एक गीत लिखने का मन है
सुरेन्द्रनाथ तिवारीएक गीत लिखने का मन है।
जिसमें माटी की सुगंध है, महुआ, जामुन औ कदंब है।
गुलमोहर है, अमलतास है, बागनबेली औ पलास है।
जहाँ जेठ की दुपहरिया है, औ अषाढ़ की रुन-झुन-झुन है।
स्निग्ध शरद की पूनम जिसमें, रंग रंग जिसका फागुन है।
धनखेतों की हरियाली है, पग पग में लिपटा सावन है।
ऐसा गीत लिखने का मन है।
जिसमें नूपुर की रुनझुन है, जिसमें बिंदिया की चमचम है,
तरल हो जैसे अंगड़ाई, औ पोर-पोर जिसका सरगम है।
जिसमें काया की माया है, जिसमें है उल्लास प्रणय का।
प्यासे अधर, मिलन की चाहत, वह पगला उन्माद हृदय का।
छंद छंद जिसका नर्तन है, पोर पोर जिसकी गुंजन है,
ऐसा गीत लिखने का मन है।
छविगृह की वह दीपशिखा है, कंकण-किंकिणी के मृदु-स्वर हैं।
मर्यादा-मय राम जहाँ हैं, लीलाधर नटवर नागर हैं।
पूरनमासी, यमुना तट है, ब्रज की गलियाँ, बंशी-वट है।
कालिन्दी पर बिछी ज्योत्सना लिपटी हो मेरे छ्न्दों से,
जैसे गोपियों के गालों से, कान्हा के तुतले अधरों से,
लिपटा कोई ब्रज-रज-कण है।
ऐसा गीत लिखने का मन है।
झाला की तलवारें झनझन, झांसी की गर्वीली रानी।
राणा का चेतक हो जिसमें शौर्य-प्रतिम पद्मिनी बलिदानी।
जिसमें गाँधी औ सुभाष हों, भगत सिंह हों, जयप्रकाश हों।
आज़ादी का तुमुल सूर्य हो, राष्ट्र-धर्म का प्रखर सूर्य हो।
राष्ट्र-वंदना भाषा जिसकी, हर स्वर जिसका जन-गण-मन है।
ऐसा गीत लिखने का मन है।
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