आज फिर ढलने लगी है शाम, प्रिय देखो ज़रा

17-05-2012

आज फिर ढलने लगी है शाम, प्रिय देखो ज़रा

सुरेन्द्रनाथ तिवारी

आज फिर ढलने लगी है शाम, प्रिय देखो ज़रा।
आज फिर यह झील सोने की नयी गागर बनी है,
फिर प्रतीचि के क्षितिज पर स्वर्ण की चादर तनी है।
बादलों की बालिकायें, सिन्दूरी चूनर लपेटे,
उछलती उत्ताल लहरों पर, बजाती पैंजनी है।

 

यह पुकुर का मुकुर कितना हो रहा अभिराम? प्रिय देखो ज़रा।

 

आज फिर ढलने लगी है शाम, प्रिय देखो ज़रा।
कौंध यादों में गया है पुन: कालिन्दी का तट-बट,
गोपियों की खिलखिलाहट, फागुनी ब्रज-ग्राम पनघट।
रोज किरणों की नई पीताम्बरी चूनर पहन कर,
खेलते यमुना के जल में श्यामवर्णी मेघ नटखट।

 

याकि कालिय पर थिरकते पीतपट घनश्याम। प्रिय देखो ज़रा।

 

आज फिर ढलने लगी है शाम, प्रिय देखो ज़रा।
इन्द्र-धनुषी क्षितिज के पथ सूर्य का रथ जा रहा है।
चाँद पूरब की लहर पर डुबता-उतरा रहा है।
स्निग्ध संध्या ने सितारों की नई साड़ी पहन ली,
नया पुरवैया का झोंका झील को सहला रहा है।

 

उतर आया व्योम पीने झील का सौन्दर्य यह उद्‌याम। प्रिय देखो ज़रा।


आज फिर ढलने लगी है शाम, प्रिय देखो ज़रा।

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