भारतीय वैचारिकी और चिन्तन

01-01-2025

भारतीय वैचारिकी और चिन्तन

श्रीहरि वाणी  (अंक: 268, जनवरी प्रथम, 2025 में प्रकाशित)

 

भारत में आजकल सनातन शब्द पर बहुत सारी चर्चाएँ चल रही हैं, हमारे यहाँ के लिए यह कोई नया शब्द या विचार नहीं, वैसे भी देखें तो यह शाश्वत प्रकृति का विचार है। 

जब से मानव संतति ने बोध प्राप्त किया तभी से उसने अपने विकास-संरक्षण-अस्तित्व को सजाने-सँवारने के प्रयत्न प्रारम्भ कर दिए, यह बिलकुल ही स्वाभाविक है। 

मानव सभ्यता के प्रारंभिक काल में ही हमारे यहाँ आदिदेव महादेव को हमने अनगढ़ . . . भोले-भाले, सर्व हितकारी, सामान्य रूप से असभ्य, वनवासी, वन-पर्वतों के बीच रहने वाले, सांसारिक सभ्य समाज से तिरस्कृत प्राणियों के संरक्षक “शिव” के रूप में मान्यता दी। सम्मान देते अपना आराध्य माना तो वहीं दूसरी ओर संस्कार-सभ्यता से परिपूर्ण, ऐश्वर्य, वैभव के आभिजात्य सांस्कृतिक प्रतीक, श्रीहरि विष्णु को भी उन्हीं महादेव के समकक्ष मानते आदर पूर्वक प्रतिष्ठित किया। इन सबके साथ ही सम्पूर्ण चर-अचर संसार को ऊर्जा-चैतन्य प्रदान करने वाली केंद्रीभूत मातृ शक्ति को भी हमारे मनीषियों ने भुलाया नहीं और सम्पूर्ण श्रद्धा भाव से उन महाशक्ति “महादेवी” को भी अनेक नामों से पुकारते उसी सर्वोच्च स्थान पर समान रूप से आदर सम्मान दिया। 

हमारे यहाँ शायद इसीलिए शैव-वैष्णव और शाक्त के रूप में त्रिवेणी सी वैचारिक धारा सतत प्रवाहित रही। 

भारत और भारतीयता की सनातन चिंतन-धारा एक छोटे से भूखंड नहीं वरन् संसार के विस्तृत भूभाग . . . जल-थल-नभ तक विस्तारित संस्कार-सभ्यता-मानवीय चेतना के असीमित सांस्कृतिक आयामों की विस्तृत शृंखला है जो क्षेत्र, जीव-जन्तु, प्राणी मात्र ही नहीं सम्पूर्ण प्रकृति में भी जीवन का दर्शन करती, उससे साहचर्य स्थापित कर संरक्षित करते, अपने साथ सम्पूर्ण विश्व को बंधुत्व भाव से परम वैभवशाली, विकास के सर्वोच्च शिखर की ओर प्रेरित करने हेतु संकल्पित वैचारिक चेतना है। 

तभी तो हमारे यहाँ सनातन वैचारिकी में पृथ्वी, जल, अग्नि, आकाश की सम्पूर्ण दिशाओं सहित विस्तार प्राण दायिनी वायु, सूर्य, चन्द्र ही नहीं, अनेक पर्वतों, वृक्षों और नदियों को भी वंदनीय माना गया। उनसे भी जगत कल्याण का भाव रखते उनकी आराधना, स्मरण एक परम्परा बनी। 

ज्ञान-विज्ञान के उपलब्ध स्रोतों के अनुसार मानव इस सृष्टि का सर्वाधिक विचार शक्ति से समृद्ध प्राणी है तो उसी पर यह ज़िम्मेदारी भी है कि वह सभी को संरक्षण-संवर्धन का संबल देते उन्हें यथायोग्य प्रगति हेतु समान अवसर उपलब्ध करावे। हमारे भारतीय मनीषियों ने इसे ही अपना जीवन लक्ष्य बना, सभी की चिन्ता करते, सभी को समान रूप से यथोचित सम्मान, स्वाभिमान युक्त स्वाभाविक जीवन जीने की स्वतंत्रता सहित किसी को भी उसके स्वाभाविक विकास की गति अवरुद्ध न करने के कुछ सामाजिक नियम बनाये और यह भी स्पष्ट किया कि देश-काल-परिस्थितियों के अनुकूल ये परिवर्तनीय भी हैं। 

यह भी एक वजह रही कि हमारे विशाल भारतीय भूभाग में अनेकों प्राकृतिक भौगोलिक स्थितियों, अलग-अलग क्षेत्र में उपलब्ध विविधता पूर्ण प्राकृतिक संसाधनों, बदलती जलवायु, अलग-अलग आस्था-परम्परा-विश्वास, रहन-सहन, रीति-रिवाज़, खान-पान आदि में रचे बसे मानव समूहों की विविधताओं से भरा समाज रहा। ऐसे में नैतिक रूप से सभी को उदारता पूर्वक निजता, अभिव्यक्ति, आस्था, रहन-सहन की स्वतंत्रता प्रदान करना आवश्यक था। 

