दक्खिनी का पद्य और गद्य : भारतीय साहित्य की अनमोल धरोहर
डॉ. एम. वेंकटेश्वरभारत प्राचीन काल से ही अनेक भाषाओं और संस्कृतियों की जन्मस्थली रही है। भारतीय संस्कृति इस भूखंड में अनादि काल से विकसित अनगिनत भाषा रूपों के माध्यम से पुष्पित और पल्लवित होती रही है।
संस्कृत भारत की प्राचीनतम भाषा के रूप में विख्यात और सर्वमान्य है। संस्कृत, पालि, प्राकृत, अपभ्रंश और अवहट्ट से उत्पन्न होकर कालांतर में परिष्कृत होकर परस्पर एक दूसरे के संसर्ग में आकर आदान-प्रदान की प्रक्रिया के परिणामस्वरूप तथा विभिन्न स्थानीय बोलियों से प्रभावित होकर आधुनिक काल तक आते-आते भारत अनेक भाषिक समुदायों का एक महादेश बन गया। कालांतर में ऐतिहासिक कारणों से विदेशियों के इस भूखंड में आकर बस जाने से भारतीय भाषाएँ उन विदेशी भाषाओं को आत्मसात कर गईं जिससे अनेक नई मिश्रित भाषाओं और बोलियों का विकास इस भारत भूमि पर हुआ। अपभ्रंश से विकसित भाषाओं में पश्चिमी और पूर्वी हिंदी की बोलियाँ जिनका प्रयोग क्षेत्र मूलतः उत्तर भारत ही रहा है, मुस्लिम शासकों के शासन काल में फ़ारसी भाषा का वर्चस्व उत्तर भारत के तमाम प्रदेशों में स्थापित हुआ। प्रकारांतर से उर्दू भाषा का विकास मुस्लिम सैनिकों के मध्य संप्रेषण की भाषा के रूप में लोकप्रिय हुई। मुस्लिम राजवंशों के दक्षिण भारत में राज्य विस्तार से दक्षिण भारतीय भाषिक भूगोल में भारी परिवर्तन हुआ। परिणामस्वरूप उर्दू और फ़ारसी के साथ-साथ उत्तर भारत की विभिन्न भाषाओं और बोलियों का दक्षिण की भाषाओं के साथ मिश्रण की प्रक्रिया ने नए-नए भाषिक रूपों को विकसित किया। ये नए भाषिक रूप केवल संवाद के माध्यम तक ही सीमित नहीं रहे बल्कि इन भाषा रूपों में विपुल साहित्य का भी सृजन हुआ। ऐसा ही एक सुसमृद्ध भाषिक रूप है ‘दक्खिनी’। दक्षिण भारत के निवासी, मुसलमानों के दक्षिण-प्रवेश के पहले ही उत्तर भारत की भाषाओं और बोलियों से परिचित थे, क्योंकि चालुक्य राजवंश और यादव राजवंश के संस्थापक उत्तर भारत से ही वहाँ पहुँचे थे और शक्तिशाली राज्यों की स्थापना की थी किंतु तेरहवीं शताब्दी के अंत में अलाउद्दीन खिलजी और उसके विश्वस्त सेनानायक मलिक काफूर ने जब अपनी विशाल सेना के साथ दक्षिण पर बार-बार आक्रमण करके 1290 ई.. से 1316 ई.. के बीच देवगिरि के यादवों, वांगल के काकतीयों, द्वारसमुद्र के होयसलों तथा मदुरा के पाँड्यों को जीतकर मुस्लिम साम्राज्य का विस्तार किया तो उत्तर और दक्षिण के बीच एक नए सांस्कृतिक संबंध की शुरुआत हुई। इस विशाल सेना के साथ उत्तर भारत जाने वाले अनेक सैनिक, छोटे