बाज़ार

अजय किशोर  (अंक: 253, मई द्वितीय, 2024 में प्रकाशित)


खड़े हो बाज़ार में तुम क्या सोचते हो? 
हवस भरी नज़रों से किसी की लाडो में 
क्या खोजते हो? 
 
लिबास ज़रूरी है तन पर वो भी खलता है
पहले मनुज बदलता है बाद समय बदलता है
 
काले अंधकार में देखते हो एक टक
कई घरों की रोशनी क़ैद हुई है इनमें अब तक
 
इनका न कोई हक़ है, न समाज में हिस्सेदारी है
इन्हीं की वजह से घरों में अब तक बची हुई नारी है
 
पसंद नहीं है इनको भी पैसों के बदले ज़हर पीना
बदलना ये चाहें तो
देख कर इनको छी छी करते जैसे सड़ा-गला, 
गंदा सा कोई कोना
 
शरीफ़ घरों के बच्चे इन्हें यहाँ पहुँचाते हैं
किसी की इज्ज़त, किसी की लाडो और 
किसी की बहना को नाम अजब दे जाते हैं
 
घर में घुसकर संस्कारी बनते हैं 
पैर छूते हैं देवी के, माता को नमन करते हैं
घर से निकलने पर यही 
हवसी, वहशी, दुष्कर्मी, कुकर्मी और दरिंदे बनते हैं
 
आग्रह: 
 
बहुत हुई लिखत-पढ़त, इनका भी कुछ होना चाहिए। 
समय चाहे जैसा आए, हमें उठकर कहना चाहिए
 
हमीं तो हैं दर्पण, हमीं को बदलना होगा। 
समाज में कुछ हो ग़लत, 
तो हमें सही भी करना होगा। 

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