जीवन संध्या के रंग 004

15-10-2023

जीवन संध्या के रंग 004

उषा हिरानी (अंक: 239, अक्टूबर द्वितीय, 2023 में प्रकाशित)

 

आज वृद्ध आश्रम में एक कार्यक्रम था सामाजिक कार्य कर प्रकाश भाई सब से मिलने के लिए आए थे। सब से बात करते हुए युवा पीढ़ी को बहुत कोस रहे थे, “आजकल के युवको को स्वतंत्रता चाहिए . . . किसी को माता-पिता अच्छे नहीं लगते हैं। उन्हें घर का निकम्मा सामान समझकर वृद्ध आश्रम में रहने के लिए भेज देते हैं माता-पिता उनके लिए कितना त्याग करते हैं पर उन्हें उसकी क़द्र कहाँ?” 

काफ़ी देर तक ऐसी बातें चलती रहीं तो निमिषा बहन से नहीं रहा गया . . . उठ खड़ी हुई और बोली, “भाई सब एक जैसे नहीं होते। सबके यहाँ आने के कारण अलग-अलग होते हैं। अभी युवा पीढ़ी से निराश होने की ज़रूरत नहीं है। अब मेरी ही बात ले लीजिए . . . 

“मैं यहाँ अपनी मर्ज़ी से आराम से रहती हूँ। मेरे पति फ़ौज में कैप्टन थे, कारगिल के युद्ध में कई दुश्मनों का सफ़ाया कर वे वीरगति को प्राप्त हो गए . . . तब मेरा बेटा छोटा था। मैंने उसे अकेले ही पाल-पोस कर बड़ा किया। उसके पिता की इच्छा थी कि उनका बेटा भी उनकी तरह सैनिक बने तो मैंने बचपन में ही बेटे को ऐसे ही संस्कार दिए . . .। उसे अपने पिता की और दूसरे परमवीर चक्र प्राप्त सैनिकों की कहानियाँ हमेशा सुनाईं और हमेशा राष्ट्रभक्ति के लिए प्रेरणा दी। ग्रेजुएट होते ही उसने भी फ़ौज में भर्ती होने की इच्छा जताई और सभी कसौटी पार कर पूरी तालीम लेकर वह आज फ़ौज में फ़ाइटर प्लेन उड़ाता है . . .। 

“मुझे गर्व है कि मैं अकेली हूँ; मेरा बेटा अपनी भारत माँ की सेवा में लगा हुआ है . . . अकेली हूँ तो घर पर क्या करती? इसलिए यहाँ वृद्ध आश्रम में आ गई। यहाँ मेरे जैसे अन्य सभी वृद्ध भाई बहनों का साथ मिलता है; मुझे उन सभी की सेवा का अवसर मिलता है।”

तभी वृद्ध आश्रम के मैनेजर भी बोल उठे, “हाँ निमिषा बहन तो हमारी संस्था की जान है। सभी का इतना ख़्याल रखती है, सबकी मदद करती है, सब की सेवा करने में लगी रहती है!!”

प्रकाश भाई उठ खड़े हुए और निमिषा बहन को सलाम कर दिया, “धन्य है आप जैसी माँ जिसकी वजह से ही देश का मस्तक गर्व से ऊँचा है!”

जीवन संध्या का एक ऐसा भी रंग है . . . केसरिया!! 

1 टिप्पणियाँ

  • 19 Oct, 2023 05:00 PM

    सोलह आने सच बात। हम यदि अपनी संतान से प्यार करते हैं तो उनके उज्जवल भविष्य की कामना भी करते होंगे। तो क्या हम इतने स्वार्थी हो सकते हैं कि अपनी वृद्धावस्था में अपने कामयाब बच्चों पर उम्मीद लगा बैठें कि वे अपनी नौकरी, काम-धंधा इत्यादि छोड़ हमारी देखभाल करने लग जायें? या फिर नौकरों की निगरानी में हमें छोड़ पूरा-पूरा दिन चिंतित रहे कि मालूम नहीं उनके माता/पिता को समय पर खाना-पीना मिल रहा है या नहीं? वृद्धाश्रम में रह रहे लोगों के बच्चे इस बात से निश्चिंत रहते हैं। और तो और प्रतिदिन मिलने-मिलाने के अतिरिक्त तीज-त्योहारों पर माता-पिता को प्यार करने वाली संतानें अपने घर भी ले आती हैं। हाँ, यह अलग बात है कि आर्थिक अवस्था सही न हो तो 'मजबूरी का नाम महात्मा गाँधी' मानकर जैसा चल रहा है, चलने दिया जाए।

कृपया टिप्पणी दें