चिरंतन का चिंतन एवं शाश्वत से साक्षात्कार: सनातन धर्म एवं संस्कृति
डॉ. इन्दु गुप्ता
विश्व के समस्त सनातन संस्कृति के संरक्षकों, संवर्द्धकों और पोषकों को समर्पित संकलन: सनातन धर्म एवं संस्कृति
समीक्ष्य कृतिः सनातन धर्म एवं संस्कृति
प्रकाशकः संजीव प्रकाशन, दिल्ली-110002
सम्पादकः डॉ. दिनेश पाठक ‘शशि’
विधाः गद्य (विचार/आलेख) संकलन
पृष्ठ संख्याः 234
मूल्यः ₹595.00
वर्तमान समय में जब धर्म-मज़हब परस्पर वैमनस्य, द्वेष, आडम्बर तथा अमानुषिकता का घोर कारण बन चुका है। ऐसे में सनातन यानी अनंत-अमर धर्म, परम्परा और संस्कृति जैसे महत्त्वपूर्ण सार्वकालिक, सार्वभौमिक और सदैव चिन्तनीय विषय पर, प्रौढ़ और बाल साहित्य की विभिन्न विधाओं में समाजोपयोगी बासठ पुस्तकों के रचयिता व आलोचक . . . विद्वान वरिष्ठ साहित्यकार डॉ. दिनेश पाठक ‘शशि’ द्वारा सम्पादित व आदित्य की नारंगी आभा से उद्दीप्त सुन्दर आवरण में सुसज्जित संकलन ‘सनातन धर्म एवं संस्कृति’ हस्तगत हुआ। संकलन में देश के बत्तीस 32 प्रबुद्ध चिंतकों, विद्वानों और विचारशील मनीषियों की वैचारिकी बत्तीस दीप्त रवि-रश्मियों की तरह संकलित हैं। देखते ही, जिज्ञासा और उत्सुकता से आप्लावित मेरा पाठक एकबारगी यह जानने को उत्कंठित हो गया कि शेष इकतीस मूर्धन्य कलमकारों ने इस गूढ़ विषय और उसके कौन-कौन से उपविषयों पर अपने गहन चिंतन से संकर्षित करके क्या-क्या प्रस्तुत किया होगा? भई इकतीस इसलिए कि एक बटा बत्तीस मैं जो हूँ। अब विषय इतना वैश्विक है तो भई, विषयवस्तु तो गूढ़ होगी ही। बस मैं उन सबकी अनुपम लेखनी से उजागर दार्शनिक और शोधपरक विचारों और तथ्यों को आत्मसात करने में जुट गई।
अपने सम्पादकीय में सम्पादक डॉ. दिनेश कुमार ‘शशि’कहते हैं कि ‘सनातन धर्म’ जगत और समस्त प्राणियों के सुखी, निरामय, कल्याणमय और सानन्द होने की भावना से संन्निहित होकर सबके हित की भावना “सर्वे भवन्तु सुखिनः” की अति सुखदायक और आल्हादकारी कल्पना और भाव तथा “वसुदैव कुटुम्बकम्” रूप का दिग्दर्शन करवाता हुआ चलता है। अपने शाश्वत धर्म, समृद्ध संस्कृति और परम्पराओं का दिग्दर्शन करवाने की सदाशयता और सदेच्छा परिलक्षित करते हुए, उनके सुसम्पादन में साकार हुए, इस संकलन ‘सनातन धर्म एवं संस्कृति’ में भारत के बत्तीस विद्वानों ने ‘सनातन धर्म’ और संस्कृति के विभिन्न पक्षों पर अपने गांभीर्य पगे विस्तृत विचार और शोधपरक तथ्य रखे हैं; जिनसे निश्चित ही सनातन धर्म एवं संस्कृति के विषय पर कुछ धुँधले अक्स स्पष्ट होने लगते हैं और कुछ ढँके-छिपे पक्ष उघड़कर अपने भव्य रूप में दृष्टिगोचर होने लगते हैं। पद्मश्री डॉ. रवीन्द्रकुमार ‘सनातन शाश्वत व्यवस्था और भारतीय संस्कृति’ विषयक अपने आलेख में कहते हैं कि भारतीय संस्कृति की मूल विशेषताएँ, सनातन व्यवस्था धर्म के मूलाधारों से ही विकसित हैं; इसलिए न केवल दीर्घकालिक हैं अपितु श्रेष्ठतः विकासोन्मुखी भी हैं।
