हमारे पर्व और सनातन का चिंतन
श्रीहरि वाणी
वर्षा ऋतु के बाद मौसम बदलते समय चराचर प्रकृति में हो रहे संक्रमण कालीन परिवर्तनों से तालमेल बिठाने हेतु भारतीय मनीषियों ने एक सार्वजनिक व्यवस्था निर्मित की ताकि इस समय हम सब मानसिक, शारीरिक रूप से स्वस्थ और सक्रिय रह सकें और पर्याप्त ऊर्जा, सामर्थ्य से आने वाले शीत काल में भी हमारी गति-जीवन चक्र व्यवस्थित रूप से प्रगति पथ पर चलता रहे। यही हमारी सनातन जीवन पद्धति है।
कभी विचार तो करें, हम सब आज जिस सनातन संस्कृति की चर्चा सोशल मीडिया के माध्यम से, या कहें, प्रचार तन्त्र से प्रभावित हो कर कर रहे हैं वह क्या है . . .?
गणेश चतुर्थी से बुद्धि-विवेक के “प्रथम पूज्य” विघ्नहर्ता गजानन की स्थापना-विसर्जन के तुरन्त बाद अपने जन्मदाता पूर्वजों की अनन्त शृंखला के साथ, सम्पूर्ण संसार को तृप्ति-संतुष्टि की कामना से पितृ पक्ष में श्रद्धांजलि, तर्पण-अर्पण और फिर सम्पूर्ण संसार की गति प्रदायनी, सर्जक महाशक्ति की पूरे नौ दिन तक आराधना से विजय पथ की ओर चेतना को अग्रसर करते, अनेक उत्सव मनाते, हम जीवन की समस्त भौतिक उपलब्धियों को पूर्ण करने वाली आदि शक्ति स्वरूपा महालक्ष्मी का स्तवन पंच दिवसीय दीपावली महापर्व के रूप में करते हैं।
इस सब के बीच अगर कभी विचार करें तो पाएँगे कि ऐसा बहुत कुछ है जिसपर सतत विचार-चिंतन करते सामान्य जन को सम सामयिक मार्गदर्शन प्रदान करना समकालीन प्रबुद्ध जनों का दायित्व है और तभी यह सनातन की सतत प्रवाहित धारा जीवन्त रही है, रह सकेगी।
भारत को भारतीय परिवेश में ही देखा, समझा, निर्देशित किया जाना सम्भव है ताकि भारत और भारत की सांस्कृतिक चेतना भारतीयता के साथ जीवित रहे, जीवन्त रहे।
संयुक्त परिवार, कुटुंब के साथ “विश्व बंधुत्व की परिकल्पना” सिर्फ़ भारतीय सांस्कृतिक चेतना युक्त वैचारिकी में ही सम्भव है और यही सृष्टि की सर्वाधिक प्राचीन सनातन संस्कृति, भारत भूमि पर जन्मे अनेकानेक ऋषियों-महर्षियों-विचारकों, तत्ववेक्ता मनीषीयों ने समय-समय पर मानव सभ्यता के प्रारम्भ से आज तक अपने चिंतन-दर्शन में कहा। इसी क्रम में महावीर, बुद्ध और आधुनिक काल में महात्मा गाँधी के सत्य-अहिंसा के दर्शन को देखा-समझा जा सकता है।
यहाँ ध्यान देना होगा कि हमारे साथ, समानान्तर ही एवं बाद में विश्व के अनेक क्षेत्रों में पनपी सभ्यताओं ने ज्ञान-विज्ञान के अनेक सोपान स्पर्श तो किये परन्तु हमारी तरह सनातन प्रवाहित सांस्कृतिक सभ्यता, परम्पराओं की विविधवर्णी, अनेक मत-मतान्तरों से लिपटी, सबको अपने साथ समेटे आगे बढ़ती, दर्शन-ज्ञान-विज्ञान के महानद स्वयं में समाहित करते, स्पर्श मात्र से तृप्ति प्रदान करती, पवित्र-पावन गंगा सरीखी सम्पूर्ण विश्व को आत्मिक शान्ति हेतु आकर्षित-आश्वस्त करती हमारी सांस्कृतिक चेतना आज भी गतिवान है।
पाश्चात्य जगत के पास बहुत कुछ तो है परन्तु हमारी तरह संयुक्त परिवार नहीं है। यही परम्परा और संस्कार-शिक्षा हमारी विशिष्ट धरोहर हैं जिन्हें पश्चिमी भौतिकवाद नष्ट करने पर उतारू है और हम हैं कि उसके पिछलग्गू बन ख़ुद अपने पैरों पर कुल्हाड़ी चलाने को आतुर हैं।
वर्तमान में देश के प्रसिद्ध विद्वान् चिंतक, आलोचक, समीक्षक प्रो. कर्मन्दु शिशिर जी ने अपनी पुस्तक “नव जागरण की निर्मिति” में 1830 में भारत आ कर यहाँ के मूल सांस्कृतिक ताने-बाने का गुप्त रूप से अध्ययन करने वाले थॉमस मुनरो और मैकाले का उल्लेख करते उनके योजनाबद्ध सुनियोजित षड्यंत्र को बेनक़ाब किया है।
