एक रिश्ता ऐसा भी

15-08-2025

एक रिश्ता ऐसा भी

नरेंद्र कौर छाबड़ा (अंक: 282, अगस्त प्रथम, 2025 में प्रकाशित)

 

जीजा जी यानी मौसेरी बहन कृष्णा के पति का फोन था—

“क्या बात है साली जी, आजकल याद ही नहीं करतीं। तुम्हारी दीदी कुछ बीमार चल रही है बहुत याद कर रही है तुम्हें, थोड़ा समय निकालकर मिलने आ जाओगी तो उसे अच्छा लगेगा।” 

“क्या हो गया दीदी को . . .? कोई सीरियस बात तो नहीं . . .?” अनायास मेरी आवाज़ में गंभीरता आ गई थी। 

“नहीं ऐसी भी कोई गंभीर बात नहीं है तुम परेशान मत हो लेकिन आ जाओगी तो उसे ख़ुशी होगी।” 

“ठीक है जीजा जी, मैं जल्द ही आने का प्रोग्राम बनाऊँगी।” कह कर मैंने फोन रख दिया। सोचने लगी कितने दिन हो गए कृष्णा दीदी से मिले। हाँ लगभग 2 साल का वक़्त बीत चुका है। यह तो विज्ञान की मेहरबानी है कि आधुनिक तकनीकी क्षेत्र में क्रांति के कारण आज फोन, मोबाइल, कंप्यूटर, इंटरनेट पर चैटिंग, वेब कैम से प्रत्यक्ष बातचीत और भी न जाने कौन-कौन सी सुविधाएँ उपलब्ध हैं। दीदी और मेरे बीच फोन, मोबाइल पर महीने में दो-तीन बार तो अवश्य बातचीत होती थी। अभी शायद 15 दिन पहले फोन लगाया था। दीदी से बात नहीं हो सकी थी जीजा जी ने ही फोन उठाया था और कहा था तुम्हारी दीदी सोई हुई है आजकल थोड़ा सा काम करके ही थक जाती है। 

“तबीयत तो ठीक है ना डॉक्टर को दिखाया . . .?” मेरी आवाज़ में चिंता महसूस कर वे बोले थे, “पूरा चेकअप कराया है चिंता की कोई बात नहीं।” फिर मैं भी अपनी पारिवारिक सामाजिक व्यस्तता में खो गई और दीदी का भी फोन नहीं आया। बेशक जीजा जी ने दीदी के स्वास्थ्य के बारे में चिंता जैसी बात से इनकार किया था लेकिन मुझे अंदर से महसूस हो रहा था दीदी के साथ ज़रूर कुछ समस्या है वरना वे ख़ुद फोन पर बात करती। मुझे उनसे मिलने की इच्छा बलवती होने लगी। 2 वर्ष में तो मनुष्य के जीवन में कितना कुछ बदल जाता है। पता नहीं दीदी के साथ सब ठीक चल रहा है या नहीं। 

कृष्णा दीदी और मेरी उम्र में चार-पाँच वर्ष का अंतर था एक ही शहर और एक ही महल्ले में रहने के कारण हमारा रोज़ मेल होता था। हम दोनों एक ही स्कूल में पढ़ती थीं। उन दिनों निजी स्कूलों का अधिक चलन नहीं था। हम सरकारी स्कूल ही जाते थे। स्कूल घर से एक किलोमीटर से भी अधिक दूरी पर था लेकिन हम दोनों पैदल ही बड़ी सहजता से जाती-आती थीं। महल्ले की और दो-तीन लड़कियाँ भी हमारे साथ चल पड़तीं। बातें करते-करते दूरी का एहसास ही नहीं होता था। शाम को हम सब महल्ले के सार्वजनिक बग़ीचे में इकट्ठे होते, कुछ देर खेलते, कुछ क़िस्से कहानियाँ सुनते-सुनाते और शाम ढलने से पहले अपने-अपने घर लौट जाते। कितने ही वर्षों तक यही दिनचर्या रही। क्योंकि हमारे घर फ़िल्में नाटक आदि देखने पर पाबंदी थी अतः दीदी जब कोई फ़िल्म देख कर आती तो उसकी कहानी वे बग़ीचे में बैठकर सुनातीं। हम सब बड़े शौक़ से सुनते। ऐसा महसूस होता जैसे वास्तव में हम फ़िल्में ही देख रहे हों। 