डॉ. सोमदत्त शर्मा ने अपने आलेख ‘भारतीय सनातन संस्कृति एवं सभ्यता’ में मनुस्मृति आदि ग्रन्थों में उद्धृत सनातन धर्म के दस लक्षण “धृतिः क्षमा दमोस्तेयम् शौचम् इंद्रियनिग्रहंः। धीर्विद्या सत्यम् अक्रोधो दशकं धर्म लक्ष्णम्॥” अर्थात् धैर्य, क्षमा, मन को वश में करना, चोरी न करना, आंतरिक तथा बाह्य पवित्रता, इन्द्रियों को वश में रखना, बुद्धि विद्या, मन, कर्म, वचन से सत्य का पालन करना, क्रोध न करना . . . को बताते हुए कहा है कि इन सिद्धांतों को जीवन में अपनाने से मनुष्य मानवीय गुणों से सम्पन्न होता है।
‘सनातन भारतीय संस्कृति के मूल तत्त्व’ आलेख में अपनी समृद्ध संस्कृति के बारे में डॉ. दिनेश प्रताप सिंह कहते हैं “संगच्छध्वं सं वदध्वं” अर्थात् हमें एक साथ मिलकर चलना है, सम्वाद करना है; विवाद नहीं। “एकं सद्विप्रा बहुधा वदन्ति।” एक ही सत्य को मनीषि अनेक प्रकार से कहते हैं। सही ही है, सनातन धर्म और भारतीय संस्कृति में मूलतः जीव-मात्र में एक ही आत्मा के दर्शन करने का यत्न करते हुए, सबके लिए “सर्वे भवन्तु सुखिनः सर्वे सन्तु निरामयाः” की सद्कामना की गई है और सम्पूर्ण मानवता के कल्याण हेतु परमसत्ता से हमारी प्रार्थना रही है “असतो मा सद्गमय। तमसो मा ज्योतिर्गमय। मृत्योर्मा अमृतंगमय।”
अपने आलेख ‘नारियों का सनातन धर्म और संस्कृति में योगदान’ में सुविज्ञ डॉ. अमिता दुबे धर्म और संस्कृति के अन्योन्याश्रित सम्बन्ध को परिभाषित और उल्लिखित करती हुई कहती हैं, “जब हम धर्म में रत होते हैं, तब सांस्कृतिक रूप से समृद्ध होते हैं। जब हम उच्छृंखलता से जीवन जीते हैं तो सबसे पहले हमारे कृत्य से संस्कृति का नाश होता है।”
वहीं ‘सभ्यता और संस्कृतिः अंतरावलम्बन’ व्याख्यायित करते हुए डॉ. दिनेशकुमार शर्मा सभ्यता और संस्कृति का सम्बन्ध प्रतिपादित करते हैं . . . “सभ्यता और संस्कृति बहुत सूक्ष्म लेकिन व्यापक शब्द हैं। सभ्यता बाहरी चीज़ का नाम है और संस्कृति भीतरी तत्त्व है। दार्शनिकों ने संस्कृति को दर्शन का विषय माना है; जबकि साहित्य में संस्कृति का सम्बन्ध जीवन के विभिन्न सापेक्ष स्थितियों से माना गया है।”
‘सनातन धर्म एवं संस्कृति और पाश्चात्य सभ्यता’ में डॉ. करुणा पाण्डेय रेखांकित करती हैं, “सनातनी संस्कृति होती है, धर्म नहीं; क्योंकि धर्म को हम अपनी इच्छानुसार धारण करते हैं परन्तु संस्कृति का रूप शाश्वत है। जैसे हिन्दू, बौद्ध, जैन, सिख, बहाइयों के धर्म या मार्ग अलग रहने पर भी, सब में मूल संस्कृति एक वही विश्व की पुरातन भारतीय उपमहाद्वीप की सनातन और शाश्वत संस्कृति रहती है।”
मदनमोहन अरविन्द ‘वैश्विक परिदृश्य में सनातन धर्म और संस्कृति की प्रासंगिकता’ बताते हुए रेखांकित करते हैं . . . “जन व सर्व-सुखकारी सत्य ही सनातन धर्म है; यानी सत्य ही सनातन है और सनातन ही धर्म है और “यतो धर्मस्ततोजयः’के इस उल्लेख को जब हम “सत्यमेव जयते” के संदर्भ के साथ देखते हैं तब सत्य सनातन और धर्म का समीकरण “धर्मो रक्षति रक्षितः” स्वतः स्पष्ट हो जाता है।