सनातन परम्परा इस विचार का पूर्ण परिपालन करती है इसीलिए सनातन परिपाटी में अन्तिम एकमात्र सत्य जैसा कोई विचार नहीं रहा। इस वैचारिक परम्परा में किसी भी विचारक द्वारा अन्तिम एक मात्र सत्य का द्रष्टा होने की सार्वजनिक घोषणा को भी कभी स्वीकारा नहीं गया बल्कि हमेशा सभी ने अपना दृष्टिकोण रखते अन्य दृष्टियों पर भी चिंतन-मनन की सदभाद्भावना बनाये रखी। 

भारतीय दर्शन, वैचारिक परम्परा सदैव विपरीत मत-मतांतर को भी सम्मान देते लोक जगत के समक्ष अपना अभिप्राय स्पष्ट रूप से कहने, विचार हेतु प्रस्तुत करने को प्रोत्साहित करते दिखते हैं। बलात् किसी पर अपनी बात थोपने या सहमति हेतु बाध्य करना हमारी सनातन परम्परा में स्वीकार्य नहीं रहा। यहाँ आचार्य शंकर पूरे देश में विद्वानों को अपनी तार्किकता से अपना अनुयायी बनाने के साथ अन्य को निष्प्रयोज्य कह सकते थे लेकिन आज तक चार्वाक दर्शन की पुस्तकें भी हमारे यहाँ पठन-पाठन, विचार हेतु सुरक्षित हैं। विपरीत भाषा-बोली और स्पष्ट कथन के कारण चर्चित कबीर भी विद्वानों से परिपूर्ण काशी नगरी में सम्मानपूर्वक सुरक्षित रहे। वर्तमान काल में भी देखें तो पूरे संसार में विवादित हो कर भी ओशो रजनीश और उनके विचार इस देश में दबाये, कुचले नहीं गए।

इतना सब होने के बाद भी क्यों ऐसी परिस्थितियाँ बार-बार निर्मित होते रहती हैं कि हमें हमेशा ही पुनर्विचार की ज़रूरत पड़ती रहती है . . .? 

हर बार मानवीयता की अपेक्षा मात्र इसी सनातन समाज से सभी को रहती है जबकि यह तो सदैव से ही मनुष्य मात्र ही नहीं बल्कि समस्त चराचर को संरक्षित, संवर्धित करने के सतत प्रयत्न मानव सभ्यता के प्रारंभिक काल से स्वाभाविक प्रवृत्ति के कारण कर ही रहा है। 

इसके पीछे सम्भवतः समस्त मानव सभ्यताओं के शोधार्थी विद्वानों का यह आकलन भी हो सकता है कि विश्व में एक समय अपनी समावेशी प्रवृत्ति से विश्वगुरु पद पर प्रतिष्ठित भारत और यहाँ की सनातन परम्परा में ही वह शक्ति निहित है कि वह सात्विक-तात्विक रूप से सम्पूर्ण संसार को सुरक्षित रूप से अस्तित्व रक्षा हेतु मार्गदर्शन प्रदान कर सके। 

निःसंदेह भारत सदैव से यह करता आया है। भविष्य में भी करेगा परन्तु अनेक प्रकार से छल-छद्मपूर्वक भारतीय सभ्यता-संस्कृति पर कुठाराघात की चेष्टाओं के साथ भारत की उदार, समावेशी विचार परम्परा को उसकी कमज़ोरी समझना किसी के लिए भी घातक हो सकता है, क्योंकि जहाँ एक ओर भारतीय चिंतन लोक हितैषी परमानंद में समाधिस्थ शिव को मन में बसाए है, वहीं उन्हीं शिव का महाकाल प्रलयंकारी तांडवरत स्वरूप भी भारतीय मनीषा में स्थापित है। संसार को भस्मीभूत करने में सामर्थ्यवान महाकाली भी सनातन परम्परा में सुपूज्य हैं। शास्त्र और शस्त्र दोनों ही संतुलित रूप से सनातन में निहित हैं। 

समाज हित में कब, किसका, कितना प्रयोग किया जाना उचित है यह सदैव से समदर्शी, प्रज्ञावान, प्रबुद्ध विद्वानों द्वारा प्रदत्त स्पष्ट मार्गदर्शन में निहित रहा है। 

समयानुसार राग-द्वेष-मोह से परे स्पष्ट नीति निर्धारण प्रबुद्धजनों का महत्त्वपूर्ण दायित्व रहा है, सदैव रहेगा, क्योंकि स्पष्ट निर्णायक मार्गदर्शन के अवसर पर “तटस्थता” से ही “महाभारत” जैसे सर्वनाश की भूमिका का सृजन भी संभाव्य है अतः उसे भी दृष्टिगत रखना ही होगा। 

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