झोंका

अमर परमार

हम शान से जीते थे
रुतबा था एक ग़ज़ब ही हमारा, मित्र मंडली में
जब सब बताशे लूटने में रहते
हम अपनी पोथी में सिर खपाते
सब आश्चर्य करते कि कैसे मैं ही बचा हूँ,
बचा पाया हूँ अपने बग़ीचे को, इस बयार से।
मैंने कोई मौक़ा ही नहीं दिया था
बाड़ लगाए रखी हमेशा
ताकि बचा रहूँ मैं, रोगी बनने से
अपने दोस्तों की तरह
मधुवन में भटकने से, खो जाने से
पर आज सुबह ही
एक हवा का झोंका, उसी हवा का
मेरे बग़ीचे से गुज़र गया
और इस बग़ीचे की सब कलियाँ खिल गईं
फूल बन गईं
और अब मैं भी किसी के लिए
गुलाब चुन रहा हूँ।

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