कोविड काल में सुरक्षित 

15-10-2021

कोविड काल में सुरक्षित 

डॉ. आशा मिश्रा (अंक: 191, अक्टूबर द्वितीय, 2021 में प्रकाशित)

गहरी काली अँधियारी रात, पत्तों की सरसराहट
दबी दबी सी आवाज़ें मेरे घर में भी आ रहीं थीं।
एक कमरे से दूसरे कमरे, ऊपर नीचे, 
आवाज़ को मैं रही खोजती तो जाना कि,
कपड़ों की अलमारी कुछ फुसफुसा रही थी,
और इशारों से मुझे अपनी ओर बुला रही थी।
अलमारी के कपड़े हरे, लाल, पीले दुपट्टे 
मुझे पुकार रहे थे।
सुनहरे फूलों वाली नीली साड़ी बोली, 
"जब तुम्हारे भाई ने मुझे प्यार से भेंट किया था, 
तब तुम फूली न समाती थीं, और सभी
घर आने जाने वालों को 
मुझे बड़े चाव से दिखलाती थीं,
अब क्यों नहीं पहन कर इठलाती?”
 
तभी पीली कढ़ाई वाला कुरता बोल उठा, 
“मुझको तो तुम मामा के घर से लायीं थीं 
साथ मैं कितनी बचपन की यादें ताज़ा कर लायीं थीं, 
क्यों न इस्तरी करके मेरी सिलवटों को निकालतीं?” 
 
यह सब सुन झुमका भी चुप न रह सका, 
झुमका बोला, “क्यों कर रखा है बंद मुझे इस डिबिया में?
छोटी बहना के लिए भाई मुझे बड़े प्यार से लाया था, 
और बहुत इंतज़ार के बाद तुम्हें पहनाया था, 
पहले तो तुम मुझको कानों में लटकाती थीं, 
जब सजती सँवरती और सहेलियों से मिलने जाती थीं"
आजकल तो पाजामे कुरते का ही राज है, 
जैसे वह ही कपड़ों का ताज है।
 
और मेरी आसमानी रंग की रफ़ू करी साड़ी, 
जिसको सहेजा है कई बार, 
जिसमें भरा है माँ का प्यार अपार।
कोविड के समय में भाई बहन,
रिश्तेदार कोई भी न मिले, 
दिलों में नहीं हैं दूरियाँ पर 
सीमाओं के क़ैदी आज सब बने, 
ऐ खुली हवाओ, ले जाओ मेरे ये एहसास, 
और उनको लेने दो उसमें साँस, 
शीघ्र ही होंगे हम सब साथ।
मैंने कपड़ों से कहा, “मत मनाओ शोक और ख़ुश रहो,
मेरी ये छोटी छोटी यादें और ख़ुशियाँ लिये 
तब तक तुम अलमारी में सुरक्षित रहो।"

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