कर्मचारी, व्यापारी तथा सूफ़ी फ़क़ीर वहीं बस गए। यह लोग दिल्ली से अपने साथ एक ऐसी भाषा साथ ले गए थे, जो मुसलमानों और हिंदुओं के संपर्क से दिल्ली के आसपास विकसित हो रही थी। प्रो. एहतेशाम हुसैन के शब्दों में – “इस भाषा में पंजाबी, हरियानी और खड़ीबोली का मेल था, यह ब्रजभाषा के प्रभाव से भी बची नहीं थी। और सबसे बड़ी बात यह थी कि इसमें फ़ारसी-अरबी के अनेक शब्द भी सम्मिलित हो गये थे। इतिहास से पता चलता है कि आरंभ में उन्होंने उसी भाषा से काम चलाया, यहाँ तक कि वह उन्नति करके साहित्य की भाषा बन गई। साहित्यकारों ने उसके कभी ‘हिंदी‘ कभी ‘ज़बाने हिंदुस्तान‘ कहा और कभी ‘दकनी‘ कहकर पुकारा।”1 इसके बाद मुहम्मद तुगलक (1325–51) ने जब ‘देवगिरि‘ को ‘दौलताबाद‘ नाम देकर अपनी राजधानी बनाया और दिल्ली की प्रजा को ले जाकर वहाँ बसाया तो ‘दक्षिणी हिंदी‘ की जड़ें और मज़बूत हुईं। क्रमशः यह दक्षिण की ‘मराठी, तेलुगु एवं कन्नड़‘ भाषाओं से प्रभावित हुई. और एक स्वतंत्र संपर्क भाषा के रूप में ढल गई। उत्तर भारत में खड़ी बोली गद्य के विकास के पूर्व इसका गद्य साहित्य विकसित हो चुका था। दक्खिनी खड़ी बोली – गद्य के पूरे विकास को तीन चरणों में विभाजित करके देखा जा सकता है।
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प्रारंभिक काल (1300–1400 ई.)
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मध्यकाल (1491–1687 ई.)
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उत्तरकाल (1688–1850ई.)
प्रारंभिक काल के सबसे प्रसिद्ध गद्य-लेखक ख्वाजा बंदा नेवाज गेसूराज (1318–1422 ई..) हैं। यह दिल्ली के प्रसिद्ध सूफ़ी फ़क़ीर निज़ामुद्दीन औलिया के ख़लीफ़ा (उत्तराधिकारी) ख़्वाजा नसीरुद्दीन देहली के प्रमुख शिष्य थे। यह 1399 ई. के लगभग अपने मत का प्रचार करने के लिए गुलबर्गा चले आये थे। उनकी प्रसिद्ध कृति ‘मेराजुल-आशकीन‘ दक्खिनी गद्य की पहली पुस्तक मानी जाती है। ‘शिकारनामा और तिलावतुल-वजूद‘ इनकी दो अन्य छोटी-छोटी रचनाएँ हैं। विद्वानों को इसमें संदेह है कि उपर्युक्त कृतियाँ ख़्वाजा साहब की हैं। ऐसा समझा जाता है कि ख़्वाजा साहब के शिष्यों ने उनके विचारों और कथनों को प्रकारांतर से संगृहीत करके पुस्तकों का रूप दे दिया है। इस मत-मतांतर के बावजूद ख़्वाजा बंदानेवाज गेसूदराज के नाम से प्रसिद्ध रचनाओं का गद्य दक्खिनी के विकास के प्रथम चरण का गद्य स्वीकार किया गया है। इनके गद्य का एक नमूना नीचे उद्धृत है –