दीदी की हायर सेकेंडरी स्कूल शिक्षा पूरी हुई तो उनकी पढ़ाई बंद कर दी गई। घरेलू काम जैसे खाना बनाना, सिलाई-बुनाई उन्हें सिखाया जाने लगा क्योंकि साल दो साल में उनकी शादी करनी थी। दीदी काफ़ी सुंदर थी गोरा रंग, ऊँची क़द काठी, आकर्षक नाकनक़्श। उन्हें तो कोई भी पहली नज़र में ही पसंद कर लेता लेकिन मौसी का कहना था सिर्फ़ सूरत से कुछ नहीं होता सीरत ज़रूरी है। लड़की में सभी गुण होने चाहिए। अठारह वर्ष की होते ही दीदी की शादी तय हो गई। उनके पति पढ़े-लिखे कॉलेज में प्राध्यापक थे। उन दिनों लड़के लड़की के माता-पिता ही शादी तय करते थे। लड़के लड़की का आपस में देखना, मिलना, बातचीत करने जैसे औपचारिकताओं का महत्त्व नहीं होता था। 

जो भी लोग शादी में शामिल थे सभी ने तभी ज़ुबान से जीजा जी के व्यक्तित्व को लेकर अलग-अलग प्रतिक्रिया की थी। जीजा जी का व्यक्तित्व दीदी के सामने एकदम बौना था। गहरा रंग, छोटा क़द, अत्यंत साधारण नक़्श और कुछ भारी शरीर। कुछ महिलाओं ने तो दबी ज़ुबान में कह भी दिया—“कृष्णा के लिए यही लड़का इनको नज़र आया, चाँद में ग्रहण लग गया प्रतीत होता है।” कुछ उससे भी आगे निकल गईं— “अपनी कृष्णा की तो छूने भर से मैली हो जाने वाली रंगत है। इसके साथ रहकर तो वह भी काली हो जाएगी संगत का असर तो होता ही है ना . . .” कनखियों से इशारे, हँसी ठठ्ठा होता रहा लेकिन इन सब से बेख़बर मौसी मौसी बड़े उत्साह उमंग से शादी की रस्मों को पूरा करने में व्यस्त रहे। 

शादी के बाद जब-जब दीदी मायके आई उनकी खिली-खिली रंगत, दमकता चेहरा और सुधरता स्वास्थ्य उनकी ख़ुशहाल ज़िन्दगी का सबूत पेश करते। पाँच वर्षों में एक बेटे और एक बेटी की माँ बन ज़िम्मेदारी से अपने घर गृहस्थी में पूरी तरह रम गई थी। अपने सुखी वैवाहिक जीवन के बारे में बताते हुए वह हमेशा कहती मैं बड़ी भाग्यशाली हूँ जो मुझे ऐसा पति मिला है जिसमें सभी मानवीय गुण हैं। मुझे उससे प्रेम, अपनापन, सहयोग, प्रेरणा सभी कुछ मिला है। जीवन सहायता से गुज़रता गया। 

शादी के पश्चात मैं भी दूसरे शहर चली गई लेकिन हमारे बीच पत्र व्यवहार, फिर फोन द्वारा संपर्क बना रहा। पारिवारिक कार्यक्रमों में हम शामिल होते थे वहाँ दोनों उन दोनों का प्रेम चर्चा का विषय बन जाता था। दीदी के साथ जीजा जी अक्सर कार्यक्रम में शामिल होते थे। जीजा जी जब तैयार होकर आते तो दीदी के सामने खड़े हो बड़े प्यार से पूछते—“कृष्णा, देखो ठीक लग रहा हूँ ना!”हम सभी मुस्कुराते। दीदी भी ठीक उसी अंदाज़ में जब पूछती—“सुनिए ठीक लग रही हूँ . . .? तो जीजा जी कहते—“ठीक नहीं बेहद ख़ूबसूरत लग रही हो काला टीका भी लगा लेना कहीं किसी की नज़र ना लग जाए।”

