ढूँढ़ती हूँ...
अजन्ता शर्माउनको बिसारकर ढूँढ़ती हूँ।
पहर-दर-पहर ढूँढ़ती हूँ।
खाकर ज़हर ज़िन्दगी का,
शाम को, सहर ढूँढ़ती हूँ।
अपने लफ़्ज़ों का गला घोंट,
उनमें असर ढूँढ़ती हूँ।
अन्तिम पड़ाव पर आज,
अगला सफ़र ढूँढ़ती हूँ।
बर्दाश्त की हद देखने को,
एक और क़हर ढूँढ़ती हूँ।
दीवारें न हों घरों के सिवा,
ऐसा एक शहर ढूँढ़ती हूँ।
रंग बाग़ों का जीवन में भरे,
फूलों का वो मंज़र ढूँढ़ती हूँ।
इश्क़ की रूह ज़िन्दा हो जहाँ,
ऐसी इक नज़र ढूँढ़ती हूँ।
दिल को ख़ुश करना चाहूँ,
वादों का नगर ढूँढ़ती हूँ।