“इंसान के बूजने कूं पांच तन, हर तन कूं पांच दरवाजे हैं, होर पांच दरबान हैं, पैला तन बाजिबुलवजूद, मोकाम उसका शैतानी, नफूस उसका अम्मारा याने वाजिबके आंक सूं गैर न देखना। सौ हिरन के कान सों गैर न सुनना सों।“2
दक्खिनी गद्य के विकास के दूसरे चरण में मुल्ला ‘वजही‘ विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं। उनका जीवन-वृत्त पूरी तरह ज्ञात नहीं है, किंतु उतना निर्विवाद है कि यह मुहम्मद कुली कुतुबशाह (सन् 1580–1612) के समकालीन थे, क्योंकि इनके द्वारा लिखी प्रेमकथा ‘कुतुबमुश्तरी‘ के नायक इनके संरक्षक मुहम्मद कुली कुतुबशाह स्वयं हैं। यह सन् 1609 में लिखी गई है। मुहम्मद कुली कुतुबशाह स्वयं एकहूर श्रेष्ठ कवि थे। इनका ‘कुलियाते कुली कुतुबशाह’ एक वृहत काव्य ग्रंथ है। वजही की प्रख्यात गद्य-कृति ‘सबरस ‘ (1635 ई.) है।
इसमें तसव्वुफ़ के सिद्धांतों को प्रतीकात्मक शैली में व्यक्त किया गया है। उसका एक नमूना इस प्रकार है –
“इश्क़ आज़िज, इश्क़ तवाना, इश्क़ दाना, इश्क़ दिवाना, इश्क़ अपने रंग में आप घुलता है। इश्क़ चंदर, इश्क़ कमान, इश्क़ ईमान, इश्क़ आशिक़, इश्क़ सुल्तान। इश्क़ से रोशन जमीन, इश्क़ से रोशन आसमान, इश्क़ से आशिक़ मग़रूर, इश्क़ ते माशूक़ ने पकड़ी ज़हूर।”3
‘सबरस ‘को उर्दू साहित्य की प्रथम रचना माना जाता है। इस दृष्टि से उर्दू साहित्य में इसे विशेष महत्व प्राप्त है। इसके गद्य की एक विशेषता लयात्मकता और वाक्यों की तुकान्तता है। यह प्रवृत्ति परवर्ती अपभ्रंश या पुरानी हिंदी की गद्य रचनाओं में भी पाई जाती है। वजही के तुकांत प्रयोग-युक्त गद्य का एक नमूना दृष्टव्य है –
“यू किताब सब किताबां का सरताज, सब बातां कै मजाज, हर बात में सौ सौ मेराज। इसका सौदा समजे न कोई आशिकबाज। इस किताब की लज्जल पाने आलम सब मुहताज। क्या औरत क्या मर्द, जिसमें कुछ इश्क़ का दर्द, इस किताब को सीने पर ते हीलासी ना, इस किताब बगैर कोई अपना वक़्त वहलासी ना।”4
दक्खिनी गद्य के तीसरे चरण में अनेक गद्य लेखकों ने अपनी रचनाओं द्वारा ‘वजही ‘ की परंपरा को आगे बढ़ाया। इस युग का गद्य आधुनिक हिंदी-गद्य के बहुत निकट आ गया है। इस युग के एक प्रसिद्ध लेखक सैयद हुसैन अली खां ने सन् 1838 में ‘चार-दरवेश’ का फ़ारसी से ‘दक्खिनी’ में अनुवाद किया था। सैयद हुसैन आली हैदराबाद के निवासी थे, इन्हें सुल्तान की ओर से जागीर मिली हुई थी। यह ‘फ़ारसी ‘ के अच्छे जानकार थे। ‘चार-दरवेश‘ का अनुवाद इन्होंने अपने पुत्रों के लिए किया था। इसके पूर्व मीर हुसैन अता ‘तहसीन’ (1775 ई.) और मीर अम्मन (1801 ई.) उर्दू गद्य में इस कहानी का अनुवाद कर चुके थे। ये दोनों लेखक उत्तर भारत के थे। इस प्रकार इस लोकप्रिय कहानी ने उत्तर और दक्षिण की गद्य रचना के बीच सेतु का कार्य किया। सैयद हुसैन अली द्वारा अनूदित गद्य का नमूना इस प्रकार है –
