झूठ घुलता जा रहा रोशनी तक में
समितिञ्जय शुक्लझूठ घुलता जा रहा रोशनी तक में
नाचता-गाता सड़कों पे दौड़ता है..
तो हवा के साथ साँसों में घुसता हुआ
पता नहीं कैसे
मस्तिष्क तंतु में कूद जाता हरदम..?
फिर तंतुओं की लगाम खींच
फिराता है हर तीसरी को
नहीं हर दूसरे को भी, ग़लत
हर किसी को यक़ीनन
अपने ही बनाए एक घेरे में..
जो अपने बनाए एक झूठे समुदाय से
लड़ाता इसे कई दफ़े, कई ऐसे सिरों से
कि ख़ून की बारिश में पैदा हुए कई तो,
जिसे पैदा किया गया एक झूठ से
हर जगह झूठ ही झूठ से
हाथ मिला रहा है
सब झूठ ही कर रहा है
क्या ये झूठ ही भगवान् है
जिसे सच्चाई से दबाया गया
दैत्य मानकर,
या भगवान झूठ है।