(साभार- ’देवालय’ काव्य संकलन से)
दीप जल रहा है।
धीरे-धीरे सुलगती आग,
उसके प्राणों को फूँक रही है।
लगता है,
जैसे विगत की
अनेकों स्मृतियाँ,
उसके हृदय को झकझोर रही हैं।
दीप का मोम-सा तन
गल रहा है,
धुल रहा है,
साँसों का बोझ लेकर।
यह भी विरही है,
दूर हैं इसके प्राण इससे।
लो,
उसकी दम टूटने लगी,
शरीर शिथिल हो चला,
बस,
एक हिचकी और!
आशायें टूट गईं,
लौ बढ़ी
और जड़ हो गई।
दुनियाँ ने देखा भी नहीं।
मगर मुझे,
इससे सहानुभूति है।
इसलिए
क्योंकि,
वह दीप मेरी आशाओं का है।....