‘स्त्री और संस्कृति’ आलेख में चिन्तक डॉ. प्रभा पंत संस्कृति शब्द की उत्पत्ति का उल्लेख करती हैं, “संस्कृति शब्द संस्कृत के ‘कृ’करना धातु में सम् सम्यक उपसर्ग और ‘क्तिन’प्रत्यय के योग से बना है जिसका शाब्दिक अर्थ है सम्यक् रूप से किया जाने वाला आचार व्यवहार। व्यावहारिक रूप में संस्कृति का तात्पर्य समस्त ज्ञान-विज्ञान, कला, दर्शन, खान-पान, वेषभूषा, रहन-सहन आदि में परिष्कार एवं वैशिष्ट्य में लिया जाता है।”
‘सनातन धर्म एवं संस्कृति का वैज्ञानिक आधार’ बताते हुए पूनम माटिया कहती हैं, “सनातनमेनमहुरुताद्या स्यात पुनर्णव” (अथर्ववेद) अर्थात् सनातन उसे कहते हैं जो आज भी नवीकृत है। इसीलिए इसमें बहुदेव उपासना है।
‘शाश्वत। चिरन्तन धर्म सनातन’ में डॉ. आभा पाण्डेय रामचरितमानस उत्तरकाण्ड का अंश उद्धृत करते हुए कहती हैं, “सनातन धर्म उस परम कल्याण की बात करता है जो कि मानव मात्र का कल्याण है। यह भय या अपराधबोध प्रयोग करके मानवबुद्धि की जिज्ञासा को बलपूर्वक समाप्त नहीं करता। चिन्तनशील प्रकृति का होने कारण सनातन धर्म व्यक्ति को विषय की गहराई से उतरने, अध्ययन करने और कारण खोजने के लिए प्रोत्साहित करता है। असल में सनातन धर्म किसी विशेष व्यक्ति विषय या मत पर विश्वास करना नहीं बताता। न ही अपनी विचारधारा को थोपता है; बल्कि यह मानव में उसके अस्तित्व के उद्देश्य के प्रति जिज्ञासा को जगाता है।”
उषा शर्मा ’प्रिया’अपने आलेख ‘लोक जीवन में सनातन धर्म व संस्कृति का प्रभाव’ में सनातन धर्म और संस्कृति के प्रभाव की गहराई और भारतीय संविधान की स्वतन्त्रता के संगम को लोक जीवन में देखती हैं कि विभिन्न संस्कृतियों और धर्मों को एकीकृत करने की अपनी क्षमता में यह अद्वितीय है। भारत की धर्म निरपेक्षता और धार्मिक विविधता के कारण भारत में विभिन्न धर्मों के बीच सदैव से ही सामंजस्यपूर्ण सम्बन्ध बने हुए हैं। धर्म निरपेक्ष होना भारत को धार्मिक व सांस्कृतिक विविधता के प्रति बहुत सहिष्णु और खुले विचारों वाला राष्ट्र बनाता है।
लेखिका सुमन पाठक अपने आलेख ‘धर्म व संस्कृति का संरक्षण एवं संप्रेषण में’ नारियों का महती योगदान रेखाांकित करते हुए कहती हैं, “सामाजिक धार्मिक, राजनीतिक एवं आध्यात्मिक सभी तरह से सनातन धर्म एवं संस्कृति में नारियों का महत्त्वपूर्ण योगदान है। वास्तव में नारी शक्ति ही प्रकृति का आधार और भारतीय धर्म एवं शक्ति की सर्वोच्च पोषक एवं संरक्षक है।”
‘सनातन स्वयं को पूर्णता की ओर बढ़ाता एक कदम’ अपने आलेख में डॉ. अनुराधा ‘प्रियदर्शिनी’ मानती हैं कि धर्म प्रत्येक क्षण स्वयं को प्रकट करता है और हमें यह बताता है कि तत्त्व सत्य चित्त् आनन्द मानवता का सार है। सनातन धर्म अनंत है, जिसका प्रत्येक नियम युगों पूर्व मानव को दिये गए पवित्र ग्रन्थ वेदों पर आधारित है।
