इंतज़ार

शालिनी सिंह (अंक: 191, अक्टूबर द्वितीय, 2021 में प्रकाशित)

बैठ कहीं एक किनारे पर
सोच रही हूँ वो आएँगे
जो सारी चीज़ें बिगड़ी हैं
उसे साथ मिल कर सँवारेंगे
 
कुछ बिखरी, कुछ टूटी
जो जगह पर अपने है नहीं,
चुन कर हर एक टुकड़ा
जोड़ उसे निहारेंगे।
 
इंतज़ार है मुझे उस वक़्त का,
जिसे लोग कहते हैं अच्छा
क्यूँकि वक़्त बदलते ही दोस्तो
लोग स्वयं खींचे चले आएँगे।
 
बुरे वक़्त की बात ही क्या!
सब की पहचान करवा  जाती है।
कौन है अपना, कौन पराया
असली चेहरे दिखला जाती है।

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