दरख़्तों के साये तले

03-05-2012

दरख़्तों के साये तले

तेजेन्द्र शर्मा

दरख़्तों के साये तले
करता हूँ इंतज़ार
सूखे पत्तों के खड़कने का
बहुत दिन हो गये
उनको गये
घर बाबुल के।

 

रास्ता शायद यही रहा होगा
पेड़ों की शाखों
और पत्तियों में
उनके जिस्म की ख़ुशबू
बस कर रह गई है।

 

पत्ते तब भी परेशान थे
पत्ते आज भी परेशान हैं
उनके क़दमों से
लिपट कर, खड़कने को
बेचैन हैं।

 

मगर सुना है
कि रूहों के चलने से
आवाज़ नहीं होती।

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