जीने की राह

15-09-2023

जीने की राह

शीला श्रीवास्तव (अंक: 237, सितम्बर द्वितीय, 2023 में प्रकाशित)

 

सुबह से लेकर अब तक शान्ति देवी घर से बरामदे तक का ना जाने कितनी चक्कर लगा चुकी हैं, परेशानी उनके चेहरे पर साफ़ झलकती है। उनकी परेशानी का कारण है घर में साफ़-सफ़ाई करने वाली कमलाबाई, जिसके आने का निश्चित समय है सुबह के आठ बजे। लेकिन दस बज चुके हैं और अभी तक वह आई नहीं है। ‘अगर देर से आना था तो कल ही बता देती’ शान्ति देवी अपने-आप में बड़बड़ायीं। 

आराम की आदत पड़ जाए तो हाथ में गिलास लेकर पानी पीना कष्टदायी लगता है। उनकी समस्या यह है कि अगर बाई को डाँट-फटकार दिया जाए तो वह काम छोड़कर चली जाएगी, और दूसरी बाई काम करने को तैयार नहीं होगी। ऐसे में तो काम चल ही नहीं सकता। जैसे-जैसे घड़ी की सूई दस से ग्यारह की तरफ़ बढ़ रही थी, वैसे-वैसे शान्ति देवी का सब्र का बाँध टूटता जा रहा था। वह बिस्तर पर लेट कर यही सोच रही थी कि कमलाबाई की अनुपस्थिति में वह घर का पूरा काम कैसे कर पायेगी? किसी तरह हिम्मत जुटाकर वह काम करने के लिए उठी ही थी कि कमला बाई आ गयी। 

आते ही कमला बाई ने कहा, “आंटी जी मैं कल से आठ दिन की छुट्टी पर रहूँगी, मेरे बेटे की शादी है। आप तब तक के लिए कोई और बाई ढूँढ़ लो।”

“मैं कहाँ से ढूँढ़ूँ। तू ही कोई लगा के चली जा न।”

शान्ति देवी ने असमर्थता जताई। 

“मैं कहाँ से लगाऊँ? शादी के सीज़न में टाइम किसके पास है? आपकी पोते की शादी भी इसी महीने है न। आप शादी में नहीं जायेंगी क्या?” यह बोलकर कमला बाई तो काम पर लग गयी, पर शान्ति देवी के ज़ख़्म हरे हो गये। न चाहते हुए भी अतीत की कड़वी यादें उनकी आँखों के सामने चलचित्र की तरह घूमने लगे। छह महीने पहले की बात है वे अपनी बेटी के साथ रह रहीं थीं। बेटी के घर रहना उनकी मजबूरी थी। बेटे-बहू के उदासीन व्यवहार से झुब्ध होकर ही शान्ति देवी ने बेटी के घर रहने का फ़ैसला किया था, पर यहाँ भी उन्हें बात-बात पर उपेक्षा ही मिली। 

आये दिन उन्हें लेकर बेटी-दमाद में तनाव की स्थिति उत्पन्न हो जाती। 

शान्ति देवी अपनी वजह से अपनी बेटी का घर बर्बाद नहीं करना चाहती थी इसलिए मन मसोस कर उन्होंने अपने बेटे के घर की ओर रुख़ किया। 

जैसे ही उन्होंने बेटे बहू के घर में क़दम रखा, बहू के तल्ख़ी भरे स्वर उनके कानों में पड़े, “क्यों बेटी के घर गुज़ारा नहीं हुआ?” 

वे ख़ून के घूँट पीकर रह गई। मजबूरी ना होती तो वे कभी यहाँ का रुख़ नहीं करती। 

बहू ने कभी उनसे सीधे मुँह बात नहीं की। वह जब भी बोलती, ज़हर ही उगलती। 

आए दिन छोटी-छोटी बातों को लेकर बखेड़ा खड़ा करना बहू की जैसे आदत हो गई थी। बेटे रितेश से जब वे बहू की शिकायत करतीं तो वह अपनी पत्नी को समझाने के बजाय उन पर ही बरस पड़ता। शान्ति देवी अंदर ही अंदर तिलमिला कर रह जाती। 

आख़िरकार एक दिन बेटे ने दो टूक शब्दों में कह ही दिया, “माँ तुम जबसे इस घर में आई हो, कलह ही मचा रहता है। हम अपना काम करें या सास-बहू के झगड़े निबटाएँ? पैसे की कोई कमी तो है नहीं। ऐसा करो, तुम विदिशा चली जाओ। मैं बीच-बीच में आकर तुम्हें देख जाया करूँगा।”

बेटे का फ़रमान सुनकर वे अवाक्‌ रह गईं। उनके मुख से एक शब्द भी फूटा। पूरी रात वे सो नहीं पाईं थीं। पति को याद कर बहुत रोईं थीं। बेटी या बेटे के घर रहने में उन्हें कोई आर्थिक मजबूरी नहीं थी। फ़ैमिली पेंशन मिलती थी, जो उनके लिए पर्याप्त थी। उनकी मजबूरी थी अकेलापन से ख़ुद को अलग रखने की, पर अब वे अकेले रहने के लिए अभिशप्त थीं। 

शान्ति देवी अपने ख़्यालों में इस क़द्र खोई हुईं थीं कि उन्हें पता ही नहीं चला कि कमलाबाई अपना काम निपटा कर जा चुकी थी। दूध वाले की आवाज़ सुनकर उनकी तंद्रा भंग हो गई थी। 

बेटे, बेटी, बहू और कमलाबाई से मिले झटकों ने उनके दिमाग़ी तार झनझना दिये थे। उन्हें अपने आराम-तलबी पर भी बहुत ग़ुस्सा आ रहा था। परिस्थितियों से जुझने के लिए उन्होंने अपने-आपको मन ही मन तैयार कर लिया था। उन्होंने पतीले में दूध रखकर गैस पर चढ़ा दिया था। जैसे-जैसे दूध में उबाल आ रहा था, वैसे वैसे शान्ति देवी के अंदर एक नई ऊर्जा का संचार हो रहा था। उन्होंने निश्चय कर लिया था कि अब वह किसी पर आश्रित नहीं रहेंगी। अपना हाथ जगन्नाथ। 

वे सोचने लगीं, जो माता-पिता आर्थिक रूप से कमज़ोर होते हैं, और जब उनकी संतानें भी उन्हें छोड़ देती हैं तो उनपर क्या बीतता होगा। कम से कम वे तो बहुत अच्छी स्थिति में हैं। वे नाहक़ ख़ुद को कमज़ोर समझ कर लोगों के सामने अपनी मजबूरियों का मज़ाक़ उड़वाती थीं। 

उन्हें यह अहसास हो गया था कि इंसान जीना चाहे तो राहें हज़ार हैं। दूध उबलकर गिरने लगा तब वे अपनी सोचों के दायरे से बाहर निकलीं। उन्होंने गैस बंद किया और खाना बनाने की तैयारी करने लगीं। अब तक उन्होंने यह फ़ैसला कर लिया था कि वह अपने घर से कहीं बाहर नहीं जाएँगी। जब तक उनका शरीर चलेगा, किसी पर निर्भर नहीं रहेंगी। बाक़ी सब ईश्वर पर छोड़ देंगी। उनके चेहरे पर अब ग़ज़ब का आत्मविश्वास चमकने लगा था। 

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