अनगिनत आँगन
अनगिनत छत,
अनगिनत दिये
और उनके उजालों का कोलाहल..
 
इनके बीच
कहीं गुम सी मैं,
कहीं भागने की हठ करता हुआ
लौ सा मचलता मेरा मन...
 
वो एकाकी
जो तुम्हारे गले लग कर
मुझसे लिपटने आया है
उसकी तपिश में
हिम सी पिघलती मेरी नज़रें...
 
मुझसे निकलकर
मुझको ही डुबोती हुई...
इस शोर और रौशनी का हाथ पकड़कर,
छलक उठे हैं चाँद पर
मेरी भावनाओं के अक्स,
और उन्हें सहलाते हुए
चन्द प्रतिलक्षित तारे,
 
फिर कहीं
आच्छादित धुआँ,
असहनीय आवाज़ें,
आभासित अलसाई सुबह,
और उन जमी हुई मोमबत्ती की बूँदों के नीचे
दबी मैं
व मेरा सहमा मन....
  
एक रात अवांछित सी आई है इस बार

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