हर कोई अपना था
डॉ. उमेश चन्द्र शुक्लहर कोई अपना था, लेकिन कोई भी अपना न था
ज़िंदगी से इस तरह रिश्ता कभी टूटा न था
मुतमईन थे ज़िंदगी से जब कोई ख़्वाहिश न थी
साफ़ था हर अक्स जब तक आइना धुंधला न था
यूँ मुझे मालूम था मिलकर पिघल जायेगा वो
फिर नदी बनकर बहा ले जायेगा सोचा न था
किस तरह डूबा मै उसमे और क्यों उबारा नहीं
मै कोई पत्थर नहीं था, वो कोई दरिया न था
ख़्वाहिशों की भीड़ से निकला तो ये मुश्किल हुई
पास था मेरे सभी कुछ इक मेरा चेहरा न था
किस तरह मिलते कि हम थे अपनी अपनी क़ैद सभी
वो हया और मैं हवस के जाल से निकला न था