हे कविता!
अनुपमा श्रीवास्तव ‘अनुश्री’
हे कविता!
तुम कहांँ हो!
कहांँ लुप्त, सुप्त,
विलुप्त हो गई हो!
तथाकथित विद्वानों
की विद्वता में,
कहीं खो गई हो!
तुम्हारे तत्त्व, रस
और भाव को गद्यनुमा
रचनाओं ने लील लिया है
रसहीन बौद्धिकता ने
तुम्हारा पैरहन छीन लिया है।
पुनरपि खोज रहे हैं तुम्हें
पत्र-पत्रिकाओं की
उन गलियों, चौबारों में,
उन साहित्य के आगारों में
जहांँ तुम्हें श्रेष्ठ स्थान देने वाले
रचनाधर्मियों ने अप्रतिम दुलार दे,
उत्कृष्ट शब्दों और भाव से
नख-सिख शृंगार किया था
हृदय की मसि में डुबो कर
तुम्हें काग़ज़ पर उतार दिया था।
तुम्हें पाकर प्राणमय कोश
जाग्रत हो उठते थे
सुप्त भाव झंकृत हो उठते थे
साहित्य का ताज पहने
तुम सुशोभित थीं
स्वस्ति भाव, लालित्य
से अलंकृत थीं
माधुर्य संग ओज से
आभामंडित थीं।
अब रचनाकारों और
प्रकाशकों की बाढ़, होड़ ने
तुम्हें विदीर्ण कर दिया है,
आभूषणहीन कर दिया है
तुम्हारी अस्मिता, गरिमा छीन
गद्यनुमा रूक्षता देकर
भावविहीन कर दिया है।
तुम्हें अपना स्वरूप खोजना है
सहेजना है वही अप्रतिम रूप
समस्त रस, भाव और
काव्य तत्त्वों में ढलना है
मात्र काग़ज़ पर नहीं,
पत्र-पत्रिकाओं से निकल
सभी के हृदयाकाश में
विचरण करना है
रुक्षता को परे धकेल
संवेदनाओं का वरण करना है।