तो ‘वैश्विक परिप्रेक्ष्य में भारतीय सनातन संस्कृति एवं जीवन मूल्य” में मधु वार्ष्णेय के अनुसार विश्व की प्राचीनतम एवं समृद्ध संस्कृति होने का गौरव प्राप्त भारतीय संस्कृति के जीवन-मूल्य ऐसा प्रकाश-स्तम्भ है; जिसकी रोशनी युग-युगांतर से अखण्ड ज्योतिर्मय रही है। इस संस्कृति ने युगों से बदलते हुए इतिहास के उत्थान-पतन को देखा है और राष्ट्र के सामाजिक व सांस्कृतिक परिवेश तथा वैश्विक राजनीति एवं साहित्य की गतिविधियों का केन्द्र भी रही है।
सूफिया ज़ैदी ‘दुनिया का सबसे प्राचीनः सनातन धर्म—’ में धर्म को सर्वस्व का प्रतीक और संस्कृति को स्वाभाविक जीवनशैली की वाहिका बताती हैं कि इन्हीं सिद्धांतों ने ही विश्व-भर में स्वीकार्य व मानित भारतीय मूल्यों को जीवंत रखा है।
‘सिद्धांतों पर आधारित है सनातन धर्म और संस्कृति’ में लेखिका पूनम मनु का कहना है कि सनातन धर्म उस परम की बात करता है जिसकी कामना पूरी दुनिया करती है।
तो लेखिका सविता मिश्रा ‘अक्षजा’ का अपने आलेख ‘संजीवनी बूटी है सनातन धर्म’ में विचार उभरकर आया है “सनातन संस्कृति सिर्फ़ एक धार्मिक पद्धति नहीं है; बल्कि यह जीवन जीने का एक तरीक़ा है, जो हर व्यक्ति को सच्चे अर्थों में समृद्धि, शान्ति और आध्यात्मिक उन्नति की दिशा में मार्गदर्शन करता है। इसका उद्देश्य समाज में नैतिकता प्रेम ओर करुणा का प्रसार करना है ताकि एक सुन्दर सामंजस्यपूर्ण जीवन व्यतीत किया जा सके।”
डॉ. कृष्णमणि चतुर्वेदी ‘सनातन धर्म एवं संस्कृति पर एक दृष्टि’ में अपने विचारपरक दृष्टिकोण से अभिव्यक्त करते हैं, “किसी जाति राष्ट्र आदि की भौतिक समृद्धि एवं मानसिक तथा बौद्धिक विकास की स्थितियाँ, इसके जीवन-मूल्यों तथा पद्धति का परिचय देती हैं।”
‘सनातन धर्म में विज्ञान और अध्यात्म का समन्वय’ खोजते हुए डॉ. आनंदप्रकाश त्रिपाठी निष्कर्ष निकालते हैं कि विज्ञान बाह्य जगत का ज्ञान देता है तो अध्यात्म अंतर्जगत की यात्रा करवाता है। जब दोनों का समन्वय होता है तब मनुष्य पूर्ण ज्ञान की ओर अग्रसर होता है। इसलिए कहा जा सकता है कि सनातन धर्म न केवल एक प्राचीन परम्परा है बल्कि वह आज के वैज्ञानिक और तकनीकी युग में भी एक प्रासंगिक तर्कसंगत और संतुलित जीवन का मार्गदर्शन देने वाला धर्म है। यही इसकी कालजयी और सनातन विशेषता है।
वहीं ‘वर्तमान समय में सनातन धर्म एवं संस्कृति की प्रासंगिकता’ में डॉ. प्रणव भारती का कहना है कि जहाँ “धारणात् इति धर्मः” को स्वीकार किया गया है वहाँ उसका जुड़ाव न तो किसी क्षेत्र विशेष से है, न किसी जाति, न ही समाज अथवा किसी भौगोलिक सीमा विशेष से है।
‘सनातन धर्म की प्रासंगिकता और चुनौतियाँ’ में देवीप्रसाद गौड़~ कहते हैं कि सनातन धर्म विशेष का पर्याय नहीं; बल्कि मानवीय सभ्यता में जीवन जीने की उत्कृष्ट शैली का नाम है। सनातन धर्म का स्वरूप अति विराट है।
