हुड़क

डॉ. आशा मिश्रा ‘मुक्ता’  (अंक: 197, जनवरी द्वितीय, 2022 में प्रकाशित)

आज सुबह से उनका मन भारी है। नाश्ता खाना सब पूर्ववत् चलता रहा। वो भूखी थीं यह तो नहीं कह सकते क्योंकि बेमन से ही दाने तो पेट में गए ही। मन के भारीपन के अलावा ऐसा आज कुछ नहीं हो रहा था जो पहले कभी नहीं हुआ हो। कुछ अजीब सी हुड़क उठ रही थी सीने में। असुरक्षा का एहसास था या बुरी ख़बरों का असर पता नहीं। वह बच्चों को कहना चाहती थी कि तुम लोग आज नीचे ही रहो, मत आराम करो एक दिन, कुछ बतियाने का मन कर रहा है। पर कह नहीं पाईं। बच्चों की दिनचर्या में बाधा भी नहीं बनना चाह रही थीं। तबियत कुछ ख़राब हो तो बोले भी लेकिन ऐसा कुछ था ही नहीं। पतिदेव को ही उठा देतीं परंतु आज उनकी भी तबियत कुछ सुस्त है। सुनने-सुनाने के लिए वे तो हैं ही सदा। अक़्सर यह बोलकर आश्वस्त करते रहते हैं कि “मैं हूँ न तुम्हारे साथ तुम फ़िक्र क्यों करती हो।” पर आज उन्हें भी डिस्टर्ब करना अच्छा नहीं लगा। वह शाम के पाँच बजने का इंतज़ार करने लगीं जब नौकर चाय लेकर आया। 

“आवाज़ देदो साहब को,” उन्होंने नौकर को कहा। 

’इंतज़ार की घड़ी लम्बी होती है,’ सुना था कभी, आज देख रही हैं। “चाय ठंडी हो रही है,” वह स्वयं से बड़बड़ाईं और उठकर ख़ुद ही कमरे में चली गईं।

“अभी तक सो रहे हैं, इतना भी क्या सोना भई, कभी ख़ुद भी उठ जाया करें,” झल्लाती हुईं उन्होंने पतिदेव का पैर हिलाया। “कैसा लग रहा है अब, उठिए न, चलिए चाय पीते हैं, ठंडी हो रही है।” आवाज़ में तल्ख़ी का स्थान मिन्नत ने ले लिया। परंतु ये क्या . . . छूते ही शरीर एक ओर लुढ़क गया और पैर दूसरी ओर। अवाक् हो गईं वह, सीने की हुड़क ख़त्म हो गई और निस्तब्ध सी वह देखती रहीं। 

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