धरम-करम

15-11-2022

धरम-करम

यशोधरा भटनागर (अंक: 217, नवम्बर द्वितीय, 2022 में प्रकाशित)

“भाभी बहुत भूख लग रई, रात से कछु नई खाओ है। चाय के साथ कछु . . .”

और उसने झट रात की रोटी दुलारी को दे दी। 

“बहू देख तो गैया दरवाज़े पर खड़ी है। डब्बा में धरी है गैय्या की रोटी। तनिक दे दो बा को। बहू ओ बहू! ज़रा नहीं सुनत है। तनिक धरम-करम भी कर लिया करो।”

“हओ अम्मा! अब्बई आ रये।”

“कुछ देर पहले ही तो . . . अब . . .?” 

झटपट आटा गूँध, चूल्हे पर तवा रख, वह रोटी बेल रही थी। 

“बहू! ओ बहू! काय तुम धरम करम नहीं जानत? गोमाता कबै तक खड़ी रेहैं?” 

तमतमाई अम्मा जी धमाधम रसोई में पहुँच गई, “काय बहू। . . .! हे भगवान गैया की रोटी . . .न जाने तुम कब धरम करना सीख हो? तुमाई अम्मा ने कछु नई सिखाओ तुमको।”

नर में नारायण को देखती तैंतीस करोड़ देवी-देवताओं को मनाती भी वह अनजाने अपराध बोध से दबी जा रही थी। 

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