए, लोहा जल न तिराय।
कदली, सीप, भुजंग मुख, एक बुन्द तिर भाय॥
अजल बुँद आकाश की, पडि़ गई भूमि विकार।
माटी मिलि गई कीच सों, बिन संगति भौ छार॥
साधु का संग करने वाले परोपकारी, निष्काम, ईर्ष्या रहित, नम्र, दयालु, प्रसन्नचित्त, पाप रहित, धैर्यवान, गम्भीर, सुशील, निश्चल, निर्लोभी, सत्यपरायण, परमार्थी और मृदुभाषी बन जाते हैं, जो कि चरम मानव-मूल्य हैं। अच्छे व्यक्ति की संगति से मनुष्य का चरित्र आदर्श मानव-चरित्र बन जाता है।
कबीर साहिब के अनुसार सांसारिक पदार्थों का लोभ त्याग देना चाहिए क्योंकि ये पदार्थ गतिमान हैं, नश्वर हैं, आज हैं, कल नहीं रहेंगे। मानव अगर यह समझ ले कि प्रत्येक मनुष्य का दुःख उसका अपना दुःख है तो वह पूरे समाज के सुख की कामना करेगा और इस प्रकार सामाजिक विषमताओं का अंत सम्भव हो सकेगा। यदि भला करने की इच्छा मन में हो तो मार्ग स्वतः ही निकल आता है:
जिन खोजा तिन पाइया, गहिरे पानी पैठ।
मैं बौरी खोजन गई, रही किनारे बैठ॥
कबीर ने उन्हीं मानव-मूल्यों का प्रतिपादन किया है, जो मानवीयता से परिपूर्ण समस्त मानव-समाज को सुखी और समृद्ध बनाने में उनकी दृष्टि में सक्षम थे। आज भी अगर उनकी शिक्षाओं को हृदय में धारण कर लिया जाये तो मानव-चरित्र, जो आज दूषित हो रहा है, निर्मल हो जाएगा, स्वच्छ हो जाएगा और नये आदर्श समाज का निर्माण सम्भव हो पाएगा।
डॉ देवेन्द्र कुमार
सह-आचार्य (हिन्दी)
ख़ालसा कॉलेज, गढ़दीवाला (पंजाब)।