“वारिस ताज व तख्त का कोई अब तक पैदा न हुआ। जब औलाद नहीं तो उस दौलत को लेकर क्या करूँ। यह तख्त व ताज मुझको मुबारक हो, मैं उस हुजरा से बाहर न निकलूँगा। जब तक अल्लाह ताला मुझको औलाद से सरफराज करे। वजीर बात दबीर ने अर्ज किया। हक़लाता साया दामन को खाना खानादारों के सर पर कायम दवायम रखे।”5
वस्तुतः औरंगज़ेब द्वारा दक्षिण विजय के बाद उत्तर भारत में विकसित ‘उर्दू‘ दक्षिण भारत में विकसित ‘दक्खिनी‘ पर छा गई थी। इसलिए दक्खिनी की अपनी विशेषता धीरे-धीरे समाप्त होने लगी थी। इसीलिए कुछ विद्वान दक्खिनी गद्य की प्रतिनिधि रचना के रूप में ‘सबरस‘ को ही विशेष महत्व देते हैं। ‘दक्खिनी हिंदी’, ‘खड़ी-बोली’ हिंदी (उत्तर भारत में विकसित) और ‘उर्दू‘ तीनों ही भाषाएँ हिंदू-मुस्लिम सांस्कृतिक संश्लेष की उपज हैं, फिर भी तीनों की प्रकृति में अंतर है। ‘दक्खिनी हिंदी‘ का सांस्कृतिक आधार व्यापक है। एक ओर तो उसमें उत्तर भारत की अनेक बोलियों—पंजाबी, राजस्थानी, ब्रज, अवधी और अरबी-फ़ारसी का मेल था दूसरी ओर दक्षिण में जाने पर उसने ‘मराठी, तमिल, तेलुगु’ आदि स्थानीय भाषाओं से भी प्रभाव ग्रहण किया। इस प्रकार सच्चे अर्थों में वह भारत की संपर्क भाषा के रूप में विकसित हुई। ‘खड़ीबोली हिंदी‘ का सांस्कृतिक आधार उससे कुछ सीमित है। यह हरियाणवी, ब्रज, अवधी, राजस्थानी आदि के साथ अरबी-फ़ारसी के मेल से विकसित हुई। खड़ी-बोली हिंदी ने अपनी समृद्धि के लिए संस्कृत का आधार लिया। इसी प्रकार ‘उर्दू‘ ने फ़ारसी से शक्ति ग्रहण की और दोनों में दूरी बढ़ती गई। ऐतिहासिक कारणों से आज उत्तर भारत में विकसित खड़ी-बोली हिंदी ही देश की संपर्क भाषा बन गई है किंतु यह निर्विवाद है कि अपने मूल रूप में वह ‘ दक्खिनी हिंदी‘ के अधिक समीप है।
दक्खिनी साहित्य अपने सर्वसमावेशी भाषिक स्वरूप में भारत के दक्कन (दक्षिणी) प्रदेश, जो औरंगज़ेब के साथ-साथ बहमनी वंश के शासकों द्वारा शासित हुआ और प्रकारांतर से सुविस्तीर्ण गोलकोंडा राज्य के विभिन्न राजघरानों जैसे कुतुबशाही और आसफजाही साहित्य और कलाप्रेमी नवाबों के संरक्षण में परवान चढ़ा। दक्कन की गंगा-जमुनी संस्कृति को आकर्षक और सरस मृदु-मनोहारी शैली में प्रस्तुत करने में दक्खिनी भाषा में रचित गद्य और पद्य आज भी मनभावन और लोकलुभावन मुद्रा में इस समूचे दक्खिन प्रदेश में व्याप्त हैं। मध्यकालीन दक्खिनी साहित्य की अनमोल धरोहर को येन-केन-प्रकारेण सँजोकर