डॉ. रमा द्विवेदी का एक सशक्त लघुकथा संग्रह: मैं द्रौपदी नहीं हूँ

15-02-2025

डॉ. रमा द्विवेदी का एक सशक्त लघुकथा संग्रह: मैं द्रौपदी नहीं हूँ

राजेश कुमार सिन्हा (अंक: 271, फरवरी द्वितीय, 2025 में प्रकाशित)

पुस्तक समीक्षा: ‘मैं द्रौपदी नहीं हूँ’ (लघुकथा संग्रह) 
लेखिका: डॉ. रमा द्विवेदी
प्रकाशक: शब्दांकुर प्रकाशन, नई दिल्ली
पृष्ठ संख्या:122 
मूल्य: ₹300/- (पेपर बैक) 

‘मैं द्रौपदी नहीं हूँ’ डॉ. रमा द्विवेदी का एक सशक्त लघुकथा संग्रह है, जिसमें 111 लघुकथाएँ शामिल हैं। यह संग्रह अपने समय और समाज की जटिलताओं, विशेषकर स्त्री जीवन की वास्तविकताओं, संघर्षों और आत्मनिर्भरता को केंद्र में रखकर लिखा गया है। लेखिका ने न केवल स्त्री विमर्श को गहराई से उठाया है, बल्कि परिवार, समाज, और मनुष्य के भीतर चल रही नैतिकता और व्यवहारिकता की टकराहट को भी रेखांकित किया है। इसमें कोई दो राय नहीं है वर्तमान समय में लघुकथा एक नई विद्या के रूप में अपनी जिजीविषा के साथ अपनी पहचान बनाने के लिए प्रयत्नशील है और उनमें वह काफ़ी हद तक सफल भी है। प्रसिद्ध साहित्यकार अवध नारायण मृदगल लघुकथा को अत्यंत समर्थ विद्या मानते हुए सोच के नए धरातलों की तलाश बदलते हुए और तेज़ी से बदलते हुए सामाजिक, सांस्कृतिक व्यक्तिक संदर्भों से साक्षात्कार और विकासशील विद्या के रूप में स्वीकृत किया है। अगर हम इन तथ्यों के परिप्रेक्ष्य में इस कथा संग्रह को देखें तो यह एहसास होता है कि इस लघुकथा संग्रह में वह सब कुछ है जिसकी अपेक्षा एक स्तरीय संग्रह में शामिल कथाओं से की जानी चाहिए। इस संग्रह की कथाएँ विविध विषयों को समेटे हुए हैं। मुझे लगता है कि इस संग्रह में जितनी रचनाएँ शामिल हैं उनका या उनके किरदारों का सम्बन्ध कहीं न कहीं आम ज़िन्दगी में गाहे बगाहे मिल जाने वाले किरदारों से ज़रूर है। बकौल डॉ. रमा द्विवेदी “कोई भी लेखक सिर्फ़ कल्पना के आधार पर लेखन नहीं कर सकता। उसे अपने अंतर्द्वंदों से जूझना पड़ता है तब कहीं वो विषय के अनुरूप सार्थक शब्दों की पृष्ठभूमि तलाश कर रचना को शब्द बद्ध कर देता है।” इस लघुकथा संग्रह की शीर्षक कथा ‘मैं द्रौपदी नहीं हूँ’ एक शिक्षित और आत्मनिर्भर महिला प्रज्ञा की कहानी है, जो अपने ससुराल में उत्पीड़न और अनुचित व्यवहार का सामना करती है। अपने सम्मान की रक्षा करने के लिए प्रज्ञा का दृढ़ और साहसिक रुख़ इस बात को स्पष्ट करता है कि आज नारी उपभोग की वस्तु नहीं है साथ ही आधुनिक स्त्री अब स्वयं अपनी रक्षा करने में भी सक्षम है। 

संग्रह की अन्य लघुकथाओं में स्त्री के संघर्ष, उसकी चुनौतियाँ और समाज की जड़ सोच के ख़िलाफ़ उसकी लड़ाई, रिश्तों की पीड़ा, आभासी दुनिया के पीछे का सच, साहित्य जगत में चलने वाली तथाकथित सियासत, राजनीतिक नारों का खोखलापन, समाज में चलने वाले अमानवीय कृत्यों, सामाजिक सरोकारों, स्त्री पुरुष के पारस्परिक सम्बन्ध, पारिवारिक कलह, जाति प्रथा और बेमेल जैसे विषय शामिल किए गए हैं। 

“ठगुआ कवि”, “लोभी गुरु लालची चेला”, “मानद उपाधि”, “धंधा”, “शिक्षा शिरोमणी”, “कोचिंग की बैसाखियाँ” और “कविता चोर”, “सरतार बनिया, नून चबेना”, “साहित्यिक यात्रा मुफ्त”, “हर धान रुपए में बाइस पसेरी”, और “टैगियासुर” जैसी कथाएँ आभासी दुनिया और शिक्षा जगत में फैले माफ़िया के साथ साथ यहाँ की गतिविधियों को बख़ूबी सामने लाती हैं और पाठकों को सच से रूबरू कराती हैं। इनमें से कुछ कथाएँ सटीक तंज़ के रूप में भी देखी जा सकती हैं। 