विराटता से अभिप्रायः सनातन संस्कृति के चिन्तन का विषय सम्पूर्ण मानव जाति से है। ‘
डॉ. हरेंन्द्र हर्ष ‘सनातन धर्म क्या है?’ में सनातन धर्म को उसके मूलाधार से परिभाषित करते हैं कि धर्म का मूल सार पूजा, जप, तप, दान, सत्य, अहिंसा, दया, क्षमा और यम-नियम हैं।
‘सर्वजन हिताय-सनातन धर्म और संस्कृति’ में अलका प्रमोद का विचार है कि भारतीय संस्कृति में धर्म के लिए कहा गया है “धारणात् धर्मम् इत्याहुः” अर्थात् जो व्यक्ति को समाज को और जनसाधारण को धारण करे वही धर्म है। सनातन धर्म और संस्कृति में मन को आत्मिक शान्ति मिलती है, वही इसे अक्षय रखे हुए है। सनातन धर्म और संस्कृति विश्व में श्रेष्ठ और सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड के लिए आवश्यक और हितैषी है।
अलका गुप्ता ‘प्रियदर्शिनी’ ‘मानव जीवन का सार-सनातन धर्म और संस्कृति’ शीर्षक वाले अपने आलेख में निष्कर्ष निकालती हैं कि सनातन धर्म में ईश्वर, आत्मा और मोक्ष की अवधारणाएँ शामिल हैं। यह एक मार्ग है जो व्यक्ति को आत्म-साक्षात्कार और आध्यात्मिक उन्नति की ओर ले जाता है।
‘सनातन धर्म व संस्कृति में यज्ञ की उपयोगिता’ बताते हुए डॉ. अर्चना प्रकाश लिखती हैं कि सनातन धर्म में सभी के कल्याण की कामना के लिए यज्ञ एक विशेष पद्धति है।
चंद्रप्रताप सिंह सिकरवार का ‘एक समन्वित दृष्टिकोण है सनातन धर्म और विज्ञान’ में कहना है कि “यह एकमात्र संस्कृति है जिसने मानव तंत्र का गहनता से अध्ययन किया है। यह ख़ुशी जीवन और मुक्ति का विज्ञान और तकनीक है।”
जबकि डॉ. राकेश चक्र ‘विश्व के लिए सनातन संस्कृति आज भी वरदान’ मानते हुए कहते हैं कि “भारतीय संस्कृति मनुष्य के जीवन और भारतीय सभ्यता का आधार तथा भारतीय समाज की पहचान है।”
डॉ. इन्दु गुप्ता अपने आलेख ‘सनातन धर्म व भारतीय संस्कृति का गुरुत्वाकर्षण’ में पूरे विश्व या कहें ब्रह्माण्ड में सनातन धर्म और चिरंतन संस्कृति की शाश्वतता और प्रभाव को अनुभूत करते हुए कहती हैं, “मानव सभ्यता के प्रारम्भ से जुड़ा हुआ माने जाना वाला, दुनिया का सबसे पुराना सनातन धर्म जिसे शाश्वत धर्म या वैदिक धर्म भी कहा जाता है, की जड़ें सिन्धु घाटी सभ्यता में लगभग 3300 से 1300 ई पू में मिलती हैं . . . और यह भारतीय उपमहाद्वीप की प्रारम्भिक और प्राचीन वैदिक परम्पराओं में हैं। इसका कोई निश्चित संस्थापक या प्रारम्भ नहीं है बल्कि यह तो कई प्राचीन परम्पराओं और मान्यताओं का संगम है। 1500 से 500 ई.