इन सबसे स्पष्ट होता है कि अपने ब्रिटिश साम्राज्य को लाभान्वित करने के उद्देश्य से हमारी सामाजिक सांस्कृतिक चेतना, सभ्यता को गहनता से समझ-बूझ कर उनकी जड़ों को देखने-समझने के बाद हमारी शिक्षण पद्धति और पारिवारिक संरचना को नष्ट-भ्रष्ट करने वाली दीर्घकालीन परिणामों वाली सुनियोजित नीतियाँ बना कर हमें वास्तविक स्वाधीनता नहीं दी गयी बल्कि छल पूर्वक मात्र दिखावा किया गया, हम ख़ुद को स्वतंत्र भले ही समझ रहे हों वास्तव में यह सच नहीं है।
हम आज भी उच्च शिक्षा के नाम पर अपने युवाओं को पढ़ाई के लिए विदेश भेजकर गौरव की अनुभूति करते हैं और दो लाख करोड़ से अधिक की भारी फ़ीस विदेशी शैक्षिक संस्थानों को प्रतिवर्ष देते हैं। इतना ही नहीं इस शिक्षा से विकसित होनहार मेधा वाले हमारे युवा फिर उन्हीं विदेशियों की कम्पनियों में रोज़गार हेतु जा कर उन्हें पुनः लाभान्वित करते हैं। यही थीं वे नीतियाँ जिनके कारण आज तक हमारे यहाँ की सभी भाषा-बोलियाँ, अंग्रेज़ी के आगे बौनी दिखती हैं। हम अपनी भाषाओं में युवाओं को उच्च शिक्षा तक नहीं दे पा रहे हैं, न हमारी भाषा बच पायी न हमारी सांस्कृतिक विरासत बच पा रही है। सब कुछ वैश्विक बाज़ार के पास गिरवी हो कर रह गया। हम समझ ही नहीं पा रहे कि कैसे हम, हमारा समाज, हमारी सामाजिक व्यवस्था-मर्यादा, रहन-सहन उन विदेशी बाज़ारों ने कब, कैसे ख़रीद लिया और लगातार यह सिलसिला जारी है।
वैश्विक बाज़ार को फ़ायदा तभी होगा जब परिवार टूटेंगे वरना एक ही गृहस्थी में अनेक परिवार समाये रहेंगे तो विलासिता की अनावश्यक ढेर सारी वस्तुओं की ख़पत कहाँ होगी। भौतिकता की स्पर्धा हो तभी सामान बिकेगा। एकल परिवारों में व्यक्ति अकेला होगा, स्वच्छन्द होगा, स्वयं को संतुष्ट करने बाज़ार में आएगा, नहीं तो बाज़ार ख़ुद ही उसके घर तक दस्तक देगा (अमेज़ॉन, जोमेटो, स्वेगी, फ्लिपकॉर्ट के रूप में) सांस्कृतिक त्योहारों का तात्विक स्वरूप बिगाड़ कर, घरेलू कारीगरों को मारकर ही केडबरी, पिज़्ज़ा, बर्गर, केक, चॉकलेट से त्योहार तभी मनाये जा सकते हैं जब घरों के वरिष्ठजन वृद्धाश्रम पहुँचा दिए जाएँ।
यही सब तो चाहता है पश्चिमी बाज़ार वरना बहुराष्ट्रीय कम्पनियाँ कैसे चलेंगी। शायद इसीलिए बाज़ार ने अपनी असीमित ताक़त से ख़रीद लिया है। समूचे प्रचार तन्त्र ही नहीं बल्कि नीति नियंताओं, राजनैतिकों, समाज के मार्गदर्शक बुद्धिजीवीयों आदि सभी को, तभी वे सब देखते सुनते भी चुप हैं।
उसी का परिणाम है कि आज हमारे पर्व त्योहार स्नेहिल संबंधों में वृद्धि, नवीनता, आत्मिक आल्हाद, उल्लास के कम, परस्पर स्पर्धा-प्रदर्शन-दिखावा, बाहरी चमक-दमक में अपना वास्तविक उद्देश्य खो बैठे हैं। सम्पूर्ण राष्ट्र-समाज जिस मूलभूत इकाई “परिवार” के मज़बूत सूत्र से बँधा रहता था उसी संरचना पर प्रहार हो रहे हैं। परिवार-कुटुंब टूटेंगे, भौतिकता की आँधी में जब घरों की छत ही उड़ जाएगी, रिश्ते बिखर जायेंगे, बच्चे “पालना घर” में और वरिष्ठ जन “वृद्धाश्रम” में रहेंगे तो कौन, कैसे सहेजेगा त्योहारों और परम्पराओं में रची-बसी मर्यादा को। बात बहुत दूर तक जाएगी। प्रभावित सभी होंगे। सारे समाज और राष्ट्र सभी पर इसका दूरगामी दुष्प्रभाव निश्चित रूप से पड़ेगा।
आज तत्काल ज़रूरत है कि समाज के हित चिंतक, प्रबुद्धजन अपनी तटस्थता-चुप्पी छोड़ें। मानवीय मूल्यों, नैतिकता के विरुद्ध किसी भी प्रयास-बदलाव-कृत्य की स्पष्ट आलोचना-विरोध खुलकर करें। राष्ट्र-समाज हित में अपना मार्गदर्शन प्रदान करें वरना बढ़ते अनाचार की परिधि में एक न एक दिन वे सब भी आएँगे जो आज ख़ुद को सुरक्षित समझ रहे हैं।
भूलें नहीं कि प्रबुद्धजनों की चुप्पी पर ही “महाभारत” की पटकथा लिखी जाती है फिर उसकी “जद” में सभी आते हैं। अछूता कोई नहीं रह पाता।
समर शेष है, नहीं पाप का भागी केवल व्याध
जो तटस्थ हैं समय लिखेगा उनका भी अपराध
(राष्ट्र कवि दिनकर जी)