सुरक्षित रखने में हैदराबाद महानगर की अपनी एक विशेष सांस्कृतिक छवि है। यहाँ के साहित्य-प्रेमी जन आज भी दक्खिनी गद्य और पद्य का आस्वादन तन्मय मुद्रा में रसलीन होकर करते हुए दिखाई देते हैं। दक्खिनी साहित्य की आत्मा हिंदी, उर्दू और तेलंगाना प्रदेश की तेलुगु भाषाओं के गुँथे हुए रूप में बसती है। पूर्ववर्ती दक्खिनी साहित्य की अधिकाधिक रचनाओं को एकत्र कर उसे सुरक्षित करने के लिए दक्खिनी साहित्य के मर्मज्ञ विद्वान श्री श्रीराम शर्मा (हैदराबाद) का कठोर श्रमसाध्य प्रयास उनके प्रति अतुलनीय श्रद्धा-भाव को जागृत करता है। उनका संपूर्ण जीवन दक्खिनी भाषा और साहित्य के विकास के साथ भावी पीढ़ियों के लिए उसके परिरक्षण की चिंता में ही बीता। दक्खिनी की सर्वोत्कृष्ट रचनाओं (गद्य और पद्य) को संकलित करने का संकल्प लेकर उन्होंने एक वृहत् संकलन, ‘दक्खिनी का पद्य और गद्य‘ संपादित किया। इस संकलन की मूलप्रति दुर्लभ है। प्रस्तुत संकलन को संपादित करने के उद्देश्य को श्रीराम शर्मा ने अपने संपादकीय में स्पष्ट कर दिया है। उनके अनुसार दक्खिनी साहित्य की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि उत्तर तथा दक्षिण, आर्य और द्रविड़ संस्कृतियों के मिलन से निर्मित हुआ है। दक्कन प्रदेश अनेक जातियों और भाषाओं का संगम क्षेत्र रहा है। तमिल और मलयालम को छोड़ कर दक्षिण भारत की तेलुगु, कन्नड़ और मराठी का सम्मिलन उस क्षेत्र में हुआ, हिंदी और उर्दू ने भी इस विलय में मदद की। प्रस्तुत संकलन दक्खिनी साहित्य के पुनरुद्धार की दृष्टि से महत्वपूर्ण दुष्कर प्रयास है जिसके लिए श्रीराम शर्मा श्रद्धा के पात्र हैं। सुविख्यात भाषाविद् सुनीति कुमार चाटुर्ज्या द्वारा लिखित भूमिका ने इस संकलन की प्रमाणिकता और महत्व को पुष्ट किया है। सुनीति कुमार चाटुर्ज्या के दक्खिनी भाषा और उसके विकास के संदर्भ में व्यक्त विचार दक्खिनी भाषा एवं साहित्य के अध्येताओं के लिए मार्गदर्शक हैं। कतिपय कवियों और उनकी रचनाओं को प्रस्तुत संग्रह में सम्मिलित करने के संबंध में सुनीति कुमार ने अपनी असहमति खुलकर व्यक्त की है जो आज के समय के शोधार्थियों और आलोचकों के लिए अनुकरणीय है। संकलन में प्रथम कवि ‘कण्हपा’ (सन् 806) हैं जिनके दोहे और पद क्रमशः उनके द्वारा रचित ‘दोहाकोष और चर्यापद’ से लिए गए हैं। हिंदी सीहित्य के इतिहास में ‘कण्हपा‘ अपभ्रंश (काल) के कवि के रूप मान्यता प्राप्त हैं। किंतु सुनीति कुमार ने अपना अभिमत इस प्रकार प्रस्तुत किया है – “मैं संकलनकार से सभी बातों में सहमत नहीं हूँ। जैसे ‘कान्हपा’ (कण्हपा