हंस की टिप्पणी

15-05-2025

हंस की टिप्पणी

प्रतीक झा ‘ओप्पी’ (अंक: 277, मई द्वितीय, 2025 में प्रकाशित)

 

मैं एक दुकान पर बैठा
चाय की चुस्कियाँ ले रहा था
तभी नज़र पड़ी बग़ल के पेड़ के नीचे—
जहाँ दो हंस बैठे
आपस में चर्चा कर रहे थे। 
 
एक हंस बोला—
जब कोई मानविकी का शोधार्थी
अपना शोध-पत्र पढ़ता है
तो हँसी आ जाती है
और जब कोई प्रोफ़ेसर बोलता है—
तो मैं हँसी रोक नहीं पाता। 
 
सब एक ही बात को
बार-बार घुमा-फिरा के कहते हैं
हर जगह, हर मंच पर
वही पुराना राग अलापते हैं। 
 
ना कोई नयापन
ना कोई आकर्षण
ना कोई रोचकता। 
 
अरे भैया
जब कहनी ही है किसी और की कहानी
तो फिर क्यों कहते हो इसे शोध-पत्र? 
क्यों छलते हो—
ख़ुद को और दूसरों को? 
 
मैं देखता हूँ—
तुमने अपने को
कल्पनाओं में महान घोषित कर रखा है
और घूमते रहते हो
एक विश्वविद्यालय से दूसरे विश्वविद्यालय तक
सम्मेलनों की भीड़ में
अपनी उपस्थिति दर्ज कराते हुए। 
 
यही दशा बरसों से है
यही ढर्रा चलता रहा है—
इसीलिए तो
नोबेल नहीं आता यहाँ से।

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