इस संग्रह में कोरोना के दौरान लगाए गए लॉक डाउन, इस बीमारी से उत्पन्न त्रासदी और उससे जुड़े प्रश्नों को लेकर भी कुछ लघु कथाएँ सम्मिलित की गई हैं मसलन “कैसा जुनून”, “पीड़ा की अनुभूति”, “कोरोना का कहर”, “मदिरालय खुल गए”, “सतयुग आ गया समझो”, “बहुतहि डरे कोरोना”, “कोरोना से प्रश्न”, “इंसानियत ज़िन्दा है”, “सम्मान के हकदार” और “प्रकृति के अनुकूल” आदि जिनमें इस महामारी से जुड़े तथ्यों उनके प्रभाव और कुछ लोगों की मंशा को भी दर्शाया गया है। यह वाक़ई बहुत ही गंभीर विषय है कि हमारे समाज में अभी भी बेटियों की को लेकर सकारात्मक सोच नहीं बन पाई है और कई परिवारों में इन्हें दोयम दर्जे का माना जाता है। इस सच को भी लेखिका ने अपनी कथाओं “पापियों को हों बेटियां”, “गाय बचाना है”, “हल में जोतना है क्या” और “ऑनर किलिंग” में बहुत संजीदगी से उकेरा है जो लेखिका के विषय के प्रति संवेदना को स्पष्ट करता है। हम अपने आस पास अक्सर कई ऐसे माता पिता को देख सकते हैं जो अपनी महत्वाकांक्षा को अपने बेटे के माध्यम से पूरी करना चाहते हैं, पर वे इस बात से अनभिज्ञ रहते हैं कि कई बार ऐसा करके वे अपने बेटे का ही नुक़्सान कर देते हैं। इस समस्या को भी लेखिका ने अपनी एक लघुकथा “महत्वाकांक्षा का बोझ” में उठाता है जहाँ बच्चा कम मार्क्स लाने के कारण इतनी डाँट सुनता है कि उसे काफ़ी तेज बुख़ार हो जाता है जिसकी वजह से वह मानसिक रूप से कमज़ोर हो जाता है। यह कहने में कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी कि इस संग्रह में शामिल की गई लघुकथाएँ संक्षिप्त हैं, लेकिन गहराई और प्रभाव में अद्वितीय हैं। हर कहानी में एक मुख्य संदेश छिपा हुआ है, जिसे लेखिका ने अत्यंत कुशलता से प्रस्तुत किया है। कथानक में कहीं भी अनावश्यक विस्तार नहीं है। लघुकथाएँ सीधे विषय पर आती हैं और अपने उद्देश्य को स्पष्ट करती हैं साथ ही लेखिका की यह कोशिश रही है कि ऐसे तमाम विषयों को स्पर्श किया जाए जो प्रासंगिक होने के साथ साथ हमारी संवेदना को दस्तक देती हैं। 

डॉ. रमा द्विवेदी की भाषा शैली सरल, प्रवाहमयी और प्रभावशाली है। संवाद कम शब्दों में गहरा प्रभाव छोड़ते हैं। पात्रों की भावनाओं और परिस्थितियों को व्यक्त करने में लेखिका की भाषा अत्यंत सजीव और सटीक है। हर लघुकथा में कहानी को कम शब्दों में प्रस्तुत करने की कला स्पष्ट दिखाई देती है। 

लेखिका ने कई कहानियों में प्रतीकों और बिंबों का सुंदर उपयोग किया है जिसका सीधा असर यह होता है कि कथाएँ पाठक के मन-मस्तिष्क पर गहरा प्रभाव छोड़ती हैं। कथाओं में समाज और व्यक्ति के यथार्थ का चित्रण है, जो पाठक को सोचने पर मजबूर करता है। 

संग्रह की अधिकांश कथाएँ स्त्री के संघर्ष, उसकी स्वतंत्रता, और समाज में उसके बदलते स्थान को रेखांकित करती हैं। लेखिका ने परंपरागत सोच और आधुनिक स्त्री की मनोदशा के द्वंद्व को बहुत ही कुशलता से उकेरा है। 

पुस्तक की छपाई और काग़ज़ की गुणवत्ता उत्कृष्ट है। कवर पृष्ठ आकर्षक और शीर्षक के अनुरूप है। लघुकथा संग्रह का आकार और प्रस्तुति इसे पाठकों के लिए संग्रहणीय बनाते है

डॉ. रमा द्विवेदी का यह संग्रह लघुकथा साहित्य में एक महत्त्वपूर्ण योगदान है। उन्होंने समाज की जटिलताओं को न केवल उजागर किया है, बल्कि उन्हें एक सकारात्मक दृष्टिकोण के साथ प्रस्तुत भी किया है। 

‘मैं द्रौपदी नहीं हूँ’ समकालीन समाज की जटिलताओं और स्त्री के संघर्ष का आईना है। यह संग्रह न केवल एक साहित्यिक कृति है, बल्कि समाज के लिए एक प्रेरणादायक दस्तावेज़ भी है। डॉ. रमा द्विवेदी की लेखनी पाठकों को सोचने पर मजबूर करती है और समाज में व्याप्त कुरीतियों के प्रति जागरूक करती है। यह संग्रह न केवल साहित्य प्रेमियों के लिए, बल्कि समाज के हर वर्ग के लिए पठनीय और संग्रहणीय है। यह संग्रह स्त्री विमर्श और सामाजिक मुद्दों पर चर्चा करने वालों के लिए अवश्य पढ़ने योग्य है और इसका स्वागत किया जाना चाहिए। इस संग्रह को तैयार करने में डॉ. रमा द्विवेदी ने अपने भीतर की उस दुनिया को बाहर लाने का काम किया है जो उनकी चेतना को निरंतर मथ रही थी और मुझे पूरा विश्वास है कि यह संग्रह आज के समय को समझने में भी सहायक सिद्ध होगा।

राजेश कुमार सिन्हा 
खार (पश्चिम), मुंबई 52
7506345031

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