लिखकर उन्हें एक दक्खिनी द्राविड़ी नाम दिया गया है) के संबंध में। कान्हपा ने दो प्रकार की भाषाओं का प्रयोग किया था—एक पुरानी बंगला (जिसे उड़िया तथा असमिया लोग पुरानी उड़िया और पुरानी असमिया भी कहेंगे और जिसे मैथिलों ने भी मैथिली कहा है—और आश्चर्य की बात है कि उसे कुछ पंडित ‘पुरानी हिंदी ‘भी कहते हैं।) और दूसरा अपभ्रंश। दक्खिनी के आदि कवियों में इन्हें कैसे स्थान मिल सकता है, इसका कोई संतोषप्रद प्रमाण हमारे समक्ष अब तक नहीं है।“6 सुनीति कुमार चाटुर्ज्या ने इस संकलन की भूरि-भूरि प्रशंसा की है। इस कृति के संपादन के लिए श्रीराम शर्मा को हिंदी प्रेमी जनता की ओर से कृतज्ञता ज्ञापित की है।
सन् 1954 में प्रकाशित प्रस्तुत ग्रंथ ‘दक्खिनी का पद्य और गद्य‘ के संपादक श्रीराम शर्मा ने अपने संपादकीय निवेदन में दक्खिनी साहित्य के उद्भव और विकास का संक्षिप्त इतिहास प्रस्तुत कर दिया है जो कि संकलित पद्य और गद्य साहित्य की भाषिक विशिष्टता को चिह्नित करता है। दक्खिनी साहित्य के उद्भव और विकास के अध्ययन के लिए यह संकलन हिंदी में एक मात्र संदर्भ-ग्रंथ है। इस संकलन के पद्य खंड में 73 दक्खिनी कवियों की छोटी बड़ी काव्य रचनाएँ संग्रहीत हैं। प्रत्येक कवि या शायर के जीवन काल को रचना के संग संपादक ने अपने शोधपूर्ण प्रयासों से मुहैया कराया है। कविता के भावार्थ को समझने के लिए पर्याप्त फुट नोट विस्तृत टिप्पणियों सहित संकलन में उपलब्ध हैं। नामदेव, तुकाराम, एकनाथ जैसे मराठी के भक्त कवियों की दक्खिनी की रचनाओं का समावेश साथ ही केशवस्वामी और स्वामीप्रसाद ‘स्वामी‘ की भक्तिपरक कविताएँ हिंदू-मुस्लिम एकता का जयघोष करती हैं। साकार और निराकार, सगुण और निर्गुण भक्ति की सुंदर प्रेरणादायक पद वर्तमान संदर्भ में प्रासंगिक हैं। ‘स्वामी प्रसाद स्वामी (1824) द्वारा रचित निम्नलिखित पद दृष्टव्य है –
“पाया न कभी यह दिल दीवाना किसू ने
हैरत में कोई रह लिया वीराना किसू ने
सब कुफ्र और इस्लाम के झगड़ों में हैं भूल
देखा न कभी जिस्म का बुतखाना किस ने।“7
इस संकलन के वृहत पद्य खंड में विभिन्न कवियों द्वारा भिन्न काल खंडों में दक्खिनी में रचित कविताओं में प्रकृति चित्रण, भक्ति, सौंदर्य, प्रेम, ईश्वर आराधना, मानव संबंध, आत्मा-परमात्मा के संबंध जैसे जटिल और सरल विषयों पर हृदय स्पर्शी भाव व्यक्त किए गए हैं। पद्य खंड की भाँति ही संकलन का गद्य खंड भी सशक्त दक्खिनी गद्य परंपरा का परिचय प्रदान करता है। गद्य खंड के अंतर्गत 25 लेखकों के द्वारा इस्लाम धर्म पर आधारित सारगर्भित लेखों का संकलन प्रस्तुत किया गया है, जो कि संकलन को महत्वपूर्ण बनाता है। संकलन में दक्खिनी में रचित कुछ लोकगीतों को भी शामिल किया गया है जो कि गौरतलब है। इसके अतिरिक्त दक्खिनी की पहेलियाँ, लोकोक्तियाँ, और मुहावरों का संकलन मनोरंजक और आह्लादकारी बन पड़ा है।