पू. में वैदिक काल आया उसमें सनातन धर्म के सबसे पुराने और आधिकारिक ग्रन्थों यानी वेदों की रचना हुई। जिनमें देवताओं की स्तुति, मन्त्रों और यज्ञ का महत्त्व है। वैदिक काल के बाद उपनिषदों का विकास हुआ; जिसने आत्मा, ब्रह्म और मोक्ष जैसे सिद्धांतों को पुख़्ता करके, धर्म को एक गहरा दार्शनिक आधार प्रदान किया। बाद में धार्मिक और नैतिक उपदेशों को समाहित करते हुए महाभारत, रामायण जैसे महाकाव्यों तथा हमारे प्रमुख ग्रन्थ भगवद्गीता की रचना हुई और आठवीं शताब्दी में आदि शंकराचार्य ने अद्वैत वेदान्त का प्रचार किया और सातवीं से सत्रहवीं शताब्दी के भक्ति आंदोलन ने भक्ति के माध्यम से ईश्वर से सम्बन्ध पर बल दिया। विभिन्न दार्शनिकों और आंदोलनों ने इसके विकास को प्रभावित किया। आधुनिक काल में राजा राममोहन राय, स्वामी विवेकानन्द और महात्मा गाँधी, स्वामी रामकृष्ण परमहंस, स्वामी दयानन्द सरस्वती आदि नेताओं ने सामाजिक कुरीतियों के ख़िलाफ़ आवाज़ उठाई और धार्मिक सहिष्णुता का प्रचार किया। इस प्रकार हिन्दू सनातन धर्म और संस्कृति की एक निर्बाध अविरल सशक्त विराट विशाल और विविधतापूर्ण परम्परा है। इसका सबसे प्राचीन ग्रन्थ सम्भवतः 3500 वर्ष पुराना है। सनातन धर्म व चुम्बकीय आकर्षण की धात्री भारतीय संस्कृति का गुरुत्वाकर्षण समूचे विश्व को अपनी ओर आकर्षित करने की क्षमता रखता है। अमरीका के प्रसिद्ध व धनी व्यवसायी एलॉन मस्क भारत यात्रा के अंतर्गत प्राचीन धरोहर और आध्यात्मिक विरासत के प्रति अपने आकर्षण व्यक्त करते हुए कहते हैं, “दुनिया का इतिहास वास्तव में किसी बिन्दु पर भारत से जुड़ा हुआ है। हम जानते हैं कि हमारे पास वेद और इसी तरह के अन्य ग्रन्थ हैं जो 14000 वर्ष पुराने या शायद उससे भी पहले के हैं। भारत की संस्कृति और उनकी मर्यादाओं के बारे में मैंने बहुत कुछ जाना है; लेकिन उससे भी अधिक अभी और जानने को है।” वात्स्यायन के अनुसार धर्म मनसा, वाचा, कर्मणा होता है। यह केवल क्रिया से सम्बन्धित नहीं बल्कि चिन्तन और वाणी से भी सम्बन्धित है अर्थात् जो आचरण, विचार, उसूल, मूल्य और सिद्धांत धारण करने योग्य हों, वही धर्म है। वैदिक काल में पूरे वृहत्तर भारत (भारतीय उपमहाद्वीप) से उत्पन्न हुए मूलतः भारतीय धर्म जिसे वैदिक या हिंदू धर्म के वैकल्पिक नाम से जाना जाता है के लिये ‘सनातन धर्म’ नाम मिलता है।
‘सनातन एवं वर्तमान परिस्थितियाँ’ का विश्लेषण करते हुए आचार्य नीरज शास्त्री का कहना है कि “सनातन को हिंदू नाम विदेशी आक्रान्ताओं द्वारा दिया गया क्योंकि वे ‘स’ को ‘” बोलते थे यानी सिन्धु को हिन्दू।”
‘सनातन धर्म में वृक्षों की महिमा’ को रेखांकित करते हुए संतोष ‘ऋचा’ का मानना है कि भारतीय सनातन संस्कृति में मनुष्य का मूलाधार प्रकृति एवं प्राकृतिक व्यवस्थाएँ रही हैं। मनुष्य ने प्रकृति के सभी तत्त्वों के साथ साथ वृक्षों को भी अपने जीवन का मूलाधार बनाया।
‘सनातन धर्म और सदाचार’ में सदाचार का महत्त्व प्रतिपादित करते हैं डॉ उमेश चंद शर्मा कि भारतीय संस्कृति का मूलाधार सनातान धर्म ही है; जिसका भारत वर्ष के कण-कण में दिग्दर्शन होता है।