मौसी बताती थी जब कृष्णा मायके आती तो जीजा जी की लिखी एक चिट्ठी रोज़ डाकिया लेकर आता। छोटे भाई-बहन उसे छेड़ते—“इतना भी क्या दीवानापन है! रोज़ चिट्ठी लिख ने बैठ जाते हैं। उनसे कहो थोड़ा सब्र रखें 15-20 दिन इतने लंबे तो नहीं होते . . .” दीदी केवल मुस्कुरा देती लेकिन उसके चेहरे की लालिमा और ख़ुशी देख हम भी संतुष्ट होते बेटी अपने घर सुखी है। 

 समय का चक्र अपनी गति से चलता रहा। दीदी के बच्चे पढ़ लिख कर उच्च शिक्षित हो गए। बेटे को बढ़िया कंपनी में नौकरी लग गई लेकिन दूसरे शहर में। इधर बेटी के लिए अच्छा वर मिल गया तो उसकी शादी भी आनन-फ़ानन में हो गई। अब दीदी जीजा जी अकेले रह गए थे। 

कई बार उनका फोन आता, “क्या कर रही हो . . .? अब तो तुम्हारे दोनों बेटे भी बड़े हो गए हैं कॉलेज जा रहे हैं आ जाओ ना कुछ दिनों के लिए मिलकर रहेंगे . . .” पति व बच्चों की तरफ़ से हरी झंडी मिलने पर मैं सप्ताह भर के लिए कृष्णा दीदी के पास चली गई। 

कृष्णा दीदी कभी चाय नहीं पीती थीं। यहाँ मैंने देखा सवेरे ट्रे में तीन प्याले चाय व बिस्किट रखकर बोली थी, “चलो अनु, बेड टी ले लें।” 

मैंने हैरानी से पूछा है, “दीदी आप तो चाय के नाम से ही चिढ़ती थीं ज़िन्दगी में कभी चाय पीते आपको नहीं देखा। यह करिश्मा कब से हो गया . . .?” 

वे मुस्कुराते हुए बोली, “जब ज़िन्दगी में कोई टूट कर चाहने वाला मिल जाए जिसे आपसे शारीरिक नहीं आत्मिक प्रेम हो तो जीवन में करिश्मे होते ही रहते हैं। मैं तो सिर्फ़ चाय पीने लगी हूँ जबकि यह तो मेरी पसंद की फ़िल्में, नाटक, प्रदर्शनी तक देखने चल पड़ते हैं जबकि इन सब का इन्हें कोई शौक़ ही नहीं था। क्रिकेट से मेरा कभी वास्ता नहीं रहा लेकिन अब इनके साथ बैठकर टीवी पर पूरा मैच शौक़ से देखती हूँ। इन्हें बहुत पसंद है ना . . .” मैं मंत्र मुग्ध से उनकी बातें सुनती रही। 

“जीवनसाथी का अर्थ ही होता है जीवन साथ-साथ जीना जिसमें परस्पर प्यार, विश्वास, समर्पण, आदर्श, अपनापन होगा तभी तो जीवन सहज होगा। उमंग उत्साह से भरा होगा वरना दो ध्रुव की तरह हो जाएगा जो आपस में कभी नहीं मिलते। अब तक बीते अपनी ज़िन्दगी से मैंने यही अनुभव किया है। अगर सच्चे दिल व पूरी निष्ठा से प्रयास किया जाए तो हम जीवन को बड़ी ख़ूबसूरती से अपने ढंग से जी सकते हैं।” 

रात के खाने के बाद हम दोनों बैठ पुरानी स्मृतियों को याद कर गपशप में मशग़ूल थीं। ठंड के शुरूआती दिन थे हल्की ठंडी हवा खिड़की के रास्ते बीच-बीच में आकर ख़ुशनुमा एहसास दिला रही थी। दीदी शायद थक गई थी। कुछ देर बाद ही ऊनींदी सी हालत में बोली, “मुझे नींद आ रही है तुम भी सो जाओ बाक़ी बातें कल करेंगे।” मुझे अभी नींद नहीं आई थी अतः किताब पढ़ने लगी। कुछ देर बाद जीजा जी वहाँ आए। दीदी को सोते हुए देखा तो अलमारी में से कंबल निकाल कर उन पर औढ़ाते हुए बोले, “जब से कृष्ण को थायराइड की बीमारी लगी है इसे ठंड अधिक लगती है पर अपना ख़्याल ही नहीं रखती। ऐसे ही सो गई लेकिन मेरे नाश्ते से लेकर खाने, पहनने, औढ़ने, दवा आदि सब का ख़्याल इसे रहता है। हर कार्य समय से करती है सचमुच इसके बग़ैर तो मैं अधूरा हूँ . . .” 