‘अज्ञात समय‘ शीर्षक के अंतर्गत 27 ऐसे कवियों और शायरों की पद्य रचनाएँ हैं, जिनका जीवन काल और रचना समय अज्ञात है। लाला पेमचंद श्रीवास्तव, अमानुल्ला, फ़कीरा, अब्दुल हाशिमी, आज़ाद, आली रहमती कासिम अली, महमूद दकनी आदि हिंदू और मुसलमान कवियों की चुनिंदा रचनाओं को शामिल किया गया है। दक्खिनी पद्य में दोहा और पद शैली विशेष आकर्षण और कौतूहल पैदा करती है। ‘अमानुल्ला’ नामक कवि के ये दोहे दृष्टव्य हैं –
“पाये शहादत शाह हसन दुनिया छोड़े दूर
जिसे कोई छोड़ता जाकर, जाकर जाय ज़रूर”
“जिसके नाना का कहें कल्मा नित उठ हाय
उसके नाती कूँ देखो मारा ज़हर पिलाय”
“आदम कब चाहते थे जन्नत छोड़ के जाय
जब दुश्मन पीछे पड़ा शैतान मलून हाय”8
संकलन में केवल तीन दक्खिनी के पहेलियों को प्रस्तुत किया गया है जो मनोरंजक और रोचक हैं –
“इत्ते सर के टिल्लू मियाँ
गज भर की दुम
भाग गये टिल्लू मियाँ
सपड़ गई दुम“ - सुई
“हरी गुंबज सुफेद खाने
उसमें बैठे सिद्दी दिवाने” - सीताफल9
ग्रंथ के अंत में संकलन के सारे कवियों का शोधपरक साहित्यिक परिचय यथा संभव विस्तार से पाठकों के ज्ञान वृद्धि हेतु श्रीराम शर्मा ने श्रमपूर्वक प्रस्तुत किया है, उनका यह परिश्रम स्तुत्य है। वर्तमान युगीन संदर्भ में श्रीराम शर्मा द्वारा संपादित प्रस्तुत ग्रंथ ‘दक्खिनी का पद्य और गद्य’ भारतीय साहित्य के अध्ययन की दिशा में एक अपरिहार्य महत्वपूर्ण शोध ग्रंथ के रूप में पुनःअन्वेषित किया गया है।
संदर्भ सूची –
-
प्रो. एहतेशाम हुसैन : उर्दू साहित्य का आलोचनात्मक इतिहास, पृ. 321
-
डॉ. परमानंद पांचाल : दक्खिनी हिंदी, विकास और इतिहास, पृ. 79-80
-
डॉ. इकबाल अहमद : दक्खिनी साहित्य का आलोचनात्मक इतिहास, पृ. 376
-
मुल्ला वजही : सबरस, पृ. 9 (ताज पब्लिशिंग हाउस, दिल्ली)
-
डॉ. इकबाल अहमद : दक्खिनी साहित्य का आलोचनात्मक इतिहास, पृ. 396
-
सुनीति कुमार चाटुर्ज्या : भूमिका, दक्खिनी का पद्य और गद्य, श्रीराम शर्मा
-
श्रीराम शर्मा : दक्खिनी का पद्य और गद्य, पृ. 241
-
श्रीराम शर्मा : दक्खिनी का पद्य और गद्य, पृ. 307
-
श्रीराम शर्मा : दक्खिनी का पद्य और गद्य, पृ. 468
डॉ. एम वेंकटेश्वर, फ्लैट नं 310, कंचरला टॉवर्स, गोलकोण्डा क्रॉस रोड, मुशीराबाद,
हैदराबाद 500020।
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