सम्पादक और लेखक डॉ. दिनेश पाठक ‘शशि’ सनातन धर्म के महत्त्व को जीवन पर्यन्त व पल-पल मानते हैं कि सनातन संस्कृति अर्थात् शाश्वत व अनंत संस्कृति जो भारतीय धर्म और दर्शन में एक महत्त्वपूर्ण शब्द है, भारतीय जीवन-शैली का एक अभिन्न अंग है, ऐसी प्रथम संस्कृति है जो सार्वभौम है और प्राचीन और चिरस्थायी भारतीय सभ्यता की सदियों से चली आ रही सांस्कृतिक विरासत है। “सा संस्कृतिः प्रथमा विश्वारा।” समस्त वेदों पुराणों उपनिषदों में अनेकानेक दृष्टांत सनातन धर्म और संस्कृति के बारे में स्पष्ट करते हैं कि विश्व का यह एक ऐसा धर्म है जो सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड को एक विराट कुटुम्ब मानते हुए तद्नुसार आचरण सिखाता है और समस्त प्राणियों के जीवित रहते हुए तो कल्याण की भावना रखता ही है; उसे ईश्वर प्राप्ति का मार्ग दिखलाता है तथा मृत्योपरांत भी जीवन भर किए गये दुष्कर्मों से छुटकारा दिलाकर उसे मोक्ष की प्राप्ति का मार्ग दिखलाता है।
समग्र तौर पर कहूँ तो इन सभी आख्यानों में अत्यन्त शुद्ध, सहज और चित्ताकर्षक भाषा में जो मुख्य दर्शन और वैचारिकी चित्रित होती है वह विश्व-बन्धुत्व और लोक-कल्याण की परम सदाशयता का संदेश लेकर आई है परन्तु इनमें से कई लेखों में निहित विचार, भावों का अप्रतिम उदात्त लिये, विचारोत्तेजक, ज्ञानपरक, मर्मस्पर्शी और अति प्रेरक बन पड़े हैं। जो निश्चित ही सनातन धर्म के शाश्वत विराट सार्वभौम और अमर होने को सिद्ध करते हैं। ये उत्कृष्ट विचार अपनी उत्कृष्टता और गुरुत्वाकर्षण से मानो आग्रह करते प्रतीत होते हैं कि ‘सनातन धर्म एवं संस्कृति’ यानी परम्पराओं और आस्था के साये में जीना मात्र आदर्श नहीं बल्कि सद्जीवन की गहन आवश्यकता है क्योंकि धर्म विश्वास है, जीवन दर्शन है, जीवन संहिता है और संस्कृति हमारी धरोहर . . . ये वही हैं जो मनुष्य को चौपायों की जमात से भिन्न करके दो हाथ और दो पैरों वाला यानी मानव होने का दर्जा देते हैं; इसीलिए ये सनातन हैं। ‘सनातन’ का अर्थ है ‘सदा एक सा रहने वाला’। इसीलिये ईश्वर को भी ‘सनातन’ कहते हैं। ‘सनातन धर्म’ का अर्थ है वह धर्म या नियम जो कभी बदलें नहीं, सदा एक से रहे। अथर्ववेद में ‘सनातन’ शब्द का यह अर्थ किया गया है:
“सनातनमेनमाहुरताद्य स्यात् पुनर्गवः।
अहो रात्रे प्रजायते अन्यो अन्यस्य रूपयोः॥” (अथर्व वेद 10.8.23)
सनातन उसको कहते हैं जो कभी पुराना न हो, सदा नया रहे। जैसे रात-दिन का चक्र सदा नया रहता है . . .।
इस प्रकार संकलन में की रचनाओं की विषयवस्तु का स्वर प्रेरणास्पद, जानकारीप्रद, शोधपरक, तार्किक व अर्थपूर्ण होने के साथ-साथ बेहद मार्मिक और अत्यन्त मानवीय भी है जो एक अहम कारण हो सकता है कि मैं इस पुस्तक को पाठकों के लिए अत्यन्त महत्त्वपूर्ण और संग्रहणीय कहते हुए, इसका अध्ययन करने का आग्रह करूँ। प्रत्येक लेखक का विचार जहाँ ‘सनातन धर्म एवं संस्कृति’ के विषय में कुछ नूतन, तथ्यपरक व गहन जोड़ता हुआ प्रतीत होता है, वहीं चिन्तन-मंथन के लिए उद्वेलित करके कुछ नये छोरों को थामकर, उसके क्षितिज सरीखे