हर एक चेहरे पे चेहरा दिखाई देता है

01-02-2024

हर एक चेहरे पे चेहरा दिखाई देता है

अविनाश भारती (अंक: 246, फरवरी प्रथम, 2024 में प्रकाशित)

पुस्तक: कुछ वरक़ मोड़े हुए 
ग़ज़लकार: डॉ. कृष्ण कुमार ‘बेदिल’
विधा: ग़ज़ल 
प्रकाशन: श्वेतवर्णा प्रकाशन, नई दिल्ली 
क़ीमत: ₹200
पृष्ठ:120

निःसंदेह दुष्यंत कुमार हिन्दी ग़ज़ल के प्रस्तोता के रूप में अपनी पहचान पाते हैं। दुष्यंत के कारण ही हिन्दी ग़ज़ल को अपनी वांछित पहचान मिल सकी है। लेकिन यह भी स्वीकार करने की ज़रूरत है कि दुष्यंत ने जिस ग़ज़ल परम्परा की शुरूआत की थी उसे यहाँ तक लाने और समृद्ध करने में उनके बाद के ग़ज़लकारों का भी विशेष योगदान रहा है। आज यह सर्व विदित है कि समकालीन हिन्दी ग़ज़ल अपने स्वर्ण युग को जी रही है जिसका पूरा श्रेय समकालीन हिन्दी ग़ज़लकारों को जाता है। 

डॉ. कृष्ण कुमार ‘बेदिल’ का नाम हिन्दी ग़ज़ल के उन उस्ताद शायरों में शामिल है जिन्होंने न सिर्फ़ ग़ज़लें कही हैं बल्कि उन ग़ज़लों को जिया भी है। 80 वर्ष के डॉ. कृष्ण कुमार ‘बेदिल’ ने अपने आस-पास ग़ज़लों का जो आवरण तैयार किया है उसमें आकर न जाने अब तक कितने पौधे वटवृक्ष का रूप धारण कर चुके हैं। कहने का आशय यह है कि इनके शिष्य देश-विदेश तक अपनी ग़ज़लों की छाप छोड़ने में सफल हो रहे हैं। इनके शिष्यों में संजीव प्रभाकर, नूतन सिंह आदि का नाम प्रमुखता से आता है। 

सैकड़ों सम्मानों से अलंकृत कृष्ण कुमार ‘बेदिल’ उर्फ़ कृष्ण कुमार रस्तोगी के अब तक तीन ग़ज़ल संग्रह और दो ग़ज़ल-व्याकरण संबंधी पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं, जो ग़ज़ल के विद्यार्थियों के लिए प्रामाणिक पुस्तकें हैं। इनमें ग़ज़ल की बारीक़ियों पर सप्रमाण सोदाहरण चर्चा की गई है। 

‘कुछ वरक़ मोड़े हुए’ इनका चौथा सद्यः प्रकाशित ग़ज़ल संग्रह है, जो श्वेतवर्णा प्रकाशन से प्रकाशित है। इस ग़ज़ल संग्रह को प्रकाशित करने में स्थापित ग़ज़लकार संजीव प्रभाकर ने बहुत महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई है। संजीव प्रभाकर, कृष्ण कुमार ‘बेदिल’ के प्रिय शिष्यों में से हैं। अगर इस संग्रह की बात करें तो सबसे पहले पुस्तक की भूमिका पर नज़र जाती है जिसमें सुप्रसिद्ध ग़ज़लकार और समीक्षक डॉ. कृष्ण कुमार ‘नाज़’ स्वीकार करते हैं कि , “बेदिल जी की ग़ज़लों में अनुभव का आधार और संवेदना की गहराई दोनों हैं। शिल्प और शिष्टाचार की दृष्टि से इनकी ग़ज़लों का जवाब नहीं। ग़ज़ल के लिए मीठी और घुली हुई ज़ुबान जान है और यह इनकी ग़ज़लों में मौजूद है। इनकी ग़ज़लों में सादगी और सफ़ाई है और अश'आर सीधे दिल में उतरते हैं।”

