हवाएँ
कविता झाये हवाएँ, ये कैसी चल रही हवाएँ।
मज़हब के नाम पर क़त्ल करती हवाएँ।
देश को, प्रदेश को, पिण्ड को बाँटती हवाएँ।
नफ़रत की लौ को प्रखर करती हवाएँ।
नासमझों के लिए बहती मादक सी हवाएँ।
हर जगह, हर कण में बिखरी हैं हवाएँ।
कहीं शीतल, तो कहीं गरम हवाएँ।
कहीं हैवानियत की बहती भयँकर हवाएँ।
कहीं लहू बहाती आक्रोश भारी हवाएँ।
कहीं धर्म की बह रही प्रपंची हवाएँ।
इंसान का इंसान से भेद कराती हवाएँ।
कहीं दिशाहीन, कहीं आकुल व्याकुल हवाएँ।
कहीं अज्ञानता की, तो कहीं क़ायर सी
बह रही बेधड़क बेपरवाह बेख़ौफ़ हवाएँ।
कहीं द्वेष की ज्वाला सी, कहीं ईर्ष्या की
कहीं असत्य की, कहीं ढोंग का चोला ओढ़े
बह रही निरंतर, ना जाने कैसे ये हवाएँ।
कश्मीर से कन्याकुमारी तक की हवाएँ।
एक सी हैं, फिर भी अलग क्यूँ लगती हवाएँ।
कहीं नरम वेग से, कहीं गति में मादक चूर हवाएँ।
अभिमानी ख़ुदगर्ज़ बनाती इंसानों को ये हवाएँ।
ज़हर घोलते स्पर्श से चारों तरफ़ ये हवाएँ।
ना जाने अब किस ओर बहने को आतुर ये हवाएँ।
ये बहती हवाएँ, ये कैसी चल रही हवाएँ।