विस्तार में डुबकियाँ लगाने को आमन्त्रित करता है। ऐसे में मुझे आइन्सटीन का कथन स्मृत हो आता है “ज्ञान महासागर की तरह अथाह और गहरा है। मैं तो उसके किनारे बैठा सीपियाँ और घोंघे बीन रहा हूँ।” धर्म एवं संस्कृति के ह्रास होते इस समकालीन समाज को ऐसे विचारोत्तेजक उद्वेलन की सख़्त आवश्यकता समीचीन भी प्रतीत होती है; क्योंकि ‘धर्म एवं संस्कृति’ की जीवन में महती भूमिका है . . . इतनी कि ये निराकार होकर भी साकार तथा भाववाचक होकर भी द्रव्यवाचक प्रतीत होते हैं। धर्म और संस्कृति वस्तुतः सह-अस्तित्व, लोक-कल्याण और समरसता की निरंतर खोज है . . . कहना अतिश्योक्ति नहीं होगी। यह भावना हमें हमारे प्राचीन वैदिक वचनों में भी प्रतिध्वनित होती सुनाई देती है। ऋग्वेद में कहा गया है “संगच्छध्वं सं वदध्वं सं वो मनांसि जानताम्। देवा भागं यथा पूर्वे संजानाना उपासते॥”
अर्थात् “तुम सब मिलकर चलो, मिलकर बोलो, तुम्हारे मन एक समान हों। जैसे प्राचीन समय में देवता सामूहिक रूप में यज्ञ में सम्मिलित होते थे, वैसे ही तुम भी एक साथ रहो।” यह वेद वाणी हमें बताती है कि सह-अस्तित्व, विश्व-बन्धुत्व और संग होना केवल आधुनिक आदर्श नहीं है; बल्कि हमारी सांस्कृतिक परम्परा का शाश्वत आधार है। मानव जीवन के दर्शन की जड़ें साथ-साथ रहने, चलने और साथ सोचने की भावना वाली, इसी बेहद मानवोन्मुखी वैदिक संकल्पना में निहित हैं। इसलिए इस जीवंत दस्तावेज़ (पुस्तक) के माध्यम से इस चिरंतन के चिंतन से हुए, शाश्वत से साक्षात्कार का महत्त्व केवल साहित्यिक ही नहीं; बल्कि सामाजिक, सांस्कृतिक, ऐतिहासिक, आत्मिक, आध्यात्मिक दृष्टि से भी अनन्य है। ‘सनातन धर्म एवं संस्कृति’ संकलन में दर्ज शोधपरक विचार जहाँ कुछ गिरहों को खोलकर इन सम्वेदनों को पारदर्शी करते हैं; वहीं वे इस मर्मस्पर्शी विषय पर शोधकर्त्ताओं के लिए चिन्तन-मनन और मन्थन हेतु कुछ नूतन बिन्दुओं का निर्माण तो करेंगे ही साथ-साथ तमस कन्दराओं में कुलबुलाते हुए, उनके बहुत से प्रश्नों का उत्तर बनकर उन्हें आलोकित भी करेंगे; ऐसा मेरा ध्रुव विश्वास है।
इस संकलन की संकल्पना हेतु और अति श्रमपूर्वक इतने मूर्धन्य विचारकों, चिन्तकों को इस अभियान में जोड़ने के लिए . . . फिर सलीक़े से सम्पादित करके इस महत्त्वपूर्ण संकलन को अस्तित्व में लाने के श्रमसाध्य व कठिन कार्य हेतु मैं ‘सनातन धर्म एवं संस्कृति’ ग्रन्थ के विचारशील और विद्वान सम्पादक डॉ. दिनेश पाठक ‘शशि’ जी को साधुवाद और धन्यवाद देती हूँ और हार्दिक बधाई और शुभकामनाएँ भी कि संकलन इतने सुगढ़ और आकर्षक स्वरूप में साकार हुआ। भविष्य में भी डॉ. ‘शशि’ इसी प्रकार अति ऊर्जावान रहकर, अनेक पुस्तकों को आकार देकर, साहित्य व संस्कृति की सतत सेवा करते हुए . . . इन्हें समृद्ध करते रहें . . . इसी सदाशयता के साथ . . .!
डॉ. इन्दु गुप्ता
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