संग्रह को पढ़ने के दौरान बार-बार दिल ग़मगीन हो उठता है। ग़ज़ल के ज़्यादातर शे'र विशेष भाव का बोध कराते हैं। इनकी ग़ज़लें सामाजिक, राजनैतिक और धार्मिक विसंगतियों को रेखांकित करती हुई नज़र आती हैं। घर-परिवार के आंतरिक क्लेश और उहापोह की स्थिति को मार्मिक तरीक़े से अभिव्यक्त करना इनकी ख़ास विशेषता है। अंग्रेज़ी हुकूमत के दौर में जन्मे ग़ज़लकार ने आज़ादी के बाद भारतीय राजनीति के उदय को बहुत नज़दीक से देखा और महसूस किया है। सर्वप्रथम जिन शर्तों पर सरकार बनी, उसे पूरा न करना ग़ज़लकार को मोहभंग का कवि भी बनाता है। 

संग्रह के कुछ ऐसे अश'आर पेश हैं जो दिलो-दिमाग़ को झकझोरने का काम करते हैं:

मेरी आवाज़ में सच्चाई थी जब, 
नहीं अंजाम का भी कोई डर था। 

घर-परिवार में बुज़ुर्गों की स्थिति को शब्द देता ये शे'र बेहद प्रासंगिक प्रतीत होता है:

जानते हैं हम दरख़्तों का मिज़ाज, 
पत्ता-पत्ता फिर हरा हो जाएगा। 

प्रतिस्पर्धा के दौर में युवाओं के हताश और निराश मन में उत्साह और ऊर्जा भरते हुए कृष्ण कुमार ‘बेदिल’ कहते हैं:

ख़्वाब अगर देखे हैं तूने ख़्वाहिश के, 
काँटों में फूलों का बिस्तर पैदा कर। 

इनका एक और ख़ूबसूरत शे'र देखें जो इंसानों के दोहरे चरित्र और शून्य पड़ती मानवता को रेखांकित करता है:

बात करते हो सभी से प्यार से, 
दुश्मनी का ये नया अंदाज़ है। 

अपनी ग़ज़लधर्मिता से भागने वाले, मौक़ा परस्त और सत्ता के चाटुकार ग़ज़लकारों पर तंज़ कसते हुए कृष्ण कुमार ‘बेदिल’ कहते हैं:

दर्द आँसू सब के सब नीलाम हो जाने को हैं, 
अब तिज़ारत शायरी है, क्या लिखूँ कैसे लिखूँ। 

ले के ‘बेदिल’ आ गये उस मोड़ पर हालात अब, 
साँस लेना ख़ुदखुशी है, क्या लिखूँ कैसे लिखूँ। 

इस तथाकथित सभ्य समाज में एक चेहरे पर न जाने कितने चेहरे हैं, सबने कई मुखौटे पहन रखे हैं। अब लोगों के कथनी और करनी में ज़मीन आसमान का फ़र्क़ है। ख़ास करके इस आधुनिक युग में भी महिलाओं को लेकर पुरुषों की नियत कुछ ख़ास नहीं बदली है। आज भी महिलाओं को महज़ भोग-विलास की वस्तु मात्र ही समझा जाता है। इस बात की पुष्टि करते हुए चंद अश'आर ध्यातव्य हैं:

अजीब खेल तमाशा दिखाई देता है, 
हर एक चेहरे पे चेहरा दिखाई देता है। 
 
बात करते रहे परिंदों की, 
बदनज़र तितलियों में उलझी हैं। 
 
न बदलेगी, न ये बदली थी पहले, 
यह दुनिया वैसी है, जैसी थी पहले। 

आज कवि सम्मेलन के मंचों की स्थिति किसी से छिपी नहीं है। अशिष्टता और अश्लीलता ने वहाँ क़ब्ज़ा जमा लिया है, जबकि शालीनता को अपमानित होना पड़ रहा है। चुटकुलेबाज़ और गलेबाज़ अपनी चालू कविताओं के माध्यम से लोगों का सस्ता मनोरंजन करते हुए दिखाई देते हैं। जबकि शिष्ट और विशिष्ट कविताएँ लिखने वाले रचनाकार पीछे रह जाते हैं। कविता अपनी बदहाली पर आँसू बहा रही है। समाज कविता से सस्ते मनोरंजन के अलावा कोई संस्कार प्राप्त नहीं कर पा रहा है। बेदिल साहब की पैनी नज़र ने इन स्थितियों का भी सुंदरता के साथ चित्रण किया है:

ये तरन्नुम, ये खनकती हुई आवाज़ मगर, 
मेरे अश'आर पे भी एक नज़र एक नज़र। 

सभी जानते हैं की प्रेम के दो पक्ष हैं—संयोग और वियोग। वियोग में ही प्रेमी/प्रेमिका को अपनी मोहब्बत का वास्तविक भान होता है। इस परिस्थिति में ख़ुद को सँभालना कितना दूभर होता है इसे मोहब्बत में टूटे हुए दीवाने ही समझ सकते हैं। इस सन्दर्भ में बेदिल साहब के ये शे'र प्रेम के उदात्त स्वरूप को प्रदर्शित करते हैं:

लड़खड़ा तो गए थे पलकों पर, 
वो तो कहिए सँभल गए आँसू। 
 
उनकी अदना-सी एक तसल्ली पर, 
उम्र भर को बहल गए आँसू। 
 
उनका ग़म ही बहुत है ख़ुशी के लिए, 
और क्या चाहिए ज़िन्दगी के लिए। 

कुल मिलाकर कहें तो डॉ. कृष्ण कुमार ‘बेदिल’ ने हर विषय पर अश'आर कहे हैं या यूँ कहे अपने संपूर्ण जीवनानुभव को रदीफ़ और क़ाफ़िया के अनुशासन में पिरो दिया है। ‘बेदिल’ तख़ल्लुस होने के बाद भी डॉ. कृष्ण कुमार रस्तोगी दिलवाले हैं। आम-अवाम की पीड़ा, स्त्रियों की दशा, नौजवानों का संघर्ष, शून्य पड़ती मानवता आदि को लेकर बेदिल साहब बेहद चिंतित नज़र आते हैं। 

संग्रह की भाषा बेहद सरल और बोधगम्य है। सटीक उदाहरण और मुहावरों का प्रयोग इसे और भी पठनीय बनाता है। 

उम्मीद करता हूँ कि यह संग्रह अपने वांछित मुक़ाम को हासिल करेगा। और साथ ही साथ हिन्दी ग़ज़ल के विकास और विस्तार में सहायक सिद्ध होगा। 

इन्हीं शुभकामनाओं के साथ एक और ख़ूबसूरत शे'र:

तीर जिसके लिए कमान में है, 
वो परिंदा अभी उड़ान में है।

1 टिप्पणियाँ

  • आपने बिल्कुल सही लिखा है। बेदिल साहब ने अपने जीवन अनुभवों को क़ाफिया और रदीफ़ में पिरो कर दुनिया के सामने प्रस्तुत किया है। कोई बात कितना प्रभाव छोड़ सकता है , यह कहने के तरीके पर निर्भर करता है। बेदिल साहब का इसमें कोई जवाब नहीं,! उनकी रचनाएं हिंदी और उर्दू साहित्य के लिए अमूल्य निधि हैं। उनकी रचनाओं के मूल्यांकन से हिंदी और उर्दू दोनों के साहित्य के सच का पता चलता है। सारगर्भित समीक्षा के लिए बहुत-बहुत बधाई एवं शुभकामनाएं!

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