अगले दिन दीदी उठी तो बोलीं, “रात को नींद तो अच्छी लगी थी फिर भी न जाने क्यों सर दर्द हो रहा है।” 

जीजाजी फ़ौरन बोल उठे, “तुम आराम करो मैं चाय बना लाता हूँ।” मैं जब चाय बनाने के ख़्याल से उठने लगी तो उन्होंने यह कह कर मुझे बैठा दिया कि साली जी कभी हमारे हाथ की चाय पीकर भी देखिए। ट्रे में चाय के साथ मठरी से व बिस्किट लेकर वह कुछ देर में प्रकट हो गए। चाय वाक़ई बहुत अच्छी बनी थी। मैंने कह ही दिया, “दीदी, सच में तुम ख़ुशक़िस्मत हो जिसे जीजा जी जैसा जीवनसाथी मिला है।” दीदी स्वीकृति में मुस्कुरा दी। उनकी शादी के बाद से जीजा जी का दीदी के प्रति जो निर्मल, निश्चल व आत्मीय प्रेम स्नेह देखा था वह ज्यों का त्यों बरक़रार था। 

अब दो वर्षों के बाद दीदी से मिलने गई थी। ताज्जुब हुआ कि इस बार वे पहले की तरह चुस्त, ख़ुश व उत्साहित नहीं हैं। चेहरे से ही स्पष्ट हो रहा था कुछ तनाव में हैं। आख़िर जीजाजी ने ही बताया उनके बेटे ने अपनी सहकर्मी से शादी कर ली है और वे विदेश चले गए हैं। इस तनाव को लेकर दीदी अंदर ही अंदर घुल रही थी। मैं उन्हें समझाती रही कि बदलते वक़्त के साथ अब इन बातों को गंभीरता से नहीं लेना चाहिए। अब बच्चे अपनी मर्ज़ी से जीवन जीना चाहते हैं। हमें ही समझौतावादी रुख़ अपनाना चाहिए। लेकिन दीदी सहज नहीं हो पा रही थीं। तीन-चार दिन रहकर मैं लौट आई। 

अगले वर्ष हमारे बड़े बेटे को विदेश में एक अंतरराष्ट्रीय कंपनी में बढ़िया नौकरी लग गई। कुछ समय बाद उसने हमें वहाँ बुलाया। वापस लौटे तो मौसी की बहू से ख़बर मिली कृष्णा दीदी नहीं रहीं। पिछले माह उन्हें ज़बरदस्त दिल का दौरा पड़ा था। अस्पताल में चार-पाँच दिन मौत से लड़ने के बाद वे चल बसी थी। सुनकर गहरा सदमा पहुँचा था। जीजा जी की क्या मनोदशा होगी यह सोचकर ही मन भारी होने लगा। 

जब हम उन्हें मिलने गए वे उदास और थके से लग रहे थे। मेरी रुलाई फूट पड़ी, “बेटे के विवाह को लेकर दीदी ने इतना तनाव पाल लिया कि ख़ुद ही बीमार हो गई ।” 

जीजा जी ने धीरे से कहा, “कृष्णा को ब्रेन कैंसर हो गया था। काफ़ी देर से पता लगा तब तक लाइलाज हो चुका था। उसे जब इस बात का पता चला तो वह काफ़ी घबरा गई थी। अपने बीमारी की चिंता की बजाय उसे यह चिंता थी कि उसके जाने के बाद मेरा क्या होगा? कैसे अकेला रह पाऊँगा? अंतिम दिनों में तो वह मुझे समझाती रहती थी मैं स्वयं को किस प्रकार व्यस्त रख सकता हूँ, मुझे अपने स्वास्थ्य का किस प्रकार ख़्याल रखना है, मेरी दवाइयाँ कहाँ रखी हैं? ज़रूरी काग़ज़ात, ज़ेवर व अन्य क़ीमती सामान कहाँ रखा है इसकी जानकारी देती रहती थी। इसी चिंता में उसे ज़बरदस्त दिल का दौरा पड़ा और मुझे छोड़ कर चली गई। सचमुच मैं बहुत अकेला हो गया हूँ . . .।” 

सहज हो जाने पर जीजा जी बोले, “मैंने कृष्णा को लेकर कुछ कविताएँ लिखी हैं सुनोगी . . .” मेरी स्वीकृति पर वह उठकर भीतर गए एक डायरी हाथ में लिए लौटे। दीदी के वियोग में लिखी विरह कविता में उन्होंने दीदी के लिए नूरी, फूल, चाँदनी जैसी कई उपमाएँ दी हुई थीं। दीदी की, उनके प्यार, समर्पण की ख़ूब प्रशंसा की थी। उत्सुकता से मैंने पूछ लिया, “आप पहले भी कविता लिखते थे क्या?” वे बीच में ही बोल पड़े, “शादी के बाद कृष्णा ने इतना प्यार दिया कि मैं तुकबंदी करने लगा। उसे लिखे हर पत्र में मैं कुछ कविताएँ ज़रूर लिखता था। कविता बने या शेर इससे मुझे कुछ लेना-देना नहीं होता था। मुख्य बात होती थी अपनी भावनाओं को उस तक पहुँचाना। मैंने उसे एक बार कहा था कि मैं जो भी पत्र लिखता हूँ उन्हें सहेज कर रखना। मुझे बड़ी ख़ुशी होगी क्योंकि उनमें मैं अपने भीतर का पूरा प्यार। स्नेह, आदर, समर्पण सभी कुछ डाल देता हूँ।” 

तुम्हें हैरानी होगी हृदयाघात होने से एक दिन पहले उसने एक रेशमी बैग में मेरी लिखी सारी चिट्ठियाँ मुझे सौंपते हुए कहा था—“यह आपकी अमानत आपको सौंप रही हूँ। पता नहीं कब साँसों की डोर टूट जाए इसे सँभाल लेना। आपसे किया वादा पूरा कर दिया है ।” 

जीजाजी ने वे पत्र भी हमें दिखाए जो 35 वर्ष पहले उन्होंने प्रेम में पगे दीदी को लिखे थे। कमरे में दीदी की मुस्कुराती बड़ी सी फोटो लगी हुई थी। जीजा जी उसे बड़े प्यार से निहारते हुए बोले, “अस्पताल जाने से दो-चार दिन पहले यह फोटो मैंने ही खींची थी। उस दिन कृष्णा मुझे बेपनाह ख़ूबसूरत लग रही थी। मैंने जब फोटो खींचने की बात की तो फ़ौरन तैयार हो गई। फिर बोली इस फोटो पर हार मत चढ़ाना क्योंकि हार तो उसे चढ़ाया जाता है जो यह संसार छोड़कर चला जाता है। मैं तो हमेशा आपके संग ही रहूँगी, आपकी यादों में, क्रियाकलापों में, सपनों में, वार्तालाप में। आपने इतना प्रेम जो दिया है। क्या मैं आपको अकेला छोड़ सकती हूँ . . .?” 

जीजा जी के चेहरे पर कुछ देर पहले जो उदासी सूनापन था उसके स्थान पर अब सहज, स्थिर और शांत नज़र आने लगे। कुछ देर की चुप्पी के उपरांत वे बोले, “पहले मुझे लगता था कृष्णा के बिना मैं जी नहीं पाऊँगा लेकिन अब महसूस होता है वह तो मेरे साथ ही है। उसकी मधुर स्मृतियाँ मेरे हर क्रियाकलाप में, मेरे आस-पास हमेशा रहती हैं। वह केवल शरीर छोड़कर गई रूहानी रूप से तो सदा मेरे साथ रहती है। यह फोटो देखा कैसे मुस्कुरा रही है। उसके आत्मिक प्रेम के सहारे अपना शेष जीवन मैं सहजता से जी लूँगा। मैं सोचने लगी आज जब संसार में प्रेम जैसा पवित्र शब्द एक व्यापार बनकर रह गया है वहाँ दीदी जीजा जी का पावन, आत्मिक प्रेम कितना शक्तिशाली है जो जीवन के बाद भी उतना ही महत्त्व व प्रभाव रखता है। उनके निश्छल, निर्मल, पावन प्रेम के प्रति मन श्रद